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डंके की चोट पर : लाशों के बीच वो लड़की और …

शबाहत हुसैन विजेता

पत्रकारिता में मेरी शुरुआत क्राइम रिपोर्टिंग से हुई. रोजाना शाम को एसएसपी के दफ्तर में ब्रीफिंग होती थी. वहां एक प्रेस नोट मिल जाता था. उसमें दिन भर की घटनाएं होती थीं. यानि रूटीन का इंतजाम हो जाता था. एक्सक्लूसिव के लिए इधर-उधर भटकना होता था. वह 1993-94 का दौर था. मैं शिया कालेज में पढ़ता था. शिया कालेज और मेरे अख़बार के दफ्तर के बीच में मर्चुरी पड़ती थी. जब वहां भीड़ ज्यादा होती थी तो वहां रुक जाता था. अक्सर बड़ी खबर मिल जाती थी.

खबरों के लिए मर्चुरी जाना भी धीरे-धीरे नियम बनता गया. केजीएमयू में तब अन्दर मर्चुरी हुआ करती थी, पोस्ट ऑफिस के पास. कई बार अंदर से भी देखने को मिला. लाशों के बीच लोगों को चाय पीते देखा. मर्चुरी के बाहर रोते-पीटते घर वालों को देखा. वही घर वाले तमाम खबरें बताते थे.

हमारे साथ ही पत्रकारिता शुरू करने वाले मेडिकल रिपोर्टर जो अब एक बड़ी न्यूज़ एजेंसी में ब्यूरो चीफ हैं उनके भाई की बस एक्सीडेंट में मौत हो गई. उनकी लाश मर्चुरी में लाई गई थी. सुबह पोस्टमार्टम होना था. घर वाले नहीं चाहते थे कि पोस्टमार्टम हो. बगैर पोस्टमार्टम के लाश बगैर डीएम की इजाजत नहीं मिल सकती थी. आधी रात को डीएम को जगाया गया. डीएम ने कहा कि सरकारी बस का एक्सीडेंट हुआ है. पोस्टमार्टम हो जायेगा तो मुआवजा मिल जायेगा मगर घर वाले बगैर मुआवजा भी समझौता करने को तैयार थे. डीएम ने साइन कर दिया.

डीएम के आर्डर लेकर मर्चुरी के दरवाज़े पर पहुंचे तो चपरासी ने दरवाज़ा खोल दिया. कहा कि अन्दर जाकर लाश पहचान लो. अन्दर लाईट नहीं आ रही थी. मोबाइल का ज़माना नहीं था. टार्च का इंतजाम किया गया. अन्दर लाइन से लाशें रखी थीं. बस का एक्सीडेंट हुआ था. बड़ी तादाद में लोग मरे थे. अन्दर अजीब किस्म की बदबू फैली हुई थी. लाशों के मुंह खोल-खोल कर वह लाश पहचानी गई जो बाहर लानी थी. लाश के पैर का अंगूठा चूहे ने कुतर लिया था.

बड़ा ही भयावाह दृश्य था. एक लाइन से दूर तक लाशें देखने का वह पहला अनुभव था. जिस तरह से शहीदों के ताबूत लाइन में रखे जाते हैं, कुछ उसी तरह. बाद में बर्फ पर रखी लाशें. सुसाइड करने वालों की लाशें, फांसी के फंदे से उतारी गई लाशें, पुलिस इनकाउंटर में मरने वालों की लाशें देखने को मिलती रहीं.

मर्चुरी के भीतर का दृश्य सामान्य तो कभी भी नहीं होता. पोस्टमार्टम के वक्त जो रिश्तेदार बाहर खड़े रहते हैं उन्हें भी यह जानकर झुरझुरी दौड़ जाती है कि अन्दर से आ रही खट-खट की आवाज़ लाशों के कुछ हिस्सों को छेनी हथौड़ी के ज़रिये काटे जाने की आवाजें हैं. इन लाशों के बीच डॉक्टर के अलावा प्रयोगशाला सहायक की मौजूदगी रहती है. इस प्रयोगशाला सहायक को डोम भी कहा जाता है. डॉक्टर तो सिर्फ बताते जाते हैं, असल काम यही लोग करते हैं.

डोम कम पढ़े-लिखे होते हैं और इस पेशे में इसलिए आ जाते हैं क्योंकि ज्यादातार डोम की नौकरी पाने वाले वह लोग होते हैं जिनके पिता ने भी यही नौकरी की हुई होती है. लाशों के बीच पूरा दिन बिताना, कभी-कभी चौबीसों घंटे लाशों के बीच काम वह इसी वजह से कर पाते हैं क्योंकि उन्होंने अपनी आँख खोलने से बड़े होने तक अपने पिता से यहाँ का हाल सुन रखा होता है.

