Tuesday - 29 October 2024 - 9:01 PM

चुनौतीपूर्ण है कोरोना काल में अध्ययन-अध्यापन

डॉ. मनीष कुमार जैसल

देश में लगभग ढाई महीने के लॉकडाउन के बाद अब स्थिति थोड़ी बहुत सामान्य हुई है। लेकिन इस आपदा के स्वरूप का स्तर लगातार बढ़ता जा रहा है । उद्योग धंधों से लेकर शिक्षा व्यवस्था पर इसके असर देखने को लगातार मिल रहे हैं, लेकिन देश की पस्त हो रही अर्थव्यवस्था को फिर से पटरी पर लाने के प्रयास अब अनलॉक 1.0 के साथ शुरू हो चुके हैं।

कोविड 19 के संक्रमण ने दुनियाँ भर को अपनी चपेट में लिया और उन देशों की आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक स्थिति की भी पोल खोलकर दुनियाँ के सामने रख दी। तमाम विकसित देशों में इस कोविड 19 का भयानक असर देख भारत जैसे विकास शील देश अभी से भविष्य के लिए चिंता और चिंतन करने लगें तो यह हमारे लिए ही फ़ायदेमंद होगा। अमेरिका, चीन, इटली जैसे देशों ने दुनियाँ भर में अपनी ताक़त का दंभ भरा लेकिन आपदा ने उन्हें भी वही सिखाया जो हम भारतीय आज भुगत रहे हैं।

भिन्न प्रभागों के साथ भारत की शिक्षा व्यवस्था पर कोविड 19 का व्यापक असर देखने को मिल रहा है। यूनिवर्सिटी, कॉलेज, इंस्टीट्यूट, स्कूल आदि सभी शैक्षणिक संस्थानों ने वर्क फ़्राम होम कल्चर को अपनाया। लेकिन यहाँ भारतीय चिंतन परम्परा के अनुसार शिक्षा के तीन प्रमुख उद्देश्यों पर बात करते हुए पूरे कोरोला काल का आंकलन करने पर पता चलता हैं कि व्यक्ति एवं चरित्र निर्माण, समाज कल्याण और ज्ञान का उत्तरोत्तर विकास ही जहाँ मुख्य उद्देश्य हुआ करते थे क्या इस ऑनलाइन शिक्षा के दौर में क्या इन्हें पूर्ण करने के प्रयास किए जा रहे हैं ?

चुनौतियों से भरे इस कोरोना काल में शिक्षा व्यवस्था में व्यापक असर और बदलाव देखने को मिले हैं। इनमें वर्क फ़्राम होम से लेकर असाइनमेंट बेस्ड एजुकेशन और ओपेंन बुक एक्जाम जैसे विकल्प उभरे हैं । लेकिन क्या ये सभी विकल्प भारतीय चिंतन परम्परा के अनुरूप दिखाई देते हैं ?

भारत की भाषाई विविधता आधुनिक शिक्षा पद्धति में पहले से ही रोड़ा रही है, ऊपर से इस कोरोना काल ने सूचना प्रौद्योगिकी ने समाज के मध्य और निचले वर्ग के बीच एक और रेखा खींचने का कार्य किया है।

मोबाइल, कम्प्यूटर और इंटरनेट की आवश्यकता ने दोनों वर्गों के बीच एक ऐसी लकीर खींच दी है जिससे वर्तमान में एक अलग तरह का स्टेटस सिम्बल लोग प्रयोग में ला रहे हैं। देश के समाजिक ढाँचे में अभी भी ग़ैरबराबरी देखी जा रही है।

ऐसे में कोरोला काल में शिक्षा के क्षेत्र में सुधार और इस पर किए जा रहे कार्यों में इस ग़ैर बराबरी को कैसे ख़त्म किया जाएगा यह प्रश्न भी उठ खड़ा होता है। देश के कोने कोने से ख़बरें मिल रही हैं कि सभी छात्रों की ऑनलाइन कक्षाएँ चल रही हैं । उनकी प्रगति रिपोर्ट से अभिवावक तथा संस्थान के प्रबंध तंत्र को भी लगातार यह इस कोरोना काल में शिक्षा की गुणवत्ता के बेहतर होने का प्रमाण पेश किया जा रहा हैं। लेकिन मूलभूत सवाल व उसके जवाब का ज़िक्र करना हम भूल चुके हैं ।

कक्षा के परिवेश में छात्र जिस सह अस्तित्व एवं सहयोग, व्यापक साझेदारी, सामूहिकता एवं वैचारिक सहिष्णुता के भाव के साथ अध्ययन करता था वह इस शिक्षा पद्धति से कोसो दूर है। ऐसे में वह खानापूर्ति के नाम पर कक्षाएँ तो ले रहा हैं लेकिन उसका मानसिक विकास कितना हो पा रहा है यह समझ पाना मुश्किल है।

