अभिषेक श्रीवास्तव
बनारस से खड़े हुए और बैठा दिए गए तेज बहादुर यादव पूरे राष्ट्रीय मीडिया में भले चौबीस घंटे के भीतर छा गए और अगले चौबीस घंटे में बिला गए, लेकिन बनारस की पत्रकारिता ऐसे चक्करों में नहीं पड़ती। काशी की पत्रकारीय विरासत बहुत समृद्ध है। यहां के पत्रकार इस तरह किसी को बेमतलब उठाने-गिराने का काम नहीं करते। यहां समरसता है। सबको बराबर फुटेज मिलती है। यहां बुलानाला पर खड़े होकर दुनिया भर की खबर लिखी जाती है और किसी को अतिरिक्त फुटेज नहीं दी जाती।
जिस दिन तेज बहादुर के सपा से नामांकन की हवा उड़ी, बनारस के पत्रकार सपा नेता सुरेंद्र पटेल के बागी तेवर को पकड़े हुए पार्टी में बगावत की बात कर रहे थेा। ऐसा नहीं कि उनकी नज़र बाकी दुनिया पर उस वक्त नहीं थी। नेस वाडिया के 25 ग्राम की पुडि़या के साथ जापान में पकड़े जाने की खबर को भी उसी प्रमुखता के साथ स्थानीय अखबारों ने पहले पन्ने पर छापा।
बनारस में पिछले हफ्ते तेज बहादुर के अलावा भी बहुत कुछ घटा। उसे स्थानीय अखबारों ने पर्याप्त जगह दी लेकिन वे खबरें काशी की चौहद्दी नहीं लांघ पाईं। मसलन, भाजपा के एक नेता दुर्गाशंकर सिंह अपने सैकड़ों समर्थकों के साथ कांग्रेस में चले गए लेकिन कहीं चूं तक नहीं हुई।
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काशी की शान छन्नूलाल मिश्र, जो पिछले लोकसभा में नरेंद्र मोदी के प्रस्तावक थे, उन्होंने कांग्रेस प्रत्याशी अजय राय के सिर पर अपना हाथ रख दिया। अजय राय गढ़वा घाट की आरती में भी हो आए। उधर कुल 26 प्रत्याशियों में एक प्रत्याशी, जिनके नाम के आगे गांधी लगा है, उन्होंने पराड़कर भवन में प्रेस कॉफ्रेंस कर के ऐलान किया कि अगर वे सांसद बन गए तो पकौड़े की एक लाख दुकान नौजवानों को खुलवाएंगे।
एक और खबर थी कि मसूद अज़हर को ग्लोबल टेरररिस्ट का दरजा दिए जाने पर काशी के सर्राफा व्यापारियों ने बैठक रखकर जश्न मनाया। अकसर दस अच्छी खबरों में ऐसा एक विक्षिप्त टुकड़ा भी बनारस के अखबारों में आपको मिल सकता है, जिसका कोई ओर-छोर नहीं होता।
बहरहाल, इस बीच बनारस के साधु संतों ने एक अद्भुत काम किया। वे खुद अपने हाथ में फावड़ा लेकर असि नदी का कचरा साफ करने में जुट गए। कौन नहीं जानता कि वाराणसी में ‘असि’ दरअसल उसी नदी से आता है जो बरसों से नाला बनी हुई है। साधुओं ने इस बार नाले को वापस नदी बनाने की ठानी तो असि की आंख भर आई। असि ने बनारस के सांसद नरेंद्र मोदी को अपने एक दूत के माध्यम से एक खुला पत्र भेजा जिसे सांध्य दैनिक काशीवार्ता ने छापा।
पत्रकारिता में ऐसे नमूने आज की तारीख में दुर्लभ हैं। पत्र पढ़ा जाए:
स्थानीय अखबारों के पन्नों में बनारस के बदले हुए इस माहौल को देखकर कुछ पुराने संघियों ने नोटा दबाने का अभियान छेड़ दिया। शहर के एक कवि से संपर्क साधा गया कि समय रहते वे मोदी-विरोधी कुछ कविताई या नारेबाज़ी कर दें जो प्रचार आदि में काम आवे। तब जाकर एक बहुत बड़ा राज़ खुला।
पता चला कि बनारस में तेज बहादुर से उम्मीद लगाए बैठे लेखक-कवियों को सांप सूंघा हुआ था। दरअसल, जैसे ही तेज बहादुर का नाम सपा के प्रत्याशी के बतौर उछला, खुद को बुद्धिजीवी अैर संस्कृतिकर्मी कहलवाने में गर्व करने वाले एक तबके ने कबीर मठ में 2014 को रिपीट करने की योजना बना डाली।
