लखनऊ की मुकद्दस सरजमीं ने बॉलीवुड को अनेक मशहूर व मारूफ फनकार दिये हैं। उनकी कला के जलवे मौसिकी, अदाकारी, फिल्म निर्देशन , नगमानिगारी, कहानी लेखन व स्क्रिप्ट राइटरिंग में सर्वविदित हैं। आइये, लखनऊ पले बढ़े फनकारों की आज की कड़ी में प्रस्तुत हैं सुप्रसिद्ध अभिनेता, राजनेता, निर्माता-निर्देशक सुनील दत्त जी कहानी की दूसरी कड़ी…
सुनील दत्त जी का परिवार उस वक्त काफी खराब दौर से गुजर रहा था। वो सांसद थे और अपने बेटे की रिहाई के लिए दर दर भटक रहे थे।
उन्हें अपने लखनऊ प्रवास के दौरान अलीगंज के ऐतिहासिक मंदिर व बाराबंकी का देवा शरीफ जैसे मुकद्दस जगहों पर जाने का अनेक बार मौका मिला था।
बात उन दिनों की है जब चौदह महीने जेेल में आतंकियों जैसी सेल में कैद रहने के कारण सुनील दत्त जी बिखरने की कगार पर पहुंच चुके थे। राह चलते लोग उन्हें देशद्रोही तक कह देते।
शायद ही कोई उम्मीद का दरवाजा उन्होंने न खटखटाया हो। खुद पावरफुल होते हुए भी वह कुछ नहीं कर पा रहे थे। वकीलों की फीस व दौड़ भाग के चलते उन्हें अपना बंगला भी गिरवी रखना पड़ा।
तभी उन्हें अपनी किशोरावस्था का लखनऊ याद आया। याद आया देवा शरीफ। वो खुमार बाराबंकवी को सुनने देवा मेला में जाते थे। खुमार साहब उनके अच्छे दोस्तों में थे।
वे खुमार साहब के इंतकाल फरमाने से पहले बम्बई से खास उनकी खैरियत पूछने आये थे। उन्हें किसी सोर्स से खबर मिली थी कि वे काफी बीमार चल रहे हैं।
अब आखिरी उम्मीद लखनऊ के पूजा व इबादत स्थल ही रह गये थे। वो आये। देवा शरीफ में मजार को चादर चढ़ाई। मनौती मानी। चमत्कार कहें या आस्था वहां से लौटते ही संजय को जमानत मिल गयी।
‘रेशमा और शेरा” ने कर दिया कंगाल
उनके अपने बैनर तले बनने वाली फिल्म ‘रेशमा और शेरा” की शूटिंग राजस्थान के तपते रेतीले इलाकों में हो रही थी। फिल्म को डायरेक्ट कर रहे थे सुखदेव। अस्सी हजार फुट के प्रिंट जब धुलकर आये तो दत्त साहब को फिल्म एकदम पसंद नहीं आयी।
उन्होंने डायरेक्टर सुखदेव से कहा, ‘देख सुख तूने फिल्म तो दो कौड़ी की बना दी है। मेरे बैनर पर डिस्ट्रिब्यूटर आंख मूंद कर पैसा लगाते हैं। मैं उनके साथ धोखा नहीं कर सकता। यह सारे प्रिंट कैंसल करो। अब मैं खुद रीशूट करूंगा।”
दत्त साहब ने डायरेक्शन की कमान खुद सम्भाली। एक सीन फिल्माने के लिए उन्होंने यश जौहर जो उनके प्रोडक्शन मैनेजर थे, से सौ ऊंटों का इंतजाम करने को कहा। वे गांव गांव दौड़े और सुबह ग्यारह बजे तक सौ ऊंच आ गये।
दत्त साहब ने ऊंट देखकर कहा कि ये तो सौ लग नहीं रहे हैं? यश जी ने कहा, ‘सौ हैं भाई साहब। आप चाहे तो गिन लो।” ‘ओके,ठीक है।” कहते ही ऊंटों को लाइन से खड़ाकर दिया गया। दत्त साहब ने गिनना शुरू किया। गिनती में एक ऊंट कम निकला। दत्त साहब ने यश की तरफ देखा। वो बोले ‘एक कम होने से की फरक पैंदा है प्राजी, दर्शक कौन सा गिनेंगे!” दत्त साहब बोले, ‘सौ का मतलब सौ! आज की शूटिंग कैंसल।” देखते ही देखते पैकअप हो गया।
परफेक्शन के चक्कर में फिल्म शेड्यूल से काफी लेट हो गयी थी। फाइनेंसर्स का दबाव व ब्याज बढ़ने लगा था। इस बीच दत्त साहब ने दूसरे बड़े बैनरों की पांच फिल्में भी ठुकरा दीं। जो बाद में सुपर हिट रहीं।
