के. पी. सिंह
विशाखापटट्नम में गत बुधवार को पत्रकार वार्ता में मायावती ने मौका मिलने पर प्रधानमंत्री पद संभालने की इच्छा जाहिर की है। लोकसभा चुनाव के नतीजे आने और नई सरकार के गठन में कुछ ही सप्ताह का समय शेष रह गया है। इस मौके की नजाकत के मददेनजर मायावती का बयान अर्थपूर्ण है। जिसके निहितार्थ को बूझने की कई व्याख्यायें हो सकती हैं।
राहुल की अनिच्छुक छवि
सन 2017 में 16 दिसंबर को राहुल गांधी ने अपनी मम्मी सोनिया गांधी से कांग्रेस के अध्यक्ष का पद विधिवत संभाला था। इसके पहले निर्णायक मौकों पर विदेश जाकर अंर्तध्यान हो जाने की कलाबाजी के चलते उनकी छवि यह बन गई थी कि वे राजनीति को लेकर गंभीर नही हैं।
उनके लिए राजनीति करना एक शगल है जिसकी वजह से वे मनमोहन सिंह के समय पार्टी के एक बड़े वर्ग की इच्छा होते हुए भी अंत तक प्रधानमंत्री पद की जिम्मेदारी से बचते रहे और आगे भी दूसरे के लिए यह अवसर छोड़ने की नौबत आती है तो वे आसानी से तैयार हो जायेगें।
दूसरी ओर पिछले वर्ष का राजनीतिक मंजर मोदी सरकार के लिए बड़ा विषाद भरा था जिसमें लोगों का रुख उनके प्रति चरम सीमा पर नकारात्मक हो गया था। मोदी ही नही उत्तर प्रदेश की योगी सरकार की तो चमक नये- नवेलेपन के दौर में ही मलिन पड़ गई थी।
ऐसे में अखिलेश यादव की तमाम कोशिशों के बाद मायावती गठबंधन के प्रस्ताव पर पसीजनी शुरू हुई और उत्तर प्रदेश के उप चुनावों में उन्होंने सपा का साथ देकर इस प्रयोग को परखा जिसके चलते भाजपा को शर्मनाक हार के झटके झेलने पड़े।
विपक्ष के प्रधानमंत्री के तौर पर उभरा मायावती का चेहरा
उस समय कुछ राजनैतिक पंडित केंद्र में अगली सरकार गठबंधन की होने और राहुल व अखिलेश के समर्थन से मायावती के प्रधानमंत्री बन जाने के आसार देखने लगे थे। लेकिन निर्णायक समय आते- आते राजनीति का यह मंजर एकदम बदल गया।
पुलवामा के बाद की सर्जिकल स्ट्राइक से भले ही मोदी सरकार ने कोई बड़ा तीर न मारा हो लेकिन इसको आधार बनाकर छेड़े गये प्रचार युद्ध के चलते लोकसभा चुनाव में मोदी बेव फिर से जिंदा हो गई। दूसरी ओर राहुल गांधी भी कटिबद्ध मुद्रा में आ गये और प्रियंका के राजनीति में आने के असाधारण फैसले से यह स्थिति और पुख्ता हो गई।
नतीजतन आज भाजपा के विकल्प की बाट जोह रहे मतदाताओं के वर्ग की पहली जरूरत कांग्रेस बन गई है। साथ ही इन हालातों में प्रधानमंत्री पद के लिए मायावती के नाम को कहीं गुम कर दिया है।
अचानक सशंकित हो गये मुसलमान
हालत तो यह है कि इस बीच मायावती ने कहीं- कहीं भाजपा से ज्यादा कटु प्रवचन कांग्रेस के लिए कर डाले जिससे मुस्लिम वोट बैंक उनसे छिटका है। मुस्लिम जनमानस के जेहन में उत्तर प्रदेश में तीन बार भाजपा के सहयोग से उनके द्वारा सरकार चलाने और गुजरात में एक बार नरेंद्र मोदी के प्रचार के लिए पहुंच जाने की यादें नये सिरे से उभर आई हैं।
कोढ़ में खाज का काम उम्मीदवारों के चयन में मनमानी की अपनी आदत मायावती द्वारा न बदलने से हो गया। लगातार इस सिलसिले से उनके प्रति बसपा के मूल वोट बैंक की आस्था में पहले से दरकन आने लगी थी जो अभी तक बारीक थी लेकिन अब उसने न भर सकने वाले नुकसान की शक्ल ले ली है।
चुनौतियों के एहसास से विचलित हुईं मायावती
मायावती को इन चुनौतियों का कहीं न कहीं एहसास जरूर हुआ है। इसलिए स्वयं को प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में पेश कर देने की जरूरत उन्होंने महसूस की। मायावती के इस पैतरे से उनके उम्मीदवार के खिलाफ मन बना रहे बसपा के मूल वोट बैंक को थामने में मदद मिलेगी।