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पिछली बार सांस्कृतिक प्रतिरोध का एक बहुत बड़ा आयोजन मठ में हुआ रहा केजरीवाल के नाम पर। इस बार लेखकों के भाग्य से शालिनी यादव का टिकट कट गया और 29 की सुबह तक अनाथ रहे तेज बहादुर को साइकिल मिल गई। मोदी विरोधी गैर-कांग्रेसी बुद्धिजीवियों को अपना केजरीवाल पार्ट टू मिल गया था। सब अचानक सक्रिय हो गए। एक निंदा बयान पिछली बार की तरह बनाया गया। उसमें कहा गया कि मोदी को हराइए। किसको वोट दीजिए, बुद्धिजीवी यह कभी नहीं बताता है।
टार्गेट था कि मोदी के समर्थन में पिछले दिनों आए कथित लेखकों की चार सौ की संख्या को पार करना है। जितनी लंबी हस्ताक्षरकर्ताओं की सूची उतना बड़ा पउवा।
इस बार का मजदूर दिवस इन बुद्धिजीवियों के लिए त्रासद साबित हुआ। सभाओं में सांप्रदायिकता विरोधी भाषणों की सारी तैयारी हो चुकी थीं कि बहादुर का परचवे खारिज हो गया। बनारस से सबेरे और दिल्ली से शाम को। अब किसके लिए निकालेंगे बारात? तो कबीर मठ का कार्यक्रम रद्द करना पड़ा। सिग्नेचर कैम्पेन मजबूरी का नाम महात्मा गांधी साबित हुआ। ऐसे में शहर से लेकर दिल्ली तक कोई भी भाजपा विरोधी लेखक-फेखक मोदी विरोधी रचना करने को तैयार नहीं हुआ।
तब जाकर एक वॉलन्टियर लेखक इस धरती पर पैदा हुआ। आज तक उस पर किसी की नज़र नहीं गई थी। वो घाटों पर, गलियों में, गांजा पीकर घूमता रहता था और हवाओं को शेरो शायरी सुनाता था। किसी ने उसे सुन रखा था। उसे खोजने के लिए पूरा तंत्र सक्रिय हो गया। आखिरकार वो मणिकर्णिका पर चाय पीता हुआ मिला। जरूरत बतायी गई। डिमांड आयी- ‘’डेली 100 ग्राम गांजा, चुनाव तक रोज दो टाइम भांग और खाना पीना अलग से’’। जनता सहमत हो गयी। उसने ट्रेलर देते हुए ‘हर-हर मोदी’ के घिस चुके नारे की तर्ज पर एक विशुद्ध बनारसी नारा दिया- ‘’देखो मत करना बकचोदी / आना नहीं चाहिए मोदी’’। नोटा वालों ने ट्रेलर देखते ही उसे हाथों हाथ उठा लिया और सेवापुरी ले आए।
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उसकी सेवाएं जारी हैं। उस गंजेड़ी लेखक ने अब तक दर्जन भर से ज्यादा नारे लिख मारे हैं। काशी की पत्रकारिता अभी तक इस घटना से बेखबर है, तो मैंने सोचा खबर दे दी जाए। शायद असि की व्यथा कथा की तरह कोई अखबार इन नारों को भी छाप दे और काशी की साहित्यिक-पत्रकारीय विरासत की लाज रख ले। गंजेड़ी कवि के नारे देखिए: ‘’बाहर से नेता आएगा / तो काशी को तोड़वाएगा’’; ‘’जीएसटी से धंधा चौपट / सीवर से चाय बनाये लम्पट’’; ‘’काशी है कबीर का / नहीं फर्जी फ़क़ीर का’’; ‘’सदियों का है ताना बाना / इसको साथी मत अझुराना’’; ‘’जोड़ने वाला आएगा / बांटने वाला जायेगा’’; ‘’गंगा जमुनी बोली बानी / रजा बनारस के ना जानी’’; ‘’गंगा लहरे लहरे नइया / अबकी आपन सांसद भइया’’।
और एक अंतिम नारा जो संघ, भाजपा व नरेंद्र मोदी के असली सामाजिक चरित्र को महज दो लाइन में समेटकर रख देता है: ‘’हिंदुत्व का असली चेहरा / कांख में पोथी हाथ बटखरा’’!
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं , इस लेख में बनारस की स्थानीय बोली का प्रयोग किया गया है )
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