शिक्षकों की सामाजिक पृष्ठभूमि की भी अगर बात की जाए तो पता चलता है कि सूचना प्रौद्योगिकी से परिचित शिक्षकों की अभी भी देश में बहुत कमी है । कम्यूटर शिक्षा के नाम पर सिर्फ़ काग़ज़ी काम भी देखे जाते रहे हैं।

हायर एजुकेशन के संदर्भ में बात की जाए तो यह कोरोना काल वेबिनार और ई कोन्फ़्रेस से लैस दिखता है।दिन भर में पचासो वेबिनार में इन दिनों ख़ाली बैठे वक़्ता ज़ूम, गूगल मीट, और वेबएक्स जैसे अन्य प्लेटफ़ोर्म पर अपने ज्ञान के भंडार को इंटरनेट की धीमी गति में बाँटते हुए दिख जाएँगे। कोरोला काल जैसे जैसे आगे बढ़ रहा है आपदा को अवसर में बदलने वाले विद्वान जन वेबिनार और ई कोनफ़्रेंस के नाम पर फ़ीस का वसूलना भी शुरू कर चुके हैं।

एपीआई और प्रमोशन के लिए ज़रूरी नियमों का हवाला देकर शिक्षा के बाज़ार में हज़ारों जर्नल पहले से ही लूटमारी की दुकाने खोले हुए थे।मौजूदा समय में भी उनके नए व्यवसाय को देखकर यही महसूस हो रहा कि इस समय का उपयोग उनसे बेहतर कोई नही कर सकता और यह सब नियम क़ायदों के साथ हो रहा है।

एक फ़ैकल्टी डेवलपमेंट प्रोग्राम के नाम पर 4000 से पाँच हज़ार की संख्या में आवेदन और फिर उनसे एक अच्छी ख़ासी रक़म शुल्क के नाम पर लेकर जिस तरह की स्थिति देखने को मिल रही है वह आगे आने उत्तर कोरोना काल में उच्च शिक्षा को गर्त में ले जाने में सहयोगी सिद्ध होंगे।

सीधे तौर पर कहा जा सकता है कि मौजूदा समय में देश में जिस तरह की शिक्षा पद्धति चल रही है उसे विकल्प के तौर पर अगर पेश किया भी जा रहा हैं तो इसमें ज़रूरी बदलाव होने ही चाहिए । खाना पूर्ति के तौर पर छात्र शिक्षक अगर समय व्यर्थ कर रहे हैं तो इसका असर देश की अर्थव्यवस्था पर भी पड़ेगा । ऐसे प्रोफ़ेशनल कोर्स जिनमें व्याहारिक ज्ञान के बिना कुछ भी सम्भव नही वहाँ के हालत अभी से छात्र शिक्षक महसूस करने लगे होंगें।

देश के सभी विश्वविद्यालयों के अंतिम वर्ष के छात्रों के लिए यह स्वर्णिम समय होता है। जब वह अपनी डिग्री के साथ बेहतर कैरियर की तलाश में होता है और इसमें उनका संस्थान उनकी पूरी मदद करते हैं । ऐसे में ढाई महीने की तालाबंदी के बाद अब स्थिति कब पूरी तरह सामान्य होगी यह कह पाना मुश्किल हैं।

समय रहते हमें शिक्षा के स्तर पर ज़रूरी बदलाव करते हुए छात्रों की ग़ैरबराबरी को भी ध्यान दिया जाना बेहद ज़रूरी हैं। नही तो हम एक और ऐसा समाज बना देंगे जहाँ ऑनलाइन ऑफलाइन एजुकेशन प्राप्त किए नए वर्गों का उदय होगा और उसे स्टेटस सिम्बल के तौर पर देखा जाने लगेगा।

एक शिक्षण संस्थान पूरी तरह सुविधाओं से लैस होता है लेकिन ऑनलाइन शिक्षा पद्धति में छात्र शिक्षक दोनों को बराबरी पर सुविधाएँ चाहिए, तभी उस शिक्षा के मायने हैं। नही तो यह सिर्फ़ एक खाना पूर्ति ही हैं और अदम गोंडवी की एक मशहूर कविता की ये पंक्तियाँ याहन बिलकुल सटीक बैठती नज़र आएँगी।

तुम्हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है
मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है

यह भी पढ़ें : न्यूजीलैंड में अब एक भी कोरोना का मरीज नहीं

यह भी पढ़ें : खुशखबरी : 15 जून से प्रवासी मजदूरों को मिलेगा रोजगार

Radio_Prabhat
English

Powered by themekiller.com anime4online.com animextoon.com apk4phone.com tengag.com moviekillers.com