Saturday - 2 November 2024 - 8:20 PM

ले चलो मुझे प्रिय जहां कभी मधुमास न हो…

ले चलो मुझे प्रिय जहां कभी मधुमास न हो,

कलियों का परिमल,भंवरों का उपहास न हो

मैने उदगारों से मांगी,

अधरों की पागल मुसकानें,

विस्मृत सा मै खडा हुआ था,

कोई मेरी पीड़ा जाने।

निराशा की नदिया मे बहकर

मुझको अपने साथ ले चल,

जहां कभी बरसात न हो।

आज छोड दो मुझे अकेला,

मै गा लूं अपना अंतिम गीत,

मिल जाये पतझर की बगिया,

तुम लुट जाने दो निश्छल प्रीत।

मन का कोई नही है संबल,

मन को छल से बहला ले चल,

जहां कभी दिन रात न हो ।

                                                                                                                   

अशोक श्रीवास्तव ( उपन्यास “सम्राट अशोक”)

मैं घर का बड़ा था, मुझ पर जिम्मेदारियां…

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