Wednesday - 30 October 2024 - 9:28 AM

सोनिया गांधी की इच्छा पूरी होना अब आसान नहीं

केपी सिंह

कांग्रेस के लिए यह बहुत ही चुनौतीपूर्ण दौर है। दिल्ली विधान सभा के चुनाव परिणाम में देश की मध्यमार्गीय राजनीति में एक नई शक्ति को उभार दिया है। आम आदमी पार्टी यह धारणा खत्म करने में सफल रही है कि भाजपा सरकार चलाने में तमाम विफलताओं के बावजूद अभी समय ऐसा है जिसमें कुछ दशक तक उसका जोड़ सामने आने वाला नही है। वैसे तो दिल्ली में पिछली बार भी आम आदमी पार्टी ने भाजपा का डिब्बा बड़े अंतर से गोल किया था। लेकिन तब उसके जीत के निहितार्थ सीमित थे। दिल्ली को खुद भाजपा ने राष्ट्रीय शक्ति परीक्षण का दर्जा दिया और जानते-बूझते हुए भी अपनी मट्टीपलीत इससे करा ली है।

दिल्ली के चुनावों ने यह संदेश स्थापित किया है कि भाजपा को तत्काल भी हराया जा सकता है बशर्ते कि उसके सामने सक्षम विकल्प खड़ा हो। आम आदमी पार्टी ने इसे लेकर संभावनाओं को अपनी ओर काफी सटीकता से मोड़ने में कामयाबी हासिल की है। इन हालातों में कांग्रेस में एक बार फिर अध्यक्ष पद पर राहुल बाबा की वापसी कराने की बिसात बिछाई जा रही है जिससे सोनिया गांधी मुश्किल में घिर सकतीं हैं।

देश को कांग्रेस मुक्त कर लंबे समय तक सत्ता पर कब्जा सुनिश्चित करने के लिए नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रीय राजनीति में अवतरण के साथ अपने प्रतिद्वंदी के नाभि केंद्र को लक्षित किया था। इसमें कांग्रेस का जो अमृत कुंड यानी प्राणाधार संचित था उसके चलते कांग्रेस बूढ़ी पार्टी हो जाने के बावजूद निरंतर संजीवनी प्राप्त करने में सक्षम हो रही थी। यह वंश सत्ता का अमृत कुंड था जो कुरीति होते हुए भी कांग्रेस के लिए फल गया था जिसके चलते कांग्रेस को अभी तक स्थाई रूप से सत्ता केंद्र में भेदना संभव नही हो पा रहा था। जब तक एक राष्ट्रीय विस्तार वाली पार्टी का हनन न हो जाये तब तक साम्प्रदायिक ठप्पे के कारण भाजपा के लिए निश्चिंत होकर सत्ता सिंहासन पर बैठना संभव नही हो पा रहा था।

कांग्रेस की वंश सत्ता देश के लिए कोई समस्या नही थी लेकिन मोदी-योगी नेता खड़े करके संघ ने वंश सत्ता को लेकर कांग्रेस के वजूद को ही घेर लिया। राहुल गांधी ने जबाव देने की कोशिश की कि वंशवाद की मौजूदगी सिर्फ कांग्रेस में नही है जबकि भारतीय समाज के चरित्र में है तो उनके कथन में साफगोई थी। उनका इशारा था कि भाजपा तक इस कारण वंशवाद से मुक्त नही है। लेकिन वंशवाद का पैटर्न अंततोगत्वा नये विमर्श के केंद्र में आ गया। कांग्रेस के खिलाफ आज जो फैक्टर कारगर हो रहे हैं उनमें वंश सत्ता के प्रति वितृष्णा का फैक्टर भी है। भले ही भाजपा के नेताओं को भी इसके कारण दिक्कतें पैदा हो रहीं हों जो राजनीति में वंशबेल बढ़ाते हुए अपने पुत्र-पुत्रियों की ही नही नाती-पोतों को भी प्रमोट करने में संकोच नही कर रहे थे।

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वंश सत्ता के प्रति लोगों की एलर्जी बढ़ाने में राहुल गांधी का व्यक्तित्व भी कम जिम्मेदार नही है। सोनिया गांधी पर शुरू से प्रियंका को राजनीति में आगे लाने का दबाव बनाया गया लेकिन उन्होंने साबित कर दिया कि भारत में आने के बाद वे भारतीय महिला के सच्चे अवतार में ढल चुकीं हैं। नतीजतन उन्हें गंवारा नही हुआ कि वे नेहरू परिवार की वंश सत्ता के उत्तराधिकार के लिए बेटे की बजाय बेटी को चुनें।

दरअसल राहुल गांधी शरीफ हैं लेकिन उनका मिजाज राजनैतिक नही है। खासतौर से मोदी का मुकाबला करने के लिए जिस पैनेपन और शातिरपने की जरूरत है राहुल उसके संदर्भ में अपने को अबोध ही साबित करते हैं।

इसीलिए उन पर पप्पू की पहचान मढ़ने में मोदी एण्ड कंपनी को इतनी कामयाबी मिली है। राहुल को जनता की नब्ज की पहचान नही है। मुददे चुनने और उठाने में प्रासंगिकता का ख्याल करने में वे चूक जाते हैं। अगर एक बार नफरत बनाम मोहब्बत की राजनीति के राग का रिकार्ड उनकी जुबान पर चढ़ गया तो वे उसी को बजाते रहेगें भले ही उसे कोई सुन रहा हो या न सुन रहा हो।

राजनीतिज्ञ को दो टूक और निर्मम होना चाहिए। जब उसके मन में सत्ता सर्वोपरि रहेगी तभी वह जीतने की कटिबद्धता के साथ सिंहासन की लड़ाई लड़ सकेगा। मोदी में इसकी चरम कशिश है। दूसरी ओर राहुल की वीतराग ग्रंथि उभर आती है। 2019 के लोकसभा चुनाव के निराