सुरेंद्र दुबे
गत 23 मई को लोकसभा चुनाव के परिणाम आए थे, जिसमें कांग्रेस को मात्र 52 सीटे मिली। कहने को तो ये सीटे वर्ष 2014 के चुनाव से 44 से 8 ज्यादा थी, पर इस बार जितनी फजीहत कांग्रेस की हुई उतनी फजीहत 44 सीटें पाने पर नहीं हुई थी। कहा गया कि देश में परिवारवाद की राजनीति का खत्मा हो गया है और कांग्रेस पार्टी को गांधी परिवार के शिकंजे से मुक्त कर गैर गांधी कांग्रेस बना देना चाहिए।
जाहिर है जब मैं गांधी का बात कर रहा हूं तो महात्मा गांधी की बात नहीं कर रहा हूं। मेरा आशय नेहरू-गांधी परिवार से है, जिसकी छत्रछाया में कांग्रेस पार्टी पली-बढ़ी, इनके परिवार के तीन लोग प्रधानमंत्री हुए। पंडित जवाहर लाल नेहरू, श्रीमती इंदिरा गांधी और श्री राजीव गांधी।
श्री राजीव गांधी की हत्या के बाद उनके पत्नी श्रीमती सोनिया गांधी प्रधानमंत्री बनने से बचती रहीं वर्ना वो भी मनमोहन सिंह की जगह प्रधानमंत्री होती। लेकिन कांग्रेस अध्यक्ष बनने का सौभाग्य उन्हें भी प्राप्त हुआ। अब श्री राहुल गांधी कांग्रेस के अध्यक्ष हैं, जिन्होंने लोकसभा चुनाव में करारी हार के बाद इस्तीफा दे दिया।
लगभग सवा महीने हो गए हैं न तो राहुल गांधी अध्यक्ष पद पर बने रहने के लिए मानने को तैयार हैं और न ही कांग्रेस पार्टी उनकी जगह कोई और अध्यक्ष चुन पा रही है। बस इस स्थिति से ही मेरे दिमाग में एक सवाल लगातार कौंध रहा है कि क्या बगैर किसी गांधी के ये पार्टी नहीं चल पाएगी। क्या गांधी परिवार के अलावा इस पार्टी में कोई नेता बचा ही नहीं है जो पार्टी की कमान संभाल सके।
पिछले सवा महीने से चल रहे घटनाक्रमों पर नजर डाले तो पता चलेगा कि राहुल गांधी जब से रूठे हैं, मानने को तैयार नहीं हैं। सोनिया गांधी व प्रियंका गांधी समेत पार्टी के तमाम वरिष्ठ नेता पूरी कोशिश करके देख चुके हैं परंतु राहुल गांधी कोप भवन से निकलने को तैयार नहीं हैं।
हमारे देश में कोप भवन का सबसे चर्चित संदर्भ रामायण का है, जिसमें भगवान राम की माता कैकेयी राजा दशरत द्वारा दिए गए दो वरदानों को पूरा कराने के लिए कोप भवन में चली गई थीं और तब तक कोप भवन से बाहर नहीं निकली जब तक भगवान राम को 14 साल का वनवास और उनके पुत्र भरत को राजगद्दी देने का वादा नहीं कर दिया गया।
अब राहुल गांधी वाला प्रकरण तो कुछ विचित्र है, जिसमें वह स्वयं अपने लिए वनवास मांग रहे हैं और किसी दूसरे को राजगद्दी दिए जाने की मांग कर रहे हैं। रामायण काल में भरत ने स्वयं राजगद्दी नहीं संभाली थी और भगवान राम की खड़ाऊ रख कर चौदह साल तक अयोध्या पर राज किया था।
भगवान राम के वनवास से वापस आने पर भरत ने उन्हें गद्दी वापस सौंप दी थी। लगता है राहुल गांधी के मामले में भी कुछ ऐसा ही परिदृश्य उपस्थित हो सकता है, जिसमें कुछ समय के लिए राहुल गांधी वनवास पर चले जाएं और कोई ऐसा भरत गद्दी पर बैठ जाए, जो बाद में राहुल को सत्ता सौंप दे।
राहुल गांधी अपने पद पर बने रहें इसके लिए कांग्रेस पार्टी में इस्तीफों की बरसात हो रही है। तमाम नेता राहुल को मनाने में लगे हैं। परंतु राहुल टस से मस नहीं हो रहे हैं। अध्यक्ष पद नहीं संभालना चाहते परंतु पार्टी पर नियंत्रण बरकरार है नेताओं से मिल रहे हैं तमाम प्रदेशों में संगठन में परिवर्तन किया है।
राहुल गांधी ने उत्तर प्रदेश में पार्टी की सभी जिला इकाइयां भंग कर इन्हें नए सिरे से गठित करने की प्रक्रिया शुरू कर दी। प्रदेश में पार्टी विधायक दल के नेता अजय कुमार लल्लू को संगठनात्मक फेरबदल का प्रभारी नियुक्त किया गया है।
साथ ही अनुशासनहीनता की शिकायतों के निपटारे के लिए तीन सदस्यीय अनुशासन कमेटी गठित कर उपचुनाव वाली सीटों पर देखरेख के लिए दो सदस्य नियुक्त किए गए हैं। इसके अलावा मध्य प्रदेश, असम, गोवा, कर्नाटक और कई राज्यों में पार्टी पदाधिकारियों को बदला है।
ये जो स्थिति है वो इस बात को दर्शाती है कि राहुल गांधी अध्यक्ष भले नहीं रहना चाहते परंतु पार्टी पर अपनी पकड़ बनाए रखना चाहते हैं। इनकी माताश्री सोनिया गांधी का पार्टी पर एक छत्र राज्य कायम है।
मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ, राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह समेत ने कल ही भेंट कर राहुल गांधी से अध्यक्ष बने रहने की मनुहार की पर राहुल बाबा नहीं माने पर पार्टी का कामकाज जारी है।
ये स्थिति ही स्पष्ट करती है कि कांग्रेस को नया अध्यक्ष क्यों नहीं मिल पा रहा है। राहुल गांधी ने संन्यास तो ले नहीं लिया है और दूसरे किसी को अध्यक्ष पद पर नामित नहीं कर रहे हैं तो मुझे ऐसा लग रहा है कि शीघ्र ही होने वाली कांग्रेस कमेटी की मीटिंग में कोई धमाका हो सकता है।
इन दिनों कामराज प्लान कि भी चर्चा हो रही है परंतु उसके लिए जिस राजनैतिक चातुर्य का आज की कांग्रेस ने अभाव है इसलिए किसी अन्य प्लान पर काम हो सकता है।
लोगों की मन में ये सवाल भी उठ रहा होगा कि आखिर कांग्रेस अध्यक्ष बनने के लिए क्या काबिलियत होनी चाहिए। देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस में नेताओं की बहुत बड़ी भीड़ है।
इनमें कई पढ़े-लिखे और ईमानदार होने के साथ-साथ जनता के बीच गहरी पैठ रखने के वाले नेता शामिल हैं। लेकिन गांधी परिवार के करीब में कुछ खास नेताओं को ही देखा गया है।
अशोक गहलोत, कमलनाथ, पी चिदंबरम, सलमान खुर्शीद, कपिल सिब्बल, आनंद शर्मा जैसे नेता गांधी परिवार के करीबी रहें हैं और इन नेताओं की आस्था भी हमेशा गांधी परिवार के लिए ही रही है।
आपने एक कहावत जरूरी सुनी होगी ‘निंदक नियरे राखिए, ऑंगन कुटी छवाय, बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।‘ लेकिन अक्सर कांग्रेस परिवार के करीब वकील और व्यापारी वर्ग के लोग ज्यादा रहें जो अपना काम निकाले के लिए ज्यादा और राजनीति के लिए कम जाने जाते हैं।
ऐसे ही छत्रप देश के अलग-अलग राज्यों में कांग्रेस पार्टी के नेता के नाम अपना एकाधिकार बना रखें हैं। देश के बड़े उद्योगपति में शामिल कमलनाथ मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष भी हैं।
इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के बेहद करीबी रहे कमलनाथ के नेतृत्व में चुनाव लड़ रही कांग्रेस एमपी में केवल एक सीट जीत पाई और वो भी उनके बेटे नकुलनाथ की।
इसी तरह सोनिया गांधी और राहुल गांधी के करीबी अशोक गहलतो राजस्थान के सीएम हैं उनके नेतृत्व में मध्य प्रदेश में चुनाव लड़ रही कांग्रेस एक भी सीट नहीं जीत पाई। यहां तो गहलोत के बेटे भी हार गए।
ऐसा उत्तर प्रदेश में देखा गया, जहां के प्रदेश अध्यक्ष राज बब्बर तमाम नाकामियों के बाद भी पद पर बने हुए हैं। यूपी से ही आने वाले दिग्गज नेता प्रमोद तिवारी कभी चुनाव नहीं लड़े, लेकिन कई बार संसद और विधानसभा के सदस्य रहे।
पार्टी की दयनीय स्थिति के लिए वे नेता भी जिम्मेदार हैं जो पार्टी को बढ़ाने के बजाए अपना व्यापार और अपने परिवार को आगे करने के लिए हमेशा जोड़-तोड़ करते रहतें हैं न कि पार्टी को आगे बढ़ाने की सोचतें हैं।
हालांकि, इन सब बातों से अलग गांधी परिवार का इतिहास भी इस बात का जिम्मेदार है कि राहुल गांधी की खड़ाऊ लेकर पार्टी का अध्यक्ष बनने के लिए कोई नेता आगे नहीं आ रहा है।
दरअसल, 1996 में पिछड़ी जाति से आने वाले और कांग्रेस के लोकप्रिय नेता सीताराम केसरी को पार्टी का अध्यक्ष बनाया गया। उनका कार्यकाल मार्च 1998 तक रहा।
अंग्रेज़ी में बेहद कमजोर केसरी पिछड़ी जाति के थे। केसरी ज़्यादा पढ़े-लिखे नहीं थे और मामूली पृष्ठभूमि से आने वाले केसरी ने गर्व से कहना शुरू कर दिया वो पार्टी के सामान्य कार्यकर्ताओं ने उन्हें सर्वोच्च पद तक पहुंचाया है।
कांग्रेस में सोनिया के करीबी और कई वरिष्ठ नेता केसरी को कोई तवज्जो देते थे लेकिन केसरी को हमेशा ये ग़ुमान रहता था कि वो एक चुने हुए पार्टी अध्यक्ष है। इस कारण वो अपने अध्यक्ष पद को बहुत गंभीरता से लेते थे।
ऐसा लगता था वो अपने आप को एक सामान्य पृष्ठभूमि का नेता बताकर सोनिया और नेहरू-गांधी परिवार को चुनौती दे रहे हैं। इस बात उनको खामियाजा भी भुगतना पड़ा। बताया जाता है कि उनको सोनिया गांधी ने अध्यक्ष पद से बेहद बुरी तरह बेइज्जत करके हटा दिया था। आज भी नेताओं के मन में उस घटना की यादें ताजा हैं।
माना जा रहा है कि इसीलिए जिस पार्टी में मल्लिकार्जुन खड़गे, पी चिदंबरम, गुलाम नबी आजाद, आनंद शर्मा, शीला दीक्षित, अशोक चव्हाण, कपील सिब्बल, सलमान खुर्शीद, जयराम रमेश, नाना पटोल, प्रमोद तिवारी, राज बब्बर, सुशील कुमार शिंदे, सचिन पायलट, ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे दर्जनों दिग्गज पार्टी की कमान संभालने के लिए आगे नहीं आ रहा है।
वो नेता जो राहुल-सोनिया की आगे-पीछे रहते हैं वो भी पार्टी की जिम्मेदारी और राहुल की खड़ाऊं लेकर अध्यक्ष पद संभालने के लिए आगे नहीं आ रहे हैं। हाल फिलहाल की जो स्थिति बन रही है उससे देखकर मेरा मानना है कि कांग्रेस को भरत की तलाश करनी ही पड़ेगी और शायद उसी का प्रयास भी चल रहा है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेख उनके निजी विचार हैं)
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