राजेंद्र कुमार
कहते हैं कि तथ्य बड़े निर्मम होते हैं। वे भावनाओं से संचालित नहीं होते। कुछ ऐसे ही तथ्यों के आधार पर सुप्रीमकोर्ट ने अयोध्या विवाद पर अपना ऐतिहासिक फैसला सुना दिया है। जिसके तहत सुप्रीम कोर्ट ने अपने फ़ैसले में विवादित ढांचे की जमीन हिंदुओं को देने और राम मंदिर निर्माण के लिए केंद्र सरकार तीन महीने के अंदर ट्रस्ट बनाने तथा अयोध्या में ही मुस्लिम पक्ष को कहीं और पांच एकड़ ज़मीन दिए जाने का फैसला सुनाया है।
हम कह सकते हैं कि तथ्यों की रोशनी में आया सुप्रीम कोर्ट की पीठ का सर्वसम्मति से आया यह फैसला गंगा जमुनी सामाजिक ढांचे को मजबूत करता नजर आने वाला दिखता है। यही नहीं यह फैसला उस सियासत के पर कतरने वाला भी है जो अयोध्या में विवादित स्थान के तथ्यों का सामना करने से डरता-डराता रहा। और अपने सियासी लाभ के लिए अयोध्या के मसले का हल खोजने के बजाए उसे सियासी बहस-मुबाहिस ने ज्यादा बांटा रहा।
इन सारे तत्थों को ध्यान में रखते हुए ही सप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ जिसमें न्यायमूर्ति एसए बोबडे, न्यायमूर्ति धनन्जय वाई चन्द्रचूड, न्यायमूर्ति अशोक भूषण और न्यायमूर्ति एस अब्दुल नजीर भी शामिल थे, ने अपने फैसले में साफ तौर पर कहा कि अयोध्या में जहां पर बाबरी मस्जिद के गुंबद थे वो जगह हिन्दू पक्ष को मिलेगी और सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड को अयोध्या में मस्जिद बनाने के लिए पाँच एकड़ अलग उपयुक्त ज़मीन दी जायगी।
अयोध्या में विवादित ढांचे की जमीन हिंदुओं देने के संबंध में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि मंदिर निर्माण के लिए 2.77 एकड़ ज़मीन हिन्दुओं के पक्ष में रहेगी। राम मंदिर के लिए केंद्र सरकार तीन महीने के अंदर ट्रस्ट बनाएगी। ट्रस्ट में निर्मोही अखाड़ा का प्रतिनिधि भी रहेगा। और अधिग्रहीत जमीन फिलहाल रिसीवर के पास रहेगी। सुप्रीम कोर्ट ने रामलला विराजमान को मालिकाना हक दिया है। कुल मिलाकर यदि कहा जाये कि 30 सितंबर 2010 को हाईकोर्ट ने अयोध्या विवाद पर जो फैसला किया था, उसके ही आगे बढ़े हुए सुप्रीम कोर्ट ने इस मसले की सभी अडचनों और विवादों को खत्म करने वाला फैसला सुनाया है।
यही नहीं 135 साल से चलते रहे इस विवाद पर पहली बार सुप्रीम कोर्ट ने ही यह कठोर टिप्पणी की है कि 1992 में बाबरी मस्जिद को ढहाना और 1949 में मूर्तियां रखना गैरकानूनी था। इस तरह की सख्त टिप्पणी हाईकोर्ट की उस पीठ ने भी नहीं की थी, जिसने अयोध्या में 2.77 एकड़ विवादित भूमि तीन पक्षकारों-सुन्नी वक्फ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा और राम लला विराजमान- के बीच बराबर-बराबर बांटने का आदेश 30 सितंबर 2010 को दिया था। इस फैसले के खिलाफ ही सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय खंडपीठ ने 6 अगस्त से सुनवाई शुरू की थी। और आज सुनाये गए फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट तौर पर यह कहा कि मुस्लिम पक्ष सुनवाई के दौरान यह साबित नहीं कर पाया कि उनके पास ज़मीन का मालिकाना हक था। चीफ जस्टिस के अनुसार मुस्लिमों का बाहरी अहाते पर अधिकार नहीं रहा। सुन्नी वक्फ बोर्ड यह सबूत नहीं दे पाया कि यहां उसका एक्सक्लूसिव अधिकार था।
