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राजनैतिक पार्टियों की बेशर्मी पर सुप्रीम कोर्ट का चाबुक

के पी सिंह

राजनैतिक दलों में प्रगतिशील ललक से विराग बढ़ रहा है। वे परिस्थितियों के आगे समर्पण कर चुके हैं और यथास्थितिवाद की खाल में चुनौतियों से जूझ पाने की क्षमता न रह जाने के कारण छुप जाने को मजबूर हो रहे हैं।

पहले गठबंधन सरकारों के माहौल की वजह से राजनीतिक दल निहित स्वार्थों के आगे हथियार डालने को बाध्य थे लेकिन अब जब मतदाता उन्हें स्पष्ट जनादेश और अपार बहुमत हासिल करा रहे हैं तो भी वे इसी नियति के बंधक बने हुए हैं।

यही वजह है कि जो सुधार राजनीतिक दलों को करना चाहिए न्याय पालिका को उनका श्रेय मिल रहा है। पर सवाल यह है कि जब तक समाज में सुधार की इच्छा शक्ति जागृति नही होगी क्या तब तक न्याय पालिका नियम और विधानों का हस्तक्षेप कारगर हो पायेगा।

धूल खा रही बोहरा समिति की रिपोर्ट

1993 में एनएन बोहरा समिति की रिपोर्ट राजनीति में अपराधीकरण रोकने के लिए सामने आई थी। मीडिया में इस रिपोर्ट को लेकर क्रांति जैसा माहौल छाया रहा लेकिन इसके बाद 26 साल बीत गये हैं पर यह रिपोर्ट अपनी कोई सार्थकता साबित नही कर पाई है। बोहरा समिति की रिपोर्ट आने के बाद राजनैतिक दलों में अपराधियों को गले लगाकर उन्हें विधायी संस्थाओं में पहुंचाने के लिए आतुरता बढ़ी है।

आंकड़े इसकी गवाही देते हैं। 2004 के आम चुनाव में 24 प्रतिशत दागी चुने गये थे, 2009 में 30 प्रतिशत, 2014 में 34 प्रतिशत और 2019 आते-आते यह पायदान 43 प्रतिशत पर पहुंच गई। उत्तर भारत में तो सपा और राजद जैसे दलों ने राजनीति में अपराधीकरण को बढ़ावा देने की प्रवृत्ति में बहुत बड़े सकारात्मक परिवर्तनों के सूत्र गढ़ने शुरू कर दिये।

यहां तक कि बाद में भाजपा भी इस दौड़ में पीछे नही रही। माहौल ऐसा बन गया था कि कल्याण सिंह ने 1997 में जब दूसरी बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद की शपथ उस मंत्रिमंडल के बूते ली जिसमें आपराधिक चरित्र वाले माननीयों की भरमार थी जबकि यह कल्याण सिंह के चरित्र के एकदम विपरीत था।

सुधार के लिए आगे आई न्याय पालिका

इस बीच न्याय पालिका का आदर्शवाद ही राजनैतिक दलों के दुस्साहस पर अंकुश लगाता रहा। दूसरी ओर इसके बावजूद वे (राजनैतिक पार्टियां) इस मामले में दुर्दान्तता की हद पार करते रहे।

न्याय पालिका ने संसद और विधान मंडलों के चुनाव में नामांकन के समय उम्मीदवारों द्वारा अपनी आर्थिक और आपराधिक स्थिति के बारे में अनिवार्य तौर पर शपथ पत्र दाखिल करने, बाद में उसका ब्यौरा अखबारों व इलेक्ट्रानिक मीडिया में प्रकाशित/प्रशारित कराने की व्यवस्था की।

जनप्रतिनिधियों पर चल रहे मुकदमों की समयबद्ध सुनवाई के लिए विशेष अदालतों के गठन का प्रावधान भी न्याय पालिका के हस्तक्षेप से हुआ। हाल में चुनाव आयोग को अपराधी उम्मीदवारों का तांता रोकने के लिए और अधिकार न्याय पालिका ने सौंपे।

