डॉ शिशिर चंद्रा
इंसान के जीवन में पानी का सबसे अधिक महत्त्व है, पानी के बिना जीवन नहीं। ऐसे तो धरती पर पानी की कमी नहीं पर साफ़ सुरक्षित पीने योग्य पानी काफी कम है जो अधिकांशतः जमीन के अंदर है। अब यदि जमीन के अंदर का पानी भी साफ़ सुरक्षित पीने योग्य न मिले तो सोचिये लोगों का क्या हाल होता होगा और ऐसे दूषित पानी को साफ़ सुरक्षित पीने योग्य बनाने के लिए क्या-क्या जतन करना पड़ता होगा।
ऐसे ही एक कहानी है जिला चित्रकूट के कर्वी ब्लॉक के झरिआ गांव की। इस गांव में 817 लोगों के बीच पीने के पानी के लिए 11 हैंडपंप हैं और कुछ एक लोग के पास अपना निजी बोरवेल है, पर पानी…. , पानी की कहानी ये है कि इन सारे के सारे पानी के स्रोत चाहे वो हैंडपंप हो या बोरवेल सब दूषित है। इनका पानी अत्यधिक खारा है जो कि पीने योग्य नहीं है।
कुछ एक कुआं भी है इस गांव में पर पानी उसका भी खारा है। तो सवाल ये उठता है कि फिर इस गांव के लोग पीने के पानी का क्या इंतज़ाम करते है? कहां से और कैसा पानी लाते है पीने के लिए? क्या वो पानी पीने योग्य होता है? तो जवाब की तलाश में 3 साल पहले अपनी टीम के साथ मै भी देखने गया वो जगह जहाँ से इस गांव के लोग पीने के पानी का इंतजाम करते थे।
आप लोग को जानकर ताज्जुब होगा कि जहां यह दावा है कि आज के ज़माने में विज्ञान और सरकारी व्यवस्था हर एक छोटे से छोटे गांव में भी लगभग पहुंच चुकी है, वहीं आज भी इस गांव में लोग के पास नहर के किनारे पर छोटे-छोटे गड्ढे खोदकर उसमें से पानी को प्रयोग मे लाने के अलावा कोई विकल्प नहीं था और घर पर उसे छानकर पीने और खाना बनाने के काम में लाते थे।
घर की महिलाओं, बच्चों और कुछ नवजवानो का सुबह शाम का काम ही यही होता था। पूछने पर पता चला कि केवल यही पानी पीने योग्य है। (यहाँ ये बताना जरूरी है कि ये नहर बारिश के पानी पर निर्भर है जो खोह के पहाड़ों से निकल कर लगभग 60 किलो मीटर की दूरी तय कर पयस्वनी नदी में मिलती है जो आगे यमुना में मिल जाती है, जिसको स्थानीय बोल चाल में लोग गढुआ नाला कहते हैं। इस बरसाती नहर में साल के 8-10 महीने लगभग पानी बना रहता है जिसका इस्तेमाल आस पास के लोग सींचाई व मवेशियों को पानी पिलाने के
काम में लाते हैं)।
उनकी बात सुनकर मन में एक साथ कई सवाल घूमने लगा ठीक वैसे ही जैसे अभी आपके मन में शायद उठ रहा हो…. जैसे ये पानी कितना शुद्ध होगा? उसमें कितना पानी इकट्ठा होता होगा? पानी भरने में लोगों का कितना समय जाता होगा? घर से उस जगह की दूरी कितनी होगी और कितना ही पानी वे ला पाते होंगे? किशोरियों महिलाओं को रास्ते में और किस प्रकार की कठिनाईयों का सामना करना पड़ता होगा ? आदि।
इन सवालों के साथ शुरू हुआ इसका उपाय तलाशने का सफ़र जो लंबा था। इस क्रम में स्थानीय लोगों के साथ ही तकनीकी ज्ञान रखने वालों से भी बात हुई पर कोई ठीक ठाक रास्ता नहीं सूझ रहा था, पर जैसा पहले कहा कि समस्या कठिन था तो रास्ता आसान कहाँ से होता।
इसी बीच हमारे साथ काम करने वाले एक वरिष्ठ साथी और मुद्दे के विशेषज्ञ पुनीत श्रीवास्तव से बात हुई जिन्होंने हमे एक नए प्रकार की तकनीक ‘रिसावदार कुआं ‘ (infiltration well) बनाने का सुझाव दिया। यह एक ऐसा कुँआ होता है जो उस पारम्परिक कुँए से बिलकुल अलग होता है, इसमें पानी ज़मीन के तल से नहीं आता बल्कि ज़मीन की उप-सतह (Sub Surface) से पानी के रिसाव द्वारा इस कुंए मे पानी इक्कठा होता। क्योंकि ज़मीन के अंदर का पानी बहुत ही खारा है और पीने योग्य नहीं है यह जानकारी तो हमें पहले ही थी इसलिए यह विधि ही उपयुक्त लगी। कुंआ, नहर के किनारे उस जगह बनाना निश्चित हुआ जहां से गांव के लोग गड्ढे बनाकर पानी लेते थे। जिससे कि कुंए को नहर के पानी से लगातार सपोर्ट मिलता रहे।
