के पी सिंह
करने वाला तो ईश्वर है, जो वह करेगा वही होगा। रोजमर्रा में इस सूक्ति वाक्य को दोहराने वाली सरकार अब खुद कुछ करने की सोच रही है तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए। लखनऊ के भारतीय प्रबंधन संस्थान में रविवार और सोमवार को मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपने मंत्रियों की पाठशाला दो दिन आयोजित कराई। इसमें उन्हें सुशासन के गुर सिखाने की कोशिश की गई।
पार्टी और सरकार को कारपोरेट स्टाइल में चलाने की शुरूआत राजीव गांधी ने की थी। अमेरिका के चुनाव की तर्ज पर महंगे विज्ञापनों से मतदाताओं को सम्मोहन पाश में बांधने वाले वितंडावाद की नीव भी उन्होंने की रखी थी। लेकिन यह अपने वक्त के पहले के परिवर्तन थे जिसकी वजह से उन्हें समाजवादी दौर होने के कारण पूंजीवादी लोकतंत्र को बढ़ावा देने के लिए तमाम लानतें भेजी गई।
पर अब दुनिया भर में बुर्जुआ लोकतंत्र के एक ही माडल का सिक्का उत्तर आधुनिकतावाद की परिणति के तौर पर चल पड़ा है तो इसी खेल के नियमों के मुताबिक हमारे यहां भी राजनीतिक संस्थानो को चलना पड़ेगा।
वैसे भी कोई सिस्टम ऐसा नहीं है जिसमें कुछ न कुछ अच्छाइयां न हो। कारपोरेट सिस्टम भी परिणाम परक होने से निश्चित तौर पर बेहद उपादेय है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का जोर मुख्य रूप से सांस्कृतिक एजेंडे पर रहा है जिसके चलते एक सिरे से देखें तो वे एक कट्टर रूढ़िवादी शासक की तरह नजर आते हैं लेकिन दूसरी ओर आधुनिक दृष्टिकोण और प्रक्रियाओं के महत्व का भी उन्हें भान है।
जिसकी झलक सरकार बनने के बाद उनके द्वारा विभिन्न विभागों से आगामी कार्ययोजना को लेकर प्रजेन्टेशन लेने की चली लंबी कवायद से मिली थी। यह दूसरी बात है कि इस कवायद के कोई बहुत ठोस जमीनी परिणाम सामने नहीं आ सके जिस पर मुख्यमंत्री को मनन करना चाहिए। मुख्यमंत्री की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि वे लांग टर्म के लिए तो बेहद कारगर नीतियां बना रहे हैं पर तात्कालिक तौर पर सिस्टम को बदलने की उनकी रफ्तार सुस्त है।
अगर मोदी-शाह की जोड़ी ने राष्ट्रवाद के मोर्चे पर लोगों की भावनायें उभारने के लिए तूफानी काम न किया होता तो योगी सरकार के प्रति लोगों में भीषण निराशा से गत लोकसभा चुनाव में भाजपा को प्रदेश में बड़ा नुकसान झेलना पड़ सकता था।
शुरू में योगी के लिए परिस्थितियां भी कई दृष्टि से प्रतिकूल थी। उन्हें संघ के दबाव में थोपा मुख्यमंत्री माना जा रहा था जिससे प्रदेश के तमाम क्षत्रपों को अपने ऊपर उनका नेतृत्व मंजूर नहीं था। केन्द्रीय नेतृत्व भी उन्मादी युवाओं के बड़े हलके में योगी की पकड़ से सशंकित थे लेकिन संयत, विनम्र और आज्ञाकारी मुद्रा बनाये रखकर योगी ने आखिर में केन्द्रीय नेतृत्व का भरोसा जीतने में कामयाबी हासिल कर ली।
उदार लोकतंत्र के मानको से इतर शासन व्यवस्था लागू करने की उनकी कोशिश से उनकी छवि हठवादी दिखाई दे रही थी। पर अंततोगत्वा वे अपनी प्रतिबद्धता पर डटे रहे और उनके निश्चय ने सामाजिक स्तर पर बड़े ब्रेनवाश का काम किया। नतीजतन उन्होंने लोगों को अपने सांचे में ढ़ाल लिया है तो अब स्थिति यह है कि उनका एकतरफा एजेंडा व्यापक जनसमर्थन को आकर्षित करने में सक्षम सिद्ध हो रहा है।
इसी के साथ उनकी लाइन जनमानस के बीच क्लियर हो चली है जिसमें हिन्दुओं की सर्वोच्चता को मनवाते हुए साथ में काम के मामले में स्मार्ट सरकार का प्रस्तुतीकरण शामिल है कई मंत्री काम के मामले में इतने फिसड्डी हैं कि योगी को लगता है कि वे उनके साथ चल नहीं पायेंगे। वे मंत्रियों की छुट्टी करना चाहते थे लेकिन समीकरण उनके आड़े आ गये इसलिए न वे सिद्धार्थनाथ सिंह का इस्तीफा ले सके, न चेतन चैहान, नन्दगोपाल नंदी और स्वाति सिंह इत्यादि का।
मूल रूप से संत होने के कारण योगी के स्वभाव में स्थिरता है। इसलिए मंत्रिमंडल में जल्दी-जल्दी परिवर्तन की आशा उनसे नहीं की जानी चाहिए। लाजिमी है कि इस हालत में योगी ने सरकार को चुस्त बनाने की जरूरत के लिए उपलब्ध टीम को भी स्मार्ट बनाने की तैयारी की है और इसमें मैनेजमेंट गुरूओं की मदद ली जा रही है।
सीख की सार्थकता तब है जब सीखने वाले में अपनी हैसियत का गुरूर न रह जाये। मंत्रियों की पाठशाला का रूपक इस तरह से व्यवस्थित किया गया था कि वे क्लास के अच्छे बच्चे के रूप में अपने को पेश करने के लिए मानसिक रूप से तैयार हों। इसीलिए आईआईएम तक जाने के लिए मंत्रियों का सारा तामझाम हटा दिया गया था और बस की व्यवस्था की गई थी।
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पहले दिन मुख्यमंत्री ने ही ट्रेनिंग प्रोग्राम का आगाज किया जिसमें उन्होंने सगर्व कहा कि यह पहला मौका है जब राजनीतिक नेतृत्व की दक्षता के लिए श्रेष्ठ प्रबंधन संस्थान से टिप्स जाने गये।
सार्वजनिक जीवन में वे लोग ही आने चाहिए जिनमें सिस्टम को नई दिशा देने और ऊर्जा भरने के लिए कल्पनायें हों, कमजोरों के लिए ऐसा कुछ करने का जज्बा हो जो उन्हें आम लोगों का हीरों सके और अमरता की लोलुपता हो जो उन्हें कुछ यादगार करने के लिए प्रेरित करती हो। दुर्भाग्य यह है कि स्वार्थपरता की परत मौजूदा दौर में नेताओं पर इतनी चढ़ जाती है कि उनमें इन मौलिक प्रवृत्तियों का संज्ञान समाप्त हो जाता है।
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अगर नेताओं को इस बेखुदी से उबारकर अपने आपे में वापस लाया जा सके तो विकास और लोगों की भलाई के मामले में समकालीन राजनीति अपनी वह सार्थकता सिद्ध कर पायेगी जिसकी अपेक्षा की जाती है।