आखिर 1971 में फिल्म बनकर कम्पलीट हुई। रिलीज हुई। दत्त साहब के हिसाब से पिक्चर अच्छी बनी थी। लेकिन जनता ने फिल्म को नकार दिया। फिल्म औंधे मुंह गिर गयी।
उनकी कम्पनी 60 लाख के कर्ज में डूब गयी। सात कारों में सिर्फ बच्चों के लिए एक कार बची। बंगला गिरवी हो गया। दत्त साहब बस से सफर करने लगे। लोग ताने मारते। सब उजड़ गया तेरा।
अब क्या करेगा सुनील। लोगों ने सलाह दी कि चोपड़ा साहब हैं शक्ति सामंत हैं… आप उनसे कहें कि वो फिल्म साइन कराकर एडवांस दें। दत्त साहब का इस पर कहना था कि अगर वो मेरे दोस्त हैं तो उन्हें खुद आगे आकर सहायता करनी चाहिए। मैं कहीं नहीं जा रहा।
उनको एक ही डर सताता था कि कोई फाइनेंसर उन्हें कानूनी पचड़े में न फंसा दे। उन्होंने काबिल वकील वाधवा जी से मुलाकात की और अपने इस डर को उनके सामने रखा।
उन्होंने इतना विश्वास जरूर दिलाया कि देखो सुनील मैं तुम्हें जेल तो नहीं जाने दूंगा। तभी उन्हें पता चला कि उनकी फिल्म ‘रेशमा और शेरा” को सरकार ऑस्कर अवार्ड के लिए भेजना चाहती है।
उन्होंने सोचा कि क्यों न इसके लिए एक नया प्रिंट बनवा लिया जाए। उन्होंने अपने फाइनेंसरों से दस हजार की मांग रखी। उन्होंने कहा कि पहले साठ लाख चुका दो तब जितने चाहो हजार ले जाओ।
दत्त साहब को इस बात से इतनी ठेस पहुंची कि उनकी आंखों से आंसू आ गये। समय उनका साथ नहीं दे रहा था। तभी कुछ बी ग्रेड के फिल्म मेकर उनके पास आये और बोले कि फाइनेंसर बोल रहा कि दत्त साहब जैसे बड़े कलाकार को जोड़ो तो ही पैसा लगायेंगे।
आप दो लाख पर डे का ले लो चार दिन का काम है, कर लें। उन्होंने सबको वापस कर दिया। बोले कि मैं गेस्ट रोल नहीं करता। ये निर्माता वकील वाधवा के जानने वाले थे। वो उनके पास गये और दत्त साहब को राजी करने के लिए रिक्वेस्ट की।
वकील साहब ने दत्त साहब को तलब किया। बात रखी कि देख भाई ऐसी आठ दस फिल्में साइन कर लो, सारा कर्जा उतर जाएगा। दत्त साहब ने साफ साफ मना कर दिया।
बोले मैं वेश्या नहीं हूं कि पैसों के लिए अपने वसूलों से समझौता करूं। वकील साहब उनकी इस बात पर उन्हें गले से लगा लिया। उन प्रोड्यूसरों ने कहा कि आप नहीं माने तो हमारे बीवी बच्चे सब सड़क पर आ जाएंगे। दत्त साहब को उस रात नींद नहीं आयी। आखिर उन्होंने तीन फिल्मों में काम करना स्वीकार कर लिया। ये थीं ‘प्राण जाए पर वचन न जाए”, ‘हीरा” व ‘गीता मेरा नाम”। ये तीनों फिल्में बाक्स आफिस पर सुपर डुपर हिट रहीं। अब तो इस नये अवतार के सुनील दत्त को अपनी अपनी फिल्मों में लेने के लिए प्रोड्यूसरों की लाइन लग गयी।…
समाज सेवा का जज्बा : दत्त साहब विचारों से गांधीवादी थे। 1962 की चीन से लड़ाई के बाद वे पंडित नेहरू से मिले। उन्होंने कहा कि तुम इंटरटेनमेंट इंडस्ट्री में हो अपने जवानों के मनोरंजन के लिए कुछ क्यों नहीं करते।
बस उन्होंने अजंता आर्ट कल्चरल ग्रुप बना डाला और जवानों के मनोरंजन के लिए 1962, 1965 और 1971 के युद्ध के बाद सैनिकों के मनोरंजन के लिए अनेक शोज किये।
एक शो उन्होंने बांग्लादेश में किया जिसमें लताजी भी उनके साथ गयी थीं। तब मुजीबुर्रहमान साहब जिन्दा थे और उन्होंने भी शो का आनंद लिया था। नर्गिस दत्त जी ने स्पैस्टिक चाइल्ड के लिए नर्गिस दत्त स्पेशल चाइल्ड स्कूल की स्थापना की। (जारी…)