शुभ्रा सुमन
मैं स्कूल में पढ़ती थी जब ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ पहली बार देखी थी.. शाहरूख पसंद आता था, फिल्म दिल में बस गई थी.. फिल्म में जब सिमरन बगावत करना चाहती है तो राज उसे समझाता है, ‘बड़ों के आशीर्वाद से तुम्हें अपनाना चाहता हूं..’
जब सिमरन की मां अपने पति के डर के मारे बेटी से भाग जाने की मिन्नतें करती है तो भी राज सही और गलत का फर्क समझाकर मां-बेटी को मना लेता है.. देखने वालों की आंखों में आंसू आ जाते हैं और फिल्म हिट हो जाती है..
भारत भावना प्रधान देश है.. भावनाओं के कई आधार हो सकते हैं.. कुछ भावनाएं इंसानी संवेदनाओं पर टिकी होती हैं, कुछ जन्मजात रिश्तों पर, कुछ जाति-धर्म पर तो कुछ उन दिमागी खांचों पर भी जिनका आधार ही लड़का-लड़की में भेदभाव है.. ये दिमागी कंडीशनिंग से आता है.. बचपन से जो हम देखते-सुनते और महसूस करते हैं वही सब हमारी भावनाओं में ढ़ल जाता है..
साक्षी और अजितेश फिल्मी किरदार नहीं हैं.. वो लड़के-लड़कियां भी नहीं थे जिन्होंने अपनी मर्जी से शादी करने के बाद भी भरोसा नहीं खोया, रिश्तों की डोरी से खिंचते हुए घर वापस चले आए, प्यार की सज़ा भुगती, अपनों के हाथों ही मार दिए गए.. इंटरनेट पर सर्च करेंगे तो आपको इस तरह के न जाने कितने खौफनाक किस्से मिल जाएंगे.. प्यार करनेवालों का खून बहा दिया गया, कहीं जाति, कहीं रूपया-पैसा, कहीं धर्म के नाम पर.. साल दर साल खून बहाया गया और वही खून जमकर खबर बनती गई, जिन्हें अब हम सिर्फ पढ़ते हैं कभी घटनाओं तो कभी आंकड़ों की शक्ल में..
जब मेरा सामना इनसे हुआ तब जाकर अहसास हुआ कि हमारे समाज का सच ‘डीडीएलजे’ नहीं बल्कि ‘सैराट’ है.. यहां मानवीय संवेदनाओं से ज्यादा अहमियत रखती हैं जाति और धर्म के इर्द गिर्द गढ़ी हुई कृत्रिम भावनाएं जिनके आगे रिश्ते और प्यार भी बेमानी हो जाते हैं..
अगर आज आप साक्षी के कदम को तमाशा, फज़ीहत, लफड़ा या फसाद जैसा कोई नाम दे रहे हैं तो आप भी उसी मानसिकता के पोषक हैं जो लड़कियों की आज़ादी को उनकी उच्छृंखलता की तरह देखता है.. उनके आवाज़ उठाने को वाचालता की श्रेणी में लाकर रख देता है.. क्योंकि बगावत कई बार हंगामा खड़ा करती है.. उस हंगामें की सीमा हम और आप नहीं तय कर सकते, बल्कि उसे परिस्थितियों का मोहताज हो जाना पड़ता है..
किनारे पर खड़े रहकर देखने वालों के लिए शब्दों का हेरफेर करके पाला बदल लेना बहुत आसान है.. लेकिन हक़ की आवाज़ पालों में बंधकर नहीं उठाई जाती.. उसमें जोखिम होता है.. जोखिम कुछ लोग ही उठा पाते हैं..
हो सकता है कि साक्षी का फैसला गलत साबित हो.. लेकिन फैसला लेने की हिम्मत दिखाने के लिए हमें उसकी तारीफ करनी चाहिए.. हो सकता है कि अपनी मर्जी से की गई उसकी शादी न चले.. लेकिन जिन शादियों में परिवारों की मर्जियां शामिल होती हैं क्या वो नाकाम नहीं होतीं..
घरेलू हिंसा, दहेज का लोभ, मैरिटल रेप जैसे मसलों की स्याह हकीकत क्या किसी से छिपी हुई है.. लेकिन तब न जाति पर कोई आंच आती है और न सम्मान फीका पड़ता है..
बेशक साक्षी के पिता ने बचपन से लेकर अबतक अपनी बेटी के लिए बहुत कुछ किया होगा.. पिता की भूमिका का बखान करना भी संभव नहीं है.. लेकिन अफसोस कि हम एक ऐसा समाज हैं जो प्यार, अपनेपन और सुरक्षा को अक्सर आज़ादी की कीमत पर तोलना चाहता है..
जब साक्षी का भाई खुद की तारीफ में कहता है कि उसने बहन को ‘फ्रीडम दिया’ तो उसकी दिमागी कंडीशनिंग समझी जा सकती है.. अफसोस कि हममें से ज्यादातर लोग ऐसे ही सोचते हैं.. सोशल मीडिया पर साक्षी को लेकर चल रही पोस्ट्स और कमेंट्स पढ़कर फिर से एक बार ये यकीन करना पड़ा..
(शुभ्रा सुमन टीवी पत्रकार और एंकर हैं )