केपी सिंह
विचार निष्ठा, पार्टी के सेवा के इतिहास, नेतृत्व में असीम श्रृद्धा और आस्था इन सभी सहज वरीयताओं को दरकिनार कर चुनाव चिन्ह की बोली लगाकर मिशन के हिसाब से ऐरे-गैरे-नत्थूखैरों को देकर बाप बड़ा न भइया सबसे बड़ा रुपइया की कहावत को प्रमाणित करने वाली बसपा सुप्रीमों मायावती ने चंद्रशेखर पर चंदा बटोरने के लिए आंदोलनों की चोंचलेबाजी करने और जेल जाने का आरोप लगाया है।
दलित राजनीति के क्षितिज पर चंद्रशेखर नये युवातुर्क के रूप में उभर रहे हैं। हाल ही में सीएए के मुददे पर उन्होंने दिल्ली में शाही इमाम के साथ गिरफ्तारी दी जिसके लिए अदालत ने उनको 14 दिन के रिमांड पर जेल भेज दिया तो आदरणीया बहनजी और बौखला गईं। बहनजी चंद्रशेखर को आशीर्वाद देने की बजाय सौतिया डाह जैसी इर्ष्याग्नि से धधकती-भड़कती रहती हैं जबकि चंद्रशेखर उनसे उलझने की बजाय अभी भी उन्हें अपनी बुआ कहते हैं।
अब कैसे कहें कि उम्र चढ़ने के साथ-साथ परिपक्वता और दूरंदेशी बढ़ती है। अब मायावती और चंद्रशेखर में कौन परिपक्वता दिखा रहा है और किसमें दूरंदेशी है यह बताने की जरूरत नहीं है।
मायावती के गुरू मान्यवर काशीराम पर जब पुरानों को दगा देकर बहनजी को आगे बढ़ाने का आरोप लगाया जा रहा था तब उन्होंने एक साक्षात्कार में अपुन से कहा था कि पतझड़ आता है ताकि नई कोपलें फूट सकें। आंदोलनों को हमेशा जवान रखने का यह सिद्ध फार्मूला है। पता नही मायावती इस गुरुमंत्र में विश्वास रखती हैं या नहीं।
चंद्रशेखर के तेजी से उभरने की पीछे दलित राजनीति में नई कोपलें का ही संकेत है जो बहनजी को बर्दास्त नही हो पा रहा क्योंकि अपने पतझड़ की कल्पना का डरावना स्वप्न वे किसी कीमत पर नही देखना चाहतीं। वैसे भी बहनजी के रंग-ढंग अजीब हैं। वे सरकार के खिलाफ कम बोलती हैं विपक्ष के खिलाफ ज्यादा। वे और उनके कार्यकर्ताओं के सोच की फ्रीक्वेंसी अलग-अलग हो चुकी है। यही वजह है कि मिशनरी दौर की बसपा की ठोसता फना हो गई है। अब तो हालत यह है कि अवसरवादी वैंल्टीलेटर पर बसपा की जान कब तक धड़केगी यह एक यक्ष प्रश्न बन गया है।
उधर भाजपा में मोदी का तिलिस्म टूट रहा है। शायद यह धूमकेतु की नियति है जो जितनी तेजी से दैदीप्यमान होता है उतनी ही तेजी से गर्क हो जाता है। संविधान के अनुच्छेद 370 में परिवर्तन के तुमुलनांद के बीच लोकसभा चुनाव के नतीजों की उनकी चौंधियाने वाली सफलता एकदम नदारद नजर आई। हालांकि इसके बाद कर्नाटक में येदियुरप्पा ने कांग्रेस के बागियों की खाली सीटें उपचुनाव में अपने हक में बटोरकर भाजपा को संजीवनी दी थी लेकिन अब यह माना जा रहा है कि यह राज्य नेतृत्व के कुशल प्रबंधन का नतीजा था। जिसमें मोदी और अमित शाह के करिश्मे को तलाशा जाना व्यर्थ है। झारखंड के विधानसभा चुनाव में यह प्रमाणित हो गया। जिस तरह से अनुच्छेद 370 में बदलाव का पराक्रम महाराष्ट्र और हरियाणा में काम नही आया था वैसे ही सीएए का पटाखा झारखंड में फुस्स हो गया।
नजरें बांधने की चकमेबाजी से जादूगरी का धंधा चलता है लेकिन मोदी सरकार का जादू बेरोजगारी और आर्थिक नीतियों की विफलताओं से ध्यान बटाने के मामले में चूक सा गया है। भाजपा के रणनीतिकारों को इसे गंभीरता से लेना होगा। अगर वे आत्मविश्वास के शिखर पर बैठे रहे तो उन्हें गफलत का शिकार होना पड़ सकता है।
विश्लेषक झारखंड की हार का ठीकरा राज्य के नेतृत्व पर थोप रहे हैं। अगर ऐसा है तो भी राष्ट्रीय नेतृत्व को इस विफलता की जिम्मेदारी से बरी नही किया जा सकता। मोदी है तो मुमकिन है मानकर किसी को भी सांसद विधायक का टिकट देकर जितवा लेना, मुख्यमंत्री के रूप में कैसे भी चेहरे को थोप देना, पार्टी के जनप्रतिनिधियों के किस्से सुनने के बावजूद उनके लिए किसी तरह की आचार संहिता लागू करने की परवाह न करना इत्यिादि ऐसी चूंकें हैं जिनसे अब जनता का गुस्सा भड़कने लगा है।
हाल में उत्तर प्रदेश की विधानसभा में जो कुछ हुआ उसे अभूतपूर्व माना जाना चाहिए। भाजपा के लगभग 90 विधायकों ने सदन के अंदर बगावत कर दी । उनके हंगामें के कारण अध्यक्ष को कार्रवाई स्थगित करनी पड़ी। यह योगी के नेत्त्व की दबंग छवि को तार-तार करने वाली घटना थी। सुना है कि केंद्र ने भी इसे गंभीरता से संज्ञान में लिये है।
मंत्री, विधायक लोगों के बीच सत्ता के चेहरे के रूप में देखे जाते हैं। जिससे अधिकारियों और शासन में अपने हस्तक्षेप की लालसा रखना अन्यथा नही है। पर अधिकारी उन्हें किसकी शह से नीचा दिखाने की कोशिश करने लगे हें जो उनकी संस्तुतियों को महत्व देने की बजाय उनसे बातचीत के ओडियो वायरल करने का पराक्रम दिखा रहे है। जबकि इससे सरकार और मुख्यमंत्री की किरकिरी भी होती है। जनप्रतिनिधियों और पार्टी संगठन की सत्ता संचालन में भूमिका से न्याय किया जाना चाहिए ताकि उनका असंतोष और अधिक विस्फोटक रूप न ले सके।
अलबत्ता हाल में अधिकारियों पर ताबड़तोड़ कार्रवाइयां हुई हैं जिसके बाद लोगों के बीच यह साफ हो गया है कि सीएम योगी व्यक्तिगत रूप से ईमानदारी का शासन चाहते हैं और भ्रष्टाचार को लेकर जीरो टोलरैंस का उनका एलान दिखावटी नही है। यह भी सही है कि सरकारी सप्लाई से लेकर निर्माणकार्य और खनन तक में योगी ने गड़बड़झाला पर ऐसी मुश्के कसीं हैं कि चीजें साफ-सुथरे ढंग से चल पड़ीं हैं। लेकिन उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि प्रशासन द्वारा लोगों के इस जघन्य शोषण की रोकथाम वे नही कर पा रहे बल्कि उनके शासन में यह शोषण और ज्यादा बढ़ गया है।
1076 का हौव्वा खत्म हो चुका है लोगों में इससे निराशा घर कर रही है जिस पर ध्यान दिया जाना चाहिए। जनशिकायतों के सार्थक और वास्तविक निराकरण को सुनिश्चित करके ही यह अपेक्षा पूरी की जा सकती है। क्या इस मामले में भी योगी सरकार अपने ऊपर चस्पा फिसड्डीपन की छाप मिटाने के लिए नये वर्ष में कुछ करेगी।