Monday - 28 October 2024 - 9:54 AM

तनाव अब कम होना चाहिए

 

रतन मणि लाल

नागरिकता को लेकर देश में पिछले करीब दो महीनों से अप्रत्याशित घमासान जारी है। राजनीतिक दल, सरकारी अफसर, शिक्षक, प्रशासक, कलाकार, छात्र, महिलायें और यहाँ तक कि कम उम्र के बच्चे भी इस मामले पर हो रहे विरोध और समर्थन में शामिल हैं।

कौन नागरिक हो, और कौन न हो, यह निर्धारित करना किसी भी देश की सरकार का ही अधिकार है। इससे जुड़े नियम में बदलाव करना भी सरकार का अधिकार हो सकता है लेकिन यदि ऐसे बदलाव पर समाज के एक वर्ग या सम्प्रदाय को ऐतराज हो, तो सवाल जरूर उठते हैं।

यह बहस लम्बी है कि नागरिकता के कानून में बदलाव के पीछे क्या सोच है और इससे किसी को क्या फायदा और किसे नुकसान होगा। लेकिन इस समर्थन-विरोध के माहौल में कुछ ऐसी बातें जरूर सामने आ रहीं हैं जिनसे सामाजिक ताने-बाने और देश के भविष्य पर सवाल उठ रहे हैं।

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ऐसे सवाल उठ रहे हैं कि इतिहास में हमारा देश था भी या नहीं और इसकी भौगोलिक सीमाएं वास्तविक थी या नहीं। यह भी कहा जा रहा है कि एक संप्रदाय के लोगों को उनके पुरखों के बारे में कोई जानकारी ही नहीं है। कुछ तत्त्व यह भी कह रहे हैं कि स्वतंत्रता के समय हुए विभाजन के बाद भारत एक बार फिर विभाजन की कगार पर है। कुछ तत्वों का यह भी कहना है कि इतना ख़राब माहौल तो आपातकाल या अंग्रेजों के राज्य में भी नहीं था। क्या ऐसा ही है?

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क्या आज वास्तव में देश में तानाशाही कायम हो गई है? क्या वैकल्पिक विचारधारा या विपक्षी विचारधारा की जगह समाप्त हो गई है? क्या सत्तारूढ़ विचारधारा से अलग सोचने वाले लोग दबाव में हैं? क्या देश पर अधिकार जताने का अधिकार सबको नहीं रह गया? लेकिन यदि निर्विकार होकर देखा जाए, तो पता चलता है कि विरोध के प्रदर्शन कई हफ़्तों से दिल्ली और अन्य शहरों में चल रहे हैं –और उनमे लखनऊ भी शामिल हो गया है। इन शांतिपूर्ण प्रदर्शनों पर अभी तक कोई कठोर कार्यवाई नहीं की गयी है। कुछ राज्यों ने स्पष्ट रूप से केंद्र से टकराव मोल लिया है और वे अपने विरोध को किसी भी हद तक ले जाने को तैयार दिखते हैं।

कुछ राजनीतिक दल और उनके नेता इस मामले पर आर-पार की लड़ाई के लिए तैयार दिखते हैं, चाहे इसका परिणाम देश के संघीय ढांचे के लिए घातक हो क्यों न हो। लेकिन यह सोचने वाली बात है कि यदि देश का वर्तमान राजनीतिक नेतृत्त्व वास्तव में तानाशाही होता तो इस प्रकार के प्रदर्शनों को होने ही नहीं दिया जाता, और उन पर उसी प्रकार की कार्यवाई की जाती जैसी चीन या अन्य अलोकतांत्रिक देशों में की जाती है।

देश के लोगों को अपने नेताओं को सभी प्रकार के अपशब्द कहने, उनका बुरा चाहने और उनके इरादों पर सवाल उठाने का अधिकार है। लेकिन ऐसा करने वालों को याद रखना चाहिए कि इतिहास बड़ा निष्ठुर होता है। आज जिस भाषा का प्रयोग आज के सत्तारूढ़ लोगों के लिए किया जा रहा है, उसी प्रकार की भाषा का प्रयोग कुछ साल पहले तत्कालीन सत्तारूढ़ (और आज विपक्षी) लोगों के लिए किया जाता था।

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बहुत पीछे न जाएं, करीब 45 साल पहले जिस तरह से तत्कालीन विपक्षी नेताओं को राजनीतिक विरोध और मतभेद के चलते लम्बे समय तक जेल में बंद रखा गया। उस समय सभी प्रकार की अभिव्यक्ति या व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर रोक लगा दी गयी, लेकिन अब वैसा हो पाना संभव नहीं है। आज देश के मीडिया और सोशल मीडिया में जिस तरह की भाषा का प्रयोग सत्तारूढ़ या विपक्ष के लोगों के लिया किया जा रहा है, ऐसा तो आपातकाल के दौरान भी नहीं देखा गया।

सामंजस्य बना रहे लेकिन सबसे चिंताजनक बात उस सामंजस्य के टूटने की है जो सदियों से सभी सम्प्रदायों के बीच बना हुआ था। किसी भी सरकार से अपेक्षा की जाती है कि वह समाज के सभी वर्गों की चिंताओं को दूर करेगी, और ऐसा कोई भी नीतिगत कदम नहीं उठाएगी जो एकतरफा प्रतीत हो। साथ ही, विरोधी विचारधारा को भी स्वीकार किया जाएगा। यह सही है कि कुछ हफ़्तों पहले विरोध प्रदर्शन के दौरान कुछ राज्यों में वहां की पुलिस व प्रशासन द्वारा ऐसी कार्यवाई की गयी जिससे बचना चाहिए था। पर यह भी सही नहीं है कि विरोध प्रदर्शन के नाम पर सम्प्रदायों के इतिहास पर ही सवाल उठाये जाएं।

दिसम्बर के मध्य से शुरू हुआ तनाव का यह मौसम अब बदलना चाहिए। अब तो यादगार सर्दी ने भी करवट लेना शुरू कर दिया है और कई दिनों बाद, कम से कम लखनऊ में, धूप का रंग दिखाई दिया है। देश के सर्वोच्च न्यायलय के पास यह मामला पहंच चुका है। दोनों पक्षों के पास अब समय है अपनी बात को मजबूती से रखने का, और देश के लोकतान्त्रिक स्तंभों पर विश्वास बनाये रखने का। हमारी संसद, न्यायपालिका और कार्यपालिका अपनी सारी कमियों के बावजूद एकतरफा कभी नहीं रही है। यह भरोसा बना रहना चाहए।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेख में उनके निजी विचार हैं)

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