उत्कर्ष सिन्हा
पिन्हां था दाम-ए-सख़्त क़रीब आशियान के
उड़ने न पाए थे कि गिरफ़्तार हम हुए
यानी “घर के पास ही जंजीरें छिपी हुई थीं, जिससे हम उड़ने से पहले ही उनमें फंसकर बंदी बन गए.’ मिर्ज़ा ग़ालिब का ये शेर उस फैसले की पहली लाइने हैं , जो कठुआ में हुए एक बच्ची के बलात्कार की सजा सुनते हुए जज ने लिखी है।
कोई ये कह सकता है कि जज महोदय शायद शायराना मिज़ाज के होंगे , सो उन्होंने ये शेर भी फैसले में शुमार कर डाला होगा। मगर संजीदगी से देखे तो ये शेर महज इस एक फैसले के लिए मौजूं नहीं है। कठुआ की गुड़िया से ले कर टप्पल की गुड़िया तक, हर काण्ड की वहज यही है।
कठुआ की गुड़िया को नशा दे दे के इस कदर रेप किया गया था कि उस मासूम की जान चली गई , मगर इस रेप की वजह जिस्मानी हवस कम और “बकरवालों” के समुदाय से नफ़रत ज्यादा थी।
अलीगढ़ के टप्पल की गुड़िया की मौत की वजह भी वो खुद नहीं थी बल्कि उसके बाप का उधार न चुकाना था। दोनों मामलों में अपराध जघन्य था , मगर एक बात जरूर थी – बदला किसी और से लेना था और शिकार कोई और हो गया।
अब फिर ग़ालिब के उसी शेर पर आते हैं .
करीब 7 साल पहले दलित अधिकारों पर काम करने वाले समूह ” डायनामिक एक्शन ग्रुप” ने दलितो पर होने वाले अत्याचार के कारणों की तलाश करने के लिए एक स्टडी की थी। इस स्टडी में कई केस रेप के भी थे। मगर हैरान करने वाले बात ये थी कि शिकार होने वाली अधिसंख्य महिलाओं की उम्र 50 से 70 तक की थी।
महज यौन सुख की तलाश में बलात्कार को अंजाम देने का तर्क यहाँ कमजोर पड़ता है। यानी असल वजह कुछ और ही रही होगी। ऐसी करीब सभी घटनाओं में वजह या तो जमीन के टुकड़े की लड़ाई थी या फिर अपमानित करने का मकसद।
यही कठुआ में भी हुआ। घुमन्तु जाति कहे जाने वाले बकरवाल समुदाय को ले कर सांझीराम को चिंता थी। यही सांझी राम इस मामले का मुख्य साजिशकर्ता था। सांझीराम मानता था की बकरवाल मुसलमान हैं इसलिए वो जरूर गो-हत्या करते होंगे, चूँकि वे घूमते फिरते रहते हैं तो ड्रग्स की तस्करी भी जरूर करते होंगे और अगर ऐसे लोग इस इलाके में बस गए तो नयी पीढ़ी का भविष्य ख़राब हो जाएगा।
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मगर ये सब सोचते हुए सांझीराम ये भूल गया की करगिल में पाकिस्तान के घुसपैठ की खबर भी इन्ही बकरवालों ने दी थी और देश के प्रति अपना फ़र्ज़ निभाया था।
अब टप्पल की मासूम गुड़िया की जघन्य हत्या को देखिये। शायद ही कोई संवेदनशील शख्स ने इस घटना के बाद बेचैनी नहीं महसूस की। हत्यारो को फांसी की मांग करने वालों में हर जाति और धर्म के लोग शामिल थे, मगर घटना के तीन दिन बाद से इसे नया रूप दे दिया गया।
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टप्पल और कठुआ आपस में जोड़े गए, मगर मकसद दूसरा था। कहा गया कि कठुआ में मुल्जिम हिन्दू थे इसलिए सेक्युलर लोगो ने ज्यादा शोर मचाया और टप्पल में मुल्जिम मुसलमान है इसलिए वे खामोश हैं।
ये सवाल लगातार सोशल मीडिया में फैलाये जाने लगे , बिना ये जाने कि किसने क्या कदम उठाया और क्या मांग की। टप्पल के मामले में पुलिस कहती रही की रेप नहीं हुआ , मगर सोशल मीडिया को प्रभावित करने वाले लगातार रेप को इसमें जोड़ते रहे। मामला कानून हट कर सांप्रदायिक विभाजन तक पहुँच गया।
तो बात फिर वही है। रेप महज यौन सुख का मामला नहीं है। ये अपमान का अस्त्र बन चुका है। किसी कमजोर दिमाग के इंसान के लिए बदला का सबसे आसान हथियार है मासूम बेटी , तो वो शिकार बन रही है। और ऐसी घटनाओं पर जिस तरह से उन्मादी चर्चाओं को हवा दी जा रही है और जिसमे नई उम्र के लोग फंस भी रहे हैं , वो सांझीराम और मेहदी हसन जैसे दिमागी बीमार शख्सियतों की संख्या में और भी इजाफा करेगी।
ग़ालिब के उस शेर और उसके अर्थ को एक बार फिर याद कर लीजिये।
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