अब उच्चतम न्यायालय ने ताजा आदेश में व्यवस्था की है कि अगर राजनीतिक दल किसी आपराधिक पृष्ठभूमि वाले प्रत्याशी को टिकट देते हैं तो उन्हें इसका औचित्य स्पष्ट करना होगा। यह कहने से काम नही चलेगा कि अमुख को जीतने की उसकी क्षमता देखते हुए उसके खिलाफ दर्ज मुकदमों के बावजूद उम्मीदवार बनाया गया है।

बल्कि उनकी मेरिट जिसमें उनकी सेवा, कार्य और अनुभव आदि सम्मिलित रहेगा बतानी होगी।

कानून का सीमित प्रभाव

दरअसल कानूनों से या न्यायिक आदेशों से समाज में सार्थक परिवर्तन कभी नही होते। आजादी के तत्काल बाद बनाये गये भूमि सीलिंग कानून से लेकर दलबदल विरोधी कानून तक का हश्र इसका उदाहरण है। यहां तक कि दहेज के लेन-देन को दंडनीय बनाने व दहेज हत्या के मामले में सजा के प्रावधान को अत्यंत कठोर किये जाने के बावजूद दहेज का चलन और ज्यादा बढ़ा है।

न्यायाधीश तक अपनी या अपने परिवार की शादियों में इससे अछूते नही रह पा रहे हैं। कानून वहीं सफल होता है जहां पहले से समाज में उनके लिए स्वीकृति हो। अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस समेत तमाम यूरोपीय देशों में कानून का शासन इसलिए सफल है क्योंकि वहां के समाज में कानूनों का सम्मान करने की भावना स्वतः विद्यमान है।

दूसरी ओर इस तुलना में भारतीय समाज अराजक समाज प्रतीत होता है। किसी समाज के नैतिक नियमन का मुख्य श्रोत धार्मिक व्यवस्था होती है।

जबकि भारतीय धर्म शास्त्रों में बलात्कार जैसे अपराध को भी नजरअंदाज करने की प्रेरणा सृष्टि के रचयिता ब्रहमा द्वारा अपनी पुत्री से संबंध बनाने, देवताओं के राजा इंद्र द्वारा अपने गुरु की पत्नी से धोखा देकर अपकृत्य करने और प्रमुख ऋषियों द्वारा बलात्कार के किस्सों के कारण मिलती है।

प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों की उपेक्षा कर वर्ण व्यवस्था के आधार पर न्याय का निर्देशन भी सार्वभौम व्यवस्था का विफल करने वाला रहा। इसका जबर्दस्त प्रभाव यहां के लोगों के कार्य व्यवहार में देखने को मिलता है। उस पर बिडंबना यह है कि आधुनिक कानूनों से प्राचीन व्यवस्थाये तो तोड़ दी गईं जबकि यह व्यवस्थायें भी पूरी तरह लागू नही हो पाईं।

इस हालत में माफियाओं का त्वरित न्याय लोगों को भाता है। जब तक कानून से लोगों के साथ त्वरित इंसाफ नही होगा लोग सिंहासन बत्तीसी पर माफियाओं को विराजमान करते ही रहेगें।

माइंडसैट बदलने की चुनौती

जब इस देख में संवैधानिक शासन की स्थापना हुई तो इस माइंडसैट और इससे जुड़ी आदतों को बदलने की बड़ी चुनौती हमारे राष्ट्र नायकों के सामने थी। ऐसा नही कि इस दिशा में काम नही किया गया लेकिन चूंकि इन रोगों की जड़े पुरानी होने के कारण इतनी गहरी हो चुकी हैं कि खत्म होते-होते वे फिर पनपने लगती हैं।

मसीहा और अपराधी के बीच फर्क की झीनी रेखा

निश्चित रूप से इसका कारण है वर्ण व्यवस्था जैसी हमारी पुरानी संरचनायें। मसीहा और अपराधी में बहुत बारीक फर्क होता है इसलिए एक समय पुलिस के एक से बढ़कर एक ईमानदार अफसर भले ही चंबल के डकैतों को अपराधी कहते रहे लेकिन चंबल के जनमानस में उनका अक्स मसीहा के बतौर नही मिटा पाये। वर्ण व्यवस्था की बुराई ने अपराधियों को मसीहा के रूप में देखने की स्थिति बना दी है।