समस्या का उपाय तो मिल गया पर क्रियान्वयन? काम इतना आसान नहीं था, सबके लिए यह तकनीक भी नई थी, साथ में ये संशय भी था कि यह कुआं बनने के बाद भी पर्याप्त पानी मिलेगा भी या नहीं। जैसे तैसे कई सवालों के जवाब तलाशते हुए यह काम शुरु हुआ। सबसे पहले गांव मे उपलब्ध अलग-अलग पानी के स्रोतों की सरकारी लैब से जाँच कराई गयी जिसमें ये नहर के किनारे वाला गड्ढा भी शामिल था। हमारा पहला कदम लक्ष्य की और मजबूती से बढ़ा जब हमें यह रिपोर्ट मिली की इस गड्ढे का पानी पीने योग्य है, फिर ये जाँचना था कि इस पानी का डिस्चार्ज रेट क्या है, प्रति व्यक्ति कितना पानी मिलने की गुंजाइश है आदि, और उत्तर संतोषप्रद था तो हौसला बढ़ा।
अब असल काम था रिसावदार कुएं का निर्माण, जिसकी तकनीक हम सभी के लिए नई थी, इसलिए निर्माण काम में लगे लोगों को इसकी संरचना समझाना और विश्वास पैदा करना कि यह काम करेगा काफी मुश्किल भरा था। थोड़ी मशक्कत के बाद साझा समझ बन पाई कि कैसा कुआं बनना है। फिर शुरू हुआ कुँए के निर्माण का काम, हमलोग लगातार साथ मे लगे थे कि डिज़ाइन के अनुसार ही काम हो। कटोरे नुमा कुँए की संरचना की गई जिसमें उस पानी को एकत्र किया जा सके जो उप-सतह से रिस रहा है, इसलिए कुँए के निर्माण के समय बीच-बीच में नहर की ओर पी.वी.सी. पाइप की कई नलिकाए भी डाली गई जिससे पानी का रिसाव कुँए की ओर बना रहे। उसकी अंदर की दीवारों मे पत्थर की चुनाई की गई और यह ध्यान रखा गया कि मजबूती के साथ ही पानी का रिसाव कुंए में बना रहे साथ ही कुँए की तलहटी को पक्का किया गया जिससे तलहट से पानी न रिसे और इस बड़े कंटेनर नुमा ढाँचा मे पानी बराबर इकठ्ठा होता रहे।
इन बारीकियों को समझते समझाते अंत में कुआं बनकर तैयार हुआ। अब चुनौती थी यह सुनिश्चित करना कि बाढ़ से इस ढाँचे को कोई नुक्सान न हो इस हेतु कुएं के किनारे पत्थरों का थोड़ा ऊँचा बाड़ नुमा ढाँचा तैयार किया गया। छोटे बड़े ऐसे कई काम हुए जिससे कुएं को संभावित नुक्सान से बचाया जा सके। यह पूरी प्रक्रिया चुनौतियोंसे भरी थी, बीच में ऐसा भी समय आया कि लगा कि ये काम हो नहीं पायेगा, शंका भी हुई कि अगर यह ढांचाँ योजनानुसार काम नहीं कर पाया तो समय, ऊर्जा, पैसा कहीं सब बर्बाद न हो जाए, पर टीम ने उम्मीद कभी नहीं छोड़ी और डटे रहे। इस पक्रिया का आखिरी चरण था फिलटर मीडिया के साथ पानी की टंकी और जगह-जगह स्टैंड पोस्ट के निर्माण की ताकि कुएं के पानी को सुरक्षित तरीके से नल तक पहुंचाया जा सके जो सफलता के साथ पूरा हुआ।
अब बारी थी परिणाम कि, अंततः साफ़ और सुरक्षित पीने योग्य पानी नल में आ गया जिससे जितनी खुशी गांव वालों को थी उतनी ही ख़ुशी पूरी टीम को भी थी। इसके बाद इस कुएं और अन्य निर्माण की देखरेख और समुचित संचालन जैसे कुएं की समय-समय पर सफ़ाई, उसके अंदर नियमित रूप से और निश्चित मात्रा का क्लोरीनेशन, टंकी, फ़िल्टर मीडिया, पानी भरने की जगह की नियमित सफ़ाई, पानी की बरबादी पर रोक आदि के लिए ‘विलेज वॉश फोरम’ जिसमें स्थानीय लोग ही शामिल हैं के साथ विस्तृत कार्य योजना व जिम्मेदारी तय हुई जिससे ये सिस्टम ठीक तरीके से काम करता रहे।
एक ऐसा काम जिसकी परिकल्पना ही चुनौतीपूर्ण हो उसको मुक़ाम तक पहुँचाने का संघर्षभरा रास्ता तय कर अंत में उसको अमलीजामा पहनाना और टीम के अथक प्रयास के बाद नलों में पानी, और लोगों के चेहरे पर खुशी देखने का संतोष शब्दों में बयां करना कठिन है। आखिरकार झरिया के लोगों को खारे पानी से निजात मिली और हमें बहुमूल्य अनुभव और सीख। आशा है
ऐसी ही और नई-नई पानी की कहाँनी आपतक पहुंचा पाऊ।
टीम के सभी साथियों विशेषकर अशोक जी, सुनील, अनिल, मनीष, रेनू, पुनीत, फर्रुख और सभी झरिया वासियों का बहुत शुक्रिया।
(लेखक वॉटरएड इंडिया के कार्यक्रम समन्वयक हैं)
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