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डंके की चोट पर : जिस रानी का मन्दिर है उसका भी किला ढह गया मोदी जी

शबाहत हुसैन विजेता

एक आदमी पंडित था, एक आदमी मुसलमान था, एक आदमी सिक्ख था, एक इसाई था. चारों को एक दूसरे से बड़ी दिक्कतें थी. मगर कोई बड़ा नहीं था, कोई छोटा नहीं था. ज़रूरत पड़ने पर यह साथ बैठ जाते थे. ज़रूरत पड़ने पर झगड़ भी लेते थे.

एक और आदमी था. वह आदमी होकर भी सिर्फ आदमी जैसा था. वह सिर्फ डिस्पोजेबल बर्तन जैसा था. इस्तेमाल किया और फेंक दिया. उसे चमार कहा जाता था. आदमी था मगर भंगी कहलाता था. आदमी था मगर वह पैदा ही इसलिए होता था क्योंकि उसे दूसरों की फैलाई गंदगी साफ़ करनी होती थी.

उस आदमी के लिए किसी के भी मन में इज्जत का भाव नहीं था. वह आदमी साथ बिठाने के काबिल नहीं माना जाता था. उस आदमी को धर्म स्थलों में जाने की इजाज़त नहीं होती थी. वह आदमी हर दिन बेइज्जती के लिए ही होता था. अपने घर के बाहर भी वह तब पलंग पर नहीं बैठ सकता था जब उससे ऊंची ज़ात का आदमी सामने से गुज़र रहा हो.

हिन्दुस्तान में आज़ादी की जंग चल रही थी. सरदार भगत सिंह को फांसी की सज़ा होने वाली थी. फांसी पर चढ़ाने से पहले भगत सिंह से पूछा गया कि तुम्हारी आख़री इच्छा क्या है? भगत सिंह ने कहा कि भंगी की बनाई रोटी खाना चाहता हूँ. सबको बड़ा ताज्जुब हुआ. पूछा गया कि क्यों? भगत सिंह ने कहा कि मेरी गंदगी को या तो मेरी माँ ने साफ़ किया या फिर भंगी ने. माँ की बनाई रोटियां खूब खाईं मगर भंगी की बनाई रोटी कभी नहीं मिली. भंगी से रोटी बनवाई गई. उस रोटी को भगत सिंह ने फांसी चढ़ने से पहले डांस करते हुए खाया और फांसी का फंदा गले में पहन लिया. यह भंगी का पहला सम्मान था.

आज़ादी की लड़ाई में एक और किरदार था. जिसे पूरे देश ने बापू के रूप में जाना. गुजरात में पैदा हुए साधारण से दिखने वाले मोहनदास करमचन्द गांधी ने देश को अपनी बात मनवाने का अस्त्र दिया सत्याग्रह. गांधी ने हिन्दू और मुसलमान को अपनी आँखें माना.

इन्हीं गांधी ने उस आदमी को सम्मान देने का फैसला किया जिसे भंगी-चमार के नाम से पहचाना जाता था. गांधी जी ने इन्हें हरिजन नाम दिया. भंगी-चमार कहना अपराध की श्रेणी में आ गया.

इस आदमी का नाम बदल गया था. कोई उसे भंगी नहीं कहता था. कोई उसे चमार नहीं पुकारता था मगर उस आदमी के हालात बदलने वाला कोई नहीं आया. उसे रिज़र्वेशन दिया गया. उसे पढ़ने-लिखने में सहूलियत दी गई. उसे नौकरियों में रिज़र्वेशन दिया गया. प्रमोशन में रिज़र्वेशन दिया गया. उसे समाज में बराबरी से खड़ा करने की कोशिश भी की गई मगर यह हरिजन नाम का जो स्टीकर गांधी जी ने दिया था ना वह पचास साल बीतते-बीतते उसी दोराहे पर ले आया जिस पर भंगी और चमार कहे जाने पर बेइज्जती का अहसास होता था.

फिर साबित हुआ कि चमचे को स्पून कह देने से चमचे की न वैल्यू बदलती है न ज़रूरत और न ही हैसियत. यही वजह है कि वह आदमी फिर इन्साफ की तलाश में भटकने लग गया. इस बार उसके पास तालीम भी थी और पैसा भी. सरकारी नौकरी भी और चलने को सरकारी गाड़ी भी. बावजूद इसके वह आदमी समाज में बराबरी से खड़ा होने में असहज महसूस करने लगा.

समाज में सबको बराबरी का अधिकार दिलाने के लिए पहले भीमराव अम्बेडकर खड़े हुए थे लेकिन मरने से पहले उन्होंने बौद्ध धर्म अपना लिया था. उन्होंने लिखा भी था कि पैदा होना मेरे वश में नहीं था लेकिन अछूत रहते हुए मैं मरूँगा नहीं.

अम्बेडकर के बाद कांशीराम ने अछूतों को इन्साफ दिलाने का बीड़ा उठाया था लेकिन यह बीड़ा उन्हें पालीटिकली संगठित करने का था. उन्होंने काफी काम किया भी. उन्हीं की कोशिशों से मायावती मुख्यमंत्री बनीं. मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने उन गांधी जी को शैतान की औलाद बताया जिन्होंने सबसे पहले अछूतों को सम्मान दिलाया था.