पहले दमनकारी ऊर्जा के आधार पर अपराधी अपनी बिरादरी में जाति नायक के रूप में प्रतिष्ठित किये गये। फिर अस्तित्व रक्षा के लिए संघर्षरत शोषित वर्गो ने अपनी जाति के दुस्साहसियों में अपना बचाव ढूंढ़ा तो दूसरे ध्रुव पर भी अपराधी मसीहा के रूप मे प्रतिष्ठित होते चले गये।

उत्तर प्रदेश में राजनीति के अपराधीकरण में सबसे ज्यादा योगदान देने वाले मुलायम सिंह यादव को अपनी ही पार्टी के सिरमौरों द्वारा मसीहाई हासिल कराने की कोशिश इसका एक और ऐंगिल है जिससे भद्रता पसंद भाजपा के कार्यकर्ता कितने असहज होते होगें जिसका अनुमान लगाया जा सकता है।

कुटिलताओं से पल्ला झाड़ने का मौका था भाजपा को

भाजपा चाहती तो राजनैतिक कुटिलताओं से ऊपर उठकर काम करने की सुविधा देश के जनमानस ने उसे उपलब्ध करा दी थी। लेकिन वह ऐसा नही कर पा रही है। उसने हिंदुत्व की लंबी लाइन खींचकर जातिगत संकीर्णताओं की राजनीति को अर्थहीन बना दिया था लेकिन इस सिलसिले को वह तार्किक परिणति पर नही ले जा सकी है।

उसने सवर्ण अहंकार को पोषित किया जिसके तहत राजनीति का अपराधीकरण भी उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में कुलदीप सिंह सेंगर और अशोक चंदेल आदि को टिकट देकर बढ़ाया। इस मोर्चे पर भाजपा अंतर्विरोधों में घिर गई है।

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उसके कार्यकर्ता महाराणा प्रताप जयंती और परशुराम जयंती मनाकर जब जातिगत प्रभुत्व के पुराने निजाम का परचम लहराते हैं तो उनसे कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वे आरक्षण की व्यवस्था को सहन कर लें।

भाजपा की दुविधा यह है कि एक ओर वह उनके अहम को सहलाये रखना चाहती है दूसरी ओर आरक्षण व्यवस्था को बदलने का दुस्साहस भी नही कर सकती। बेहतर होता कि पार्टी ने इस मामले में स्वस्थ्य दृष्टिकोण अपनाया होता तो संभव था कि आरक्षण को लेकर दुर्भावना की खाई पैदा होने की बजाय सवर्णों में उदात्तता जागृत होती और दोनों के बीच सदभावना का एक सेतु तैयार होता।

केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने दिल्ली विधान सभा के हालिया चुनाव में अपनी पार्टी की हार के लिए असंयत वाणी के यथार्थ को स्वीकार किया है। उनको प्रणाम। दीनदयाल उपाध्याय और अटल, आडवाणी के जमाने के व संघ द्वारा संस्कारित भाजपा के लोगों की आगामी पीढ़ी इतनी धृष्ट हो सकती है इसकी कल्पना नही की जा सकती।

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इस विपर्यास का चित्रण सोशल मीडिया के प्लेटफार्म से लेकर केंद्रीय मंत्रियों तक के बेहूदा ब्यानों में हो रहा है। पहले लोग बयार में बह रहे थे लेकिन अब उन्हें भाजपा के रवैये से वितृष्णा हो रही है। बाकई में अमित शाह को लोगों की नब्ज की अच्छी पहचान है।

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चलो देर आयद दुरुस्त आयद। वाक् संयम से ही मन की आपराधिक भावनाओं का परिष्कार होता है। इसलिए बोली सुधरेगी तो राजनीति में अपराधीकरण का समर्थन भी कम होगा।

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बीड़ा तो पार्टियों को ही पड़ेगा उठाना

बहरहाल कहने का मतलब यह है कि न्याय पालिका और कानूनों की भूमिका बदलावों के सापेक्ष सीमित है। सुधारों का बीड़ा तो राजनैतिक दलों को ही उठाना पड़ेगा। उन्हें जोखिम उठाकर भी ऐसा करने का संकल्प दिखाना चाहिए। भाजपा इस समय ऐसी स्थिति में है कि सुधारों के लिए पहल का काम करके इतिहास में सुनहरे अक्षरों में अपना नाम अंकित करा सकती है।

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