सुरेंद्र दुबे
वर्ष 2019 में हुए लोकसभा चुनाव के पहले चुनाव आयोग ने सभी राजनैतिक दलों को आदेश दिया था कि आपराधिक रिकॉर्ड वाले सभी प्रत्याशियों को कम से कम तीन अखबारों तथा सोशल मीडिया के माध्यमों से ये जानकारी देनी होगी की किसी प्रत्याशी पर कितने मुकदमें चल रहे हैं। परंतु यह आदेश देने के बाद चुनाव आयोग स्वयं सो गया और लोकसभा चुनाव संपन्न हो गए।
उसके बाद हरियाणा, महाराष्ट्र, झारखंड और दिल्ली में विधानसभा के चुनाव हो गए। ऐसा लगता है कि चुनाव आयोग ने राजनीति के अपराधीकरण को रोकने के दिशा में अनमने ढंग से कदम उठाया, इसलिए प्रत्याशियों ने बहुत ही कम प्रसार वाले अखबारों में अपना विवरण छपवा कर जनता व चुनाव आयोग दोनों के आंख में धूल झोंक दी।
गुरुवार को एक पीआईएल पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने राजनीति में बढ़ते अपराधीकरण पर गहरी चिंता जताई तथा यहां तक आदेश दे डाला कि राजनैतिक दलों को अब यह भी बताना पड़ेगा कि किन कारणों से पार्टी अपराधी छवि के उम्मीदवारों को टिकट दे रही है। सुप्रीम कोर्ट यह भी स्पष्ट कर दिया है कि अगर राजनैतिक दल इस नियम का पालन नहीं करेंगे तो इसे कोर्ट की अवमानना माना जाएगा।
देखना होगा कि राजनैतिक दल कोर्ट को कितना मानते हैं और अवमानना से कितना डरते हैं। वर्तमान न्याय व्यवस्था में तब तक किसी को अपराधी नहीं माना जा सकता है जब तक उसे किए गए अपराध के लिए सजा न सुना दी जाए। इसलिए हो सकता है इसे ढाल बनाकर राजनैतिक दल कोई नई चाल चलने की कोशिश करें।
राजनीति में आपराधिक छवि के लोगों की बढ़ती हिस्सेदारी पर सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को चिंता व्यक्त की है। अदालत ने सभी सुप्रीम कोर्ट दलों को निर्देश दिया है कि वे अपनी वेबसाइट पर सभी उम्मीदवारों की जानकारी साझा करें। इसमें उम्मीदवार पर दर्ज सभी आपराधिक केस, ट्रायल और उम्मीदवार के चयन का कारण भी बताना होगा। यानी सुप्रीम कोर्ट दलों को ये भी बताना होगा कि आखिर उन्होंने एक क्रिमिनल को उम्मीदवार क्यों बनाया है।
अदालत के फैसले के अनुसार, सभी राजनीतिक दलों को उम्मीदवार घोषित करने के 72 घंटे के भीतर चुनाव आयोग को भी इसकी जानकारी देनी होगी। साथ ही घोषित किए गए उम्मीदवार की जानकारी को स्थानीय अखबारों में भी छपवाना होगा।
साथ ही अगर किसी नेता या उम्मीदवार के खिलाफ कोई केस नहीं है और कोई भी FIR दर्ज नहीं है तो उसे भी इस बात की जानकारी देनी होगी। अगर कोई भी नेता सोशल मीडिया, अखबार या वेबसाइट पर ये सभी जानकारियां नहीं देता है तो चुनाव आयोग उसके खिलाफ एक्शन ले सकता है और सुप्रीम कोर्ट को भी जानकारी दे सकता है। यहां फिर ये देखना होगा कि क्या चुनाव आयोग राजनीति से अपराधियों को दूर रखने के लिए कोर्ट के आदेशों का पूरी गंभीरता से पालन करता है या नहीं।
वर्तमान चुनाव आयोग बहुत ही निष्क्रिय व लचर साबित हुआ और चुनाव प्रचार के दौरान आदर्श आचार संहिता का जमकर मखौल उड़ाया गया है। इसलिए हमें लगता है कि सुप्रीम कोर्ट को चुनाव आयोग के भी कान उमेठने होंगे और स्पष्ट दिशा निर्देश देने होंगे ताकि कहीं किसी प्रकार कीना-नुकुर की गुंजाइश न रहे और चुनाव आयोग भी आलोचना का शिकार न बने।
इसे एक लैंड मार्क कार्रवाई के रूप में देखा जाना चाहिए। अगर इस व्यवस्था का कड़ाई से पालन किया जाए तो राजनीति के गलियारे से काफी हद तक गंदगी साफ हो सकती है। राजनीतिक दलों के लिए भी यह एक अच्छा मौका है जब वे सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को आधार बनाकर अपराधियों से अपना पिण्ड छुडा सकते हैं। पर देखना ये होगा क्या वाकई राजनैतिक दल साफ-सुथरी राजनीति करते हैं या फिर चुनाव जीतने की लालसा में अपराधी छवि के लोगों की ही गोद में बैठे रहना चाहते हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेख उनके निजी विचार हैं)
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