मायावती ने प्रधानमंत्री पद के लिए अपनी दावेदारी को बल प्रदान करते हुए उत्तर प्रदेश में चार बार सरकार चलाते हुए दिखाई गई अपनी कुशलता का बखान भी किया। हालांकि इसे मायावती का अति आत्मविश्वास कहकर खारिज नही किया जा सकता।
यह सही है कि गर्वेनेंस के मामले में मायावती का कोई जोड़ नही रहा। लेकिन जातिवादी जहर में बुझे भारतीय समाज के मूल्यांकन के मापदंड अलग हैं जिसमें मायावती अपनी किसी भी अच्छाई के बावजूद न खरी पाई जा सकती हैं, न सराहीं जा सकती हैं।
अपने शासन की अर्थहीन दुहाई
बसपा का उदय जातिवादी जहर से भारतीय समाज को मुक्त कराने के लिए हुआ था। लेकिन पार्टी की बागडोर जब मायावती के हाथ में आ गई तो उन्होंने इस अमृत मंथन को भुला दिया और जातिवादी गरल की नदी को और तेजी से बहाना शुरू कर दिया।
पिछड़ों की सीटों पर सवर्णों को उम्मीदवार बनाना शुरू कर दिया। उसमें भी यह नही देखा कि वे उदार मानसिकता के सवर्ण हों बल्कि बसपा के टिकट पर जो सवर्ण विधायक, सांसद और विधायक बने उनमें आरएसएस के कटटर माहौल में परवरिश प्राप्त करने वाले लोग अधिक थे।
बहुजन इंजीनियरिंग की जिस प्राणवायु से बसपा चली और उठी थी उसे मायावती ने आप्रासंगिक बना दिया। आधी छोड़ पूरी को धावे आधी मिले न पूरी पावें यही गत मायावती की कटटरवादियों को साधने के चक्कर में हुई। उनके खिलाफ स्मारक घोटाले की अदालती सुनवाई में एक बार फिर तेजी आ गई है।
जिसमें अपनी सफाई दाखिल करते हुए उन्होंने कहा है कि बहुतायत वंचित वर्ग अपने नायकों की मूर्तियां और स्मारक चाहता था जिसे उनकी सरकार ने पूरा किया, लेकिन यह एक झूठी सफाई है। ऐसा नही होता तो पेरियार की प्रतिमा बनवाने के बाद उसे लगवाने के इरादे से वे क्यों मुकर जातीं।
जिन मानवतावादी महापुरुषों की दुहाई उन्होंने दी है उनके विचारों को आगे लाने से वे बचती रहीं जबकि अगर वे ऐसा करतीं तो आज बहुजन समाज उस भाजपा की झोली में न गया होता जो उस सामाजिक धार्मिक व्यवस्था की पोषक है। जिसके कारण बहुजन समाज का तिरस्कार होता रहा है।
मूर्तियां और स्मारक बनवाये उन्होंने घोटालों के लिए न कि किसी परिवर्तन के लिए। आज जब उन्हें अपनी जमीन खिसकती नजर आई तो फिर वे बहुजन थ्यौरी की खोल में वापस लौट आईं हैं। गैर आरक्षित सीटों पर उन्होंने सवर्णों को प्रतीकात्मक ही टिकट दिये हैं।
अधिकांश जगह पिछड़ी जाति के उम्मीदवार बनाया है। जबकि पिछड़ी जाति के लोग इस बीच अंध विश्वासी कर्मकांडों में उलझकर भाजपा के नजदीक चले गये हैं। जिसके सम्मोहन से उनके उबर पाने की आशा फिलहाल नही की जा सकती।
आप्रासंगिक हुआ बहुजन आंदोलन
गौरतलब यह है कि बहुजन आंदोलन के पहले अर्जक आंदोलन जैसे परिवर्तन के आंदोलन जब चले थे तब काफी हद तक पिछड़ी जाति के लोग धर्मभीरुता से परे होकर विवेक सम्मत रुख अपनाने लगे थे।
कालांतर में इस चेतना की संवाहक और अग्रदूत शक्ति के रूप में एक मात्र बहुजन समाज पार्टी रह गई जिसके गफलत के दौर की वजह से बदलाव का सारा पिछला सारा संघर्ष निर्थक हो चुका है। ऐसे हालातों में बहनजी के प्रधानमंत्री पद के लिए दावेदारी के बयान को भी लोग निष्कलुष नही मान रहे। कई सूक्ष्म विश्लेषक इसके पीछे भाजपा का रिमोट कंट्रोल देखने लगे हैं।
वजह यह है कि मायावती के बयान से यह संदेश भी प्रसारित हो रहा है कि अगर भाजपा का बहुमत खत्म हो गया और किसी दूसरे को बहुमत प्राप्त नही हुआ जो कि स्वतः उजागर है तो देश में अस्थिरता उत्पन्न हो जायेगी क्योंकि विपक्षी खेमे में हर नेता प्रधानमंत्री पद के लिए दावेदारी कर रहा है और फ्लोटिंग वोटर इस संदेश से सशंकित होकर भाजपा के खेमे में पलायन के लिए मजबूर होने लगेगा।