के.पी. सिंह
भीष्म पितामह महाभारत में कौरव पक्ष की ओर से लड़े थे लेकिन वे पांडवों और यहां तक कि भगवान श्रीकृष्ण के लिए भी अंत तक वंदनीय रहे। हस्तिनापुर साम्राज्य के वे सहज उत्तराधिकारी थे, लेकिन उन्होंने इस अधिकार का परित्याग कर दिया। उनके त्याग के कई उदाहरण हैं।
हस्तिनापुर साम्राज्य से बंधे होने के कारण उन्होंने कौरवों के पक्ष में युद्ध किया। इसे भी उनकी महानता और सिद्धांतवादिता के साथ जोड़ा जाता है।
भीष्म पितामह का संबोधन एक विशेषण के रूप में प्रचलित है। किसी व्यक्तिव के निर्विवाद गौरव के संदर्भ में उसे आदर से भीष्म पितामह कहने की परंपरा है। अटल जी को भाजपा का भीष्म पितामह कहा जाता था।
स्थितियां न बदल गई होतीं तो आज भाजपा में लालकृष्ण आडवाणी इस संबोधन के उत्तराधिकारी होते। कम से कम विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के लिए तो वे अटल जी के बाद भीष्म पितामह के रूप में ही स्वीकार्य होते।
सुषमा स्वराज ने भी आखिर में हालातों के सामने समर्पण कर दिया है। संसद में उनके भाषण पौराणिक रूपकों के साथ चर्चा करने की विशेषता की वजह से लोगों को बहुत आकर्षित और प्रभावित करने में कामयाब रहे हैं। इस आदत के कारण आज भी उनके जेहन में पौराणिक रूपक गूंजते रहते हैं।
आधुनिक द्रोपदी का जब रामपुर में अमर्यादित शब्दों से चीरहरण हुआ तो जो भाजपा के आलोचक भी हैं उनका भी जायका आजम खां के लिए बुरी तरह बिगड़ गया। सुषमा जी का तो इस पर अत्यंत मर्माहत और आक्रोशित होना अनिवार्य ही था।
उन्होंने अपने मुलायम भाई में भीष्म पितामह का प्रतिबिंब देखा और आजम खां के कुकृत्य के लिए उनसे गुहार करने बैठ गईं। विशेषणों और रूपकों के माध्यम से बात कहने वाले कुशल वक्ता कभी-कभी जब चूक जाते हैं तो अर्थ का कितना अनर्थ हो जाता है।
आजम खां का समाजवादी आंदोलन से कभी संबंध नहीं रहा। राम जन्मभूमि आंदोलन के समय वे भारतमाता को डायन कहने की वजह से सुर्खियों में आये और मुलायम सिंह की कद्रदान निगाहों में चढ़ गए। उनके बोल कब मर्यादा के दायरे में रहे हैं जो मुलायम सिंह को अब अजब लगेंगे। मुलायम सिंह के पास तो ऐसे ही नवरत्नों की टोली रही है।
स्त्रियों के बारे में रसीली बातें करने में मुझे बहुत मजा आता है, अपने टेलीफोन टेप कांड के बाद यह कहने वाले अमर सिंह कभी आजम खां के जोड़ीदार थे। आज भाजपा की धरोहर हैं।
कुछ ही समय पहले संसद के उच्च सदन में नरेश अग्रवाल ने व्हिस्की में विष्णु बसे, रम में श्रीराम, जिन में माता जानकी, ढर्रे में हनुमान का भाषण दिया था। जिस पर वित्त मंत्री अरुण जेटली बुरी तरह भड़के थे। क्या मुलायम सिंह को इस पर नाराजगी हुई थी। फिर नरेश अग्रवाल ने सपा छोड़ते समय जया बच्चन के लिए आजम खां छाप टिप्पणी कर दी थी।
जिस पर भाजपा की महिला नेताओं का भी पारा चढ़ गया था। समाजवादी सांस्कृतिक प्रसार के लिए भाजपा ने नरेश अग्रवाल को सपा से आयात करके लोकसभा चुनाव के स्टार प्रचारकों की सूची में शामिल किया है।
भाजपा के मान-सम्मान, निष्ठा सभी चीजों के पैमाने उलटवासी से कम नहीं हैं। वैसे तो भगवान राम पूरे देश के आराध्य हैं, लेकिन भाजपा का दावा है कि उनके प्रति आस्था को जरा भी चोट पहुंचाने वाला उनका ऐसा बैरी होगा जो कभी क्षम्य नहीं हो सकता।