मर्चुरी के सामने से अब भी रोजाना गुज़रना होता है क्योंकि केजीएमयू की मर्चुरी अब हुसैनाबाद इंटर कालेज के पास आ गई है. साथी पत्रकार परितोष पाण्डेय के मर्डर के बाद, साथी पत्रकार अरुण सक्सेना की बहन की संदिग्ध मौत के बाद और एक दो दूसरे मौकों पर वहां जाना हुआ. मर्चुरी को लम्बे समय तक समझने के बाद यह बात पूरे यकीन के साथ कह सकता हूँ कि कमज़ोर दिल वालों के लिए मर्चुरी जैसी जगह नहीं बनी है. मर्चुरी से लगा हुआ रास्ता चौक की तरफ जाता है लेकिन रात के वक्त कोई भी इस रास्ते का इस्तेमाल नहीं करता है क्योंकि रास्ते में मर्चुरी पड़ती है.

मर्चुरी के बारे में ज़ेहन में जो फिल्म पिछले पच्चीस-छब्बीस साल में तैयार हुई होगी वह अचानक से दिल और दिमाग दोनों में एक साथ रिलीज़ हो गई. मर्चुरी के भीतर और बाहर की बहुत सी घटनाएं ज़ेहन में ताज़ा हो गईं. मर्चुरी में काम करने वाला किस तरह से मरने वालों से हासिल किये हुए मुड़े हुए नोट अपनी जेब के हवाले किये जाता है और किस तरह से चाय की चुस्कियां लेता हुआ लाशों के बीच जाकर खड़ा हो जाता है. ठीक वैसे ही जैसे आम आदमी कटे हुए बकरों और मुर्गों के बीच से गुज़र जाता है.

अचानक से मर्चुरी के बारे में इतनी शिद्दत से सोचने की ज़रूरत इसलिए पड़ गई क्योंकि कोलकाता के नील रत्न सरकार अस्पताल की मर्चुरी के लिए डोम के छह खाली जगहों के लिए आवेदन मांगे गए तो आठ हज़ार लोगों ने इस पोस्ट के लिए अपनी दिलचस्पी दिखाई. इनमें भी 100 इंजीनियर, 500 पोस्टग्रेजुएट और 2200 ग्रेजुएट शामिल थे. आवेदकों में 84 महिलाएं भी हैं.

आवेदन करने वाले क्योंकि बेरोजगार हैं. उन्हें घर चलाने के लिए पैसों की ज़रूरत है. सामने नौकरी दिखी तो अप्लाई कर दिया. बगैर यह समझे हुए कि काम क्या करना है. लाशों को काट-काटकर मौत की तलाशी जाती वजहों के बीच महिलायें कितनी देर खड़ी रह पाएंगी. डॉक्टर ने अगर उन्हीं से कह दिया कि जिस्म का यह हिस्सा खोलो तो फिर वह क्या करेंगी. 15 हज़ार रुपये महीना हासिल करने के लिए क्या वह अपनी संवेदनाएं अपने घर छोड़कर वहां जायेंगी.

यह मंथन नौकरी के पीछे दौड़ने वालों के लिए भी ज़रूरी है कि दो वक्त की रोटी क्या सिर्फ सरकारी नौकरी ही दे सकती है. यह मंथन सरकार के लिए भी ज़रूरी है कि रात-दिन की मेहनत के बाद बड़ी डिग्रियां हासिल करने वालों के लिए नौकरियां क्यों नहीं हैं. अगर नौकरी नहीं है तो फिर लगातार खुलते बड़े कालेज, कालेजों में ली जाने वाली कैपिटेशन फीस और लाखों रुपये की फीस पर अंकुश क्यों नहीं है. सरकार ऐसा विभाग क्यों नहीं बनाती जो युवाओं को यह बताये कि वह कौन सा रोज़गार अपनाएं जिससे अपने परिवार को इज्जत के साथ दो वक्त की रोटी मुहैया करा सकें.

सोचिये सरकार सोचिये जो लड़की माँ बनकर अपने बच्चो में संस्कार भरती है. जिसकी संवेदनाओं से परिवार चलता है. जो ज़रा सा खून देखकर परेशान हो जाती है वह कुछ हज़ार रुपयों के लिए अपनी संवेदनाएं गिरवी रखने को खड़ी हो गई है. सोचिये सरकार अगर इन लड़कियों को नौकरी मिल गई और कटती और सिलती हुई लाशों के बीच उन्होंने सामंजस्य बिठाना सीख लिया तो अपने आँगन की किलकारियों को कौन से नजरिये से देखेगी और उसके घरों में पलने वाली पीढ़ी किन दरवाज़ों को अपनी नौकरी के लिए खटखटाएगी.

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