मायावती ने जिन लोगों के बल पर हुकूमत हासिल की वह हाशिये पर पड़े रहे लेकिन खुद की मूर्तियाँ लगवा लीं. ज़िन्दगी में खुद की मूर्तियाँ लगवाने वाली मायावती भारत में पहली महिला हैं. दूसरे देशों में तो कई उदाहरण हैं जिसमें शासकों ने अपनी मूर्तियाँ लगवाईं.

मायावती ने मुख्यमंत्री रहते हुए खुद को रानी की शक्ल में प्रोजेक्ट किया. दलित महापुरुषों के नाम पर पार्क बनवाये तो उसमें खुद भी मूर्ति बनकर खड़ी हो गईं. खुद को रानी कहा तो सरकारी हेलीकाप्टर से सैंडिल आने लगी. महलों जैसे घर बनने लगे. खुद का मन्दिर भी स्थापित कर दिया.

मायावती के इस अंदाज़ पर हर कोई फ़िदा था मगर वोट बैंक फिसलने लगा था. रानी से आसरा नहीं मिल रहा तो उम्मीद लगाने वाले दूसरे दलों में आसरा तलाशने लगे थे. चार बार की सरकार में भी जब हर बार सिर्फ खुद के बारे में सोचने की झलक दिखने लगी तो रानी का किला ढहने लगा. किला ढहने लगा तो लोग किनारे होने लगे. रानी अकेली होने लगी.

सियासत में खुद पर इतराने वाले और खुद पर मोहित होने वाले अपने साथियों को धीरे-धीरे खोते चले जाते हैं मगर उनके खुद के दरवाज़े पर बजता चमचागिरी का संगीत उनसे सोचने-समझने की ताकत भी छीन लेता है.

याद करिये चुनावी रैलियों में एक नारा बड़ा लोकप्रिय हुआ था- मोदी-मोदी. अबकी बार मोदी सरकार. याद कीजिये हाउडी मोदी को पूरी दुनिया ने महसूस किया था. मगर जिसे देश लौह पुरुष कहता है उसके नाम पर बने स्टेडियम को नरेन्द्र मोदी स्टेडियम कर दिया गया. मोदी जो लोकल की बात करते हैं. वह ग्लोबल बनने की कोशिश में लग गए हैं.

वह भी आम आदमी की लड़ाई के लिए शहजादे को चुनावी जंग में हराकर आये थे. मगर चाय वाला अचानक से राजा बन गया. जो आदमी शानदार कपड़ों का शौक़ीन है. जो विदेश यात्राओं का शौक़ीन है. जो विदेशी नेताओं से दोस्ती करने में गर्व का अनुभव करता है. जो शासक होते हुए भी विपक्ष पर लगातार हावी रहता है. जिसकी एक आवाज़ पर पूरा देश दौड़ पड़ता है वह भी मोटेरा पर अपनी नेमप्लेट देखना चाहता है.

जब सब अपने लिए होगा. जब लोगों के लिए सोचना छूट जाएगा. तब मैदानों में मूर्तियाँ तो होंगी. स्टेडियम और अस्पतालों पर नाम तो होंगे मगर भगत सिंह और गांधी की बराबरी नहीं हो सकेगी. गांधी न प्रधानमंत्री थे, न राष्ट्रपति थे, मगर इन सबसे बड़े थे क्योंकि उन्हें यह चाह नहीं थी कि उनके नाम पर कुछ हो. आज सबसे ज्यादा रास्तों के नाम उन्हीं गांधी के नाम पर हैं.

आज के लिए जीना अच्छी बात होती है मगर आज के लिए जीने वाला कल प्रेरक नहीं बनता है. प्रेरक बनने के लिए नेमप्लेट नहीं देश पर ध्यान देना पड़ता है. आपको तो अच्छे घर के निर्माण की ज़रूरत थी, आपकी नेमप्लेट तो यह देश लगा देता. आपको खुद पर तो भरोसा था मगर देश पर भरोसा नहीं कर पाए. जिन राहों से गुज़रकर मंजिल मिलती है उन राहों को याद रखना ज़रूरी होता है.

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रही बात आम आदमी की तो वह निराशा के समुद्र में गोते लगा रहा है. आम आदमी खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहा है. जिन हालात के लिए उसने सियासी ज़मीन पर बीज रोपे थे वह ज़मीन भी धोखा देती नज़र आ रही है. गीत सम्राट गोपाल दास नीरज की पंक्तियां ज़ेहन में घुमड़ रही हैं. हालांकि इन्हें लिखने का मकसद यह नहीं था मगर हालात के दोराहे पर खड़े आम आदमी को यह पंक्तियां सहारा देती नज़र आती हैं :-

छुप-छुप अश्रु बहाने वाले
मोती व्यर्थ लुटाने वाले
कुछ सपनों के मर जाने से
जीवन कहीं मरा करता है
वो तो यूं ही चला करता है.

Radio_Prabhat
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