चीफ जस्टिस ने यह भी कहा कि हम सबूतों के आधार पर फैसला करते हैं। और अदालत में इस बात के सबूत पेश किए गए कि हिन्दू बाहरी अहाते में पूजा किया करते थे। वर्ष 1856-57 से पहले आंतरिक अहाते में हिन्दुओं पर कोई रोक नहीं थी। और वर्ष 1856-57 के संघर्ष ने शांतिपूर्ण पूजा की अनुमति देने के लिए एक रेलिंग की स्थापना की। सुन्नी बोर्ड का यह कहना है कि बाबरी मस्जिद के निर्माण से ढहाए जाने तक नमाज पढ़ी जाती थी। बाहरी प्रांगण में हिंदुओं द्वारा पूजा का एक सुसंगत पैटर्न था। दोनों धर्मों द्वारा शांतिपूर्ण पूजा सुनिश्चित करने के लिए एक रेलिंग की स्थापना की गई। एएसआई रिपोर्ट में बताया गया कि विवादित स्थल के नीचे मंदिर था। ऐसे तमाम तत्थों के आधार पर सर्वसम्मति से फैसला लिया गया।
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से पिछले कुछ दिनों से अयोध्या के हौव्वे से परेशान आम आदमी को खासा सुकून मयस्सर हुआ। यद्यपि, फैसले के बाद एक पक्ष के चंद लोगों ने फैसले पर सवाल उठायें है। जिनमे जफरयाब जिलानी से लेकर ओवैसी जैसे तेजतर्रार नेता भी हैं। लेकिन देश और प्रदेश के आम लोग सुप्रीम कोर्ट के फैसले को सही मान रहे हैं। कांग्रेस ने भी इस फैसले का स्वागत किया है। प्रधान मंत्री ने भी फैसले को सराहा है।
वास्तव में देखा जाये तो सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से कांग्रेस और बीजेपी दोनों की मुश्किलें कुछ कम हो गई हैं। सुप्रीम कोर्ट ने विवादित परिसर में जहां बाबरी मस्जिद के गुंबद थे वो जगह हिंदू पक्ष को देने का फैसला सुनाकर संघ परिवार के दावे पर अपनी मुहर लगा दी है। और सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड को मस्जिद बनाने के लिए पाँच एकड़ अलग उपयुक्त ज़मीन देने का ऐलान कर माननीय कोर्ट ने मुस्लिम समुदाय को भी निराश नहीं किया है। इससे कांग्रेस एक बड़े संकट से बच भी गई है।
लंबे समय से विवादित इस मसले पर आए फैसले में हर पक्ष के लिए कुछ न कुछ है। शायद यही वजह है कि संघ प्रमुख मोहन भागवत ने बड़े सधे शब्दों में कहा, फैसले को किसी पक्ष की हार या जीत के रूप में नहीं लेना चाहिए।
कुल मिलाकर लंबे समय से चल रहा यह धार्मिक विवाद अब खत्म होने की दिशा में बढ़ेगा। अगले तीन महीनों में सरकार मंदिर निर्माण से संबंधित योजना तैयार कर सुप्रीम कोर्ट में सौपेगी। तो मुस्लिम धर्म गुरु और नेता यह तय करेंगे कि उन्हें पांच एकड़ भूमि पर मस्जिद का निर्माण कैसे करना है। यही वजह है कि राजनीति से जुड़े लोग अब यह कह रहे हैं कि इस मसले को लेकर राजनीति करने वालों को जल्द ही कोई नया मुददा राजनीति करने के लिए तलाशना होगा।
मंदिर का यह मसला जिस राजनीतिक दल को जो लाभ और नुकसान पहुंचा सकता था, वह पहुंचा चुका है। अब सुप्रीम कोर्ट के फैसले का बाद जनता इस मसले पर विवाद नही चाहती है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद फैजाबाद से लखनऊ आते हुए रास्ते में कई जगह पर लोगों से हुई बातचीत से यही अहसास हुआ। ऐसे में अब यह स्पष्ट है कि मंदिर के इस मसले पर राजनीति करके जनता को नाराज करने की हिम्मत कोई राजनीतिक दल नही करेगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेख में उनके निजी विचार हैं)