मुलायम सिंह को कोई अफसोस नहीं है कि उन्होंने राम मंदिर के लिए अयोध्या में एकत्र कारसेवकों पर गोली चलवाई थी। वर्तमान विधानसभा चुनाव के पहले उन्होंने फिर दोहरा दिया था कि अगर 30 नवंबर 1990 को अयोध्या में पुलिस की गोली से जितने कारसेवक मारे गए थे उससे दोगुने भी मारे जाते तो वे पीछे नहीं हटते।
उनके इस बयान से भाजपा के आम कार्यकर्ताओं को गुस्सा आया होगा लेकिन शीर्ष नेतृत्व की आस्था के राडार से यह परे रहा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को समकालीन नेताओं में अगर किसी के प्रति सबसे ज्यादा श्रद्धा है तो वे नेताजी यानी आदरणीय मुलायम सिंह हैं। उनकी देखादेखी करने वाले मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का भी यही हाल है।
मुलायम सिंह का उतना महिमामंडन तो समाजवादी पार्टी नहीं करती जितना मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद भाजपा कर रही है, जो उनके सांकेतिक उपक्रमों की इबारत पढ़कर स्पष्ट हो जाता है। मुलायम सिंह शुभेच्छा है कि नरेंद्र मोदी पुनः प्रधानमंत्री बनें। अगर यह होता है तो अगली बार भारतरत्न से अलंकृत करने के लिए मुलायम सिंह का नाम सबसे ऊपर होगा।
भाजपा भक्त मासूम हैं। उत्तर प्रदेश में सदन के अंदर केशरीनाथ त्रिपाठी का चश्मा टूटा और वे लहूलुहान हो गए। कई और वरिष्ठ भाजपा नेताओं को बर्बर पिटाई झेलनी पड़ी। सांप्रदायिकता के खिलाफ लड़ाई के नाम पर जिलों-जिलों में भाजपा के कार्यकर्ताओं ने क्रूर दमन का सामना किया।
उनकी मुट्ठी भिंची रहती थी कि जब केंद्र और प्रदेश में हमारी सरकार आएगी तो गिन-गिनकर बदला लेंगे और आज इसके लिए जिम्मेदार सपा के संस्थापक मुलायम सिंह सुषमा स्वराज के सबसे सम्माननीय अभिभावक बन गए हैं। जब भक्तों की तंद्रा टूटेगी तो शायद अपने साथ हुए छलावे का भीषण अहसास उनको होगा।
बहरहाल धर्म निरपेक्षता और धार्मिक राष्ट्रवाद की लड़ाई भारतीय लोकतंत्र के वैचारिक संघर्ष का हिस्सा है। लेकिन इसमें हिंसा और किसी भी तरह की अभद्रता का कोई स्थान नहीं है। जब तक धर्म निरपेक्ष शिविर में राजनीतिक व्यक्तित्वों की अगुवाई थी तब तक दोनों पक्षों में शालीनता से शास्त्रार्थ चलता रहता था।
इसमें धर्म निरपेक्षता वादियों का पलड़ा भारी रहा। दूसरा पक्ष तब विजेता बना जब धर्म निरपेक्षता के नाम पर आजम खां, अतीक अहमद और शहाबुद्दीन जैसों को पालने और सिर पर चढ़ाने वाले लोग आ गए।
भारतीय राजनीति में बहुकोणीय द्वंद्वात्मकता है। उसका एक पहलू धर्म निरपेक्षता बनाम धार्मिक राष्ट्रवाद है दूसरा पहलू जाति व्यवस्था के पिरामिड की संरचना को बदलने से जुड़ता है।
धर्म निरपेक्ष होते हुए भी नेहरू की कांग्रेस पर ब्राह्मणों की सत्ता बढ़ाने का आरोप था और बीजेपी के होकर भी अटल जी के आदर्श नेहरु जी थे। पता नहीं क्या ऐसा अटल जी की वर्ग चेतना के चलते था।
जाति व्यवस्था के पिरामिड के शीर्ष पर पहुंचने को लेकर पिछड़ों ने तथाकथित ब्राह्मण सत्ता के खिलाफ आजादी के कुछ ही समय बाद से संघर्ष छेड़ दिया। ज्यादातर गैर कांग्रेसी सरकारें पिछड़ों द्वारा मोर्चा फतह करने की मिसाल कही जा सकती हैं।
इस किस्म की द्वंद्वात्मकता अभी किसी तार्किक परिणति पर नहीं पहुंची है। यानी युद्ध अभी जारी है। क्या नेहरू के मान-मर्दन और मुलायम सिंह के महिमामंडन की मोदी डॉक्ट्रिन के सूत्र इस द्वंद्वात्मकता में खोजे जाने चाहिए। क्या मोदी की रणनीति और कार्यनीति का आंकलन भी वर्ग चेतना के सूत्र के आधार पर किए जाने की जरूरत है।