न्यूज डेस्क
देश की राजनीति में अपने सियासत का लोहा मनवा चुके उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी (सपा) के सरंक्षक मुलायम सिंह यादव ने 2012 में जब अपनी राजनीतिक विरासत को अपने पुत्र अखिलेश यादव को सौंपी थी तो कुछ अच्छाईयों के साथ बुराईयां भी भेंट की थी।
2012 में सीएम की कुर्सी पर बैठते ही अखिलेश को विरासत में मुलायम सिंह का अर्जित किया हुआ अच्छे संबंध और बुरे संबंध दोनों हासिल हुए, जिस पार्टी को मुलायम ने अपने भाई शिवपाल और समाजवादी विचारधारा वाले नेताओं के साथ मिलकर खड़ी की थी, उस पर पहले से दलित विरोधी पार्टी होने का आरोप लगता रहा और गेस्ट हाउस कांड के बाद दलितों और सपा के बीच दुश्मनी बढ़ गई।
अखिलेश जब राजनीति करने उतरे तो, बिना उनके किसी दोष के, उन्हें प्रदेश के 21 फीसदी दलितों की दुश्मनी झेलनी पड़ी। सपा का राजनीतिक गणित इन 21 प्रतिशत दलितों को माइनस करके चला आ रहा था। लगभग उसी तरह जैसे बीजेपी मुसलमानों को अपने राजनीतिक गणित से माइनस करके चलती है।
उत्तर प्रदेश में हालात ऐसे हो गए थे कि जब बसपा की सरकार आती तो उस पर सपा के वोटर कहे जाने वाले यादव और मुस्लिमों को परेशान किये जाने का आरोप लगता। वहीं सपा की सरकार आती तो उसपर दलितों को परेशान करने का आरोप लगता। ऐसा लगभग दो दशक तक चला।
2012 में जब अखिलेश सूबे के मुखिया बने तो इस बदले की राजनीति को कुछ कम करने की कोशिश की। इस दौरान उनपर मुस्लिम विरोधी होने का आरोप भी लगा। हालांकि, मोदी लहर और परिवार की लड़ाई के वजह से सपा और अखिलेश यादव दोनों कमजोर हो गए और लगातार 2014 और 2019 का लोकसभा चुनाव और 2017 का विधानसभा चुनाव में हार गए।
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इस दौरान मायावती भी कमजोर हुई और 2017 में यूपी विधानसभा चुनाव में बीजेपी की प्रचंड जीत और सपा और बसपा के लगभग सफाए ने दोनों दलों को साथ आने को मजबूर कर दिया। उपचुनावों में सपा और बसपा के बीच समझदारी बनी और सभी उपचुनावों में बीजेपी हार गई। इससे उत्साहित होकर सपा और बसपा ने लोकसभा चुनाव के लिए तालमेल किया और राष्ट्रीय लोकदल को भी साथ ले लिया।
इस गठबंधन को यूपी में 38.9 फीसदी वोट मिले, जो किसी और स्थिति में बहुत शानदार प्रदर्शन का आधार बन सकता था, लेकिन यूपी के ध्रुवीकरण वाले माहौल में बीजेपी ने 49 पर्सेंट से ज्यादा वोट हासिल किए। इस वजह से गठबंधन को 80 में से सिर्फ 15 सीटें मिलीं। सपा को पिछली लोसकभा की तरह इस बार पांच सीटें मिलीं, जबकि बसपा को पिछली बार शून्य के मुकाबले 10 सीटें। गठबंधन करने से ज्यादा फायदा बसपा का हुआ है।
हालांकि, मायावती ने यादवों पर धोखेबाजी का आरोप लगाते हुए अखिलेश से अपने रिश्ते तोड़ दिए। इस बीच गठबंधन को मिले वोट साफ दिखा रहे हैं कि सपा का यादव और पिछड़ा और मुसलमान वोट बसपा उम्मीदवारों को गया है। उसी तरह दलितों ने भी सपा उम्मीदवीरों को वोट दिया है। जीत उम्मीद के मुताबिक नहीं हुई, क्योंकि बीजेपी के वोट बहुत बढ़ गया।
अखिलेश के लिए राजनीति का ये कठिन समय चल रहा है। चाचा शिवपाल से अलग होने के बाद अखिलेश मायावती से रिश्ते बनाने की कोशिश की थी लेकिन उसमें भी असफल हो गए। मुलायम बीमार चल रहे हैं और आए दिन अस्पताल में भर्ती हो रहे हैं। लेकिन इस बीच उन्होंने अपना संतुलन नहीं खोया। अखिलेश इस समय घोर निराशा के बीच अपनी पार्टी के प्रभाव विस्तार के लिए काम कर रहे हैं।
गठबंधन के टूटने के बाद अखिलेश इस समय विक्टिम नजर आ रहे हैं और इसकी सहानुभूति उन्हें मिल रही है। गठबंधन के दौरान दलित वोटरों के बीच अखिलेश की अच्छी इमेज बनी है।
इस दौरान अखिलेश ने अपने नेताओं को दलित से जुडे मामले को गंभीरता से लेने का निर्देश दिया है। साथ ही दलितों से अपने अच्छे रिश्ते बनाने के लिए दलित नेताओं के खिलाफ कुछ न बोलने की रणनीति पर काम करना शुरू कर दिया है।
मायावती के बार-बार आक्रमक बयानों के बाद अखिलेश ने उनके खिलाफ कुछ नहीं बोला। साथ ही सपा का कोई भी नेता मायावती के खिलाफ नहीं बोला। इसके अलावा चुनाव के दौरान सपा सुप्रीमो का कई मंचों से ये कहना कि ‘मायावती का सम्मान मेरा होगा’ भी कहीं न कहीं मायावती के वोट बैंक में सेंध मारी के तौर पर देखा जा रहा है। जानकारों की माने तो गठबंधन को तोड़ने की मुख्य वजह दलितों में अखिलेश की बनती अच्छी पैठ भी मानी जा रही है।
अखिलेश यादव वर्तमान में भले ही कमजोर नजर आ रहे हों लेकिन यादव-मुस्लिम वोट बैंक में दलितों का वोट जुड गया तो आगामी चुनाव में यूपी की सत्ता में सपा वापसी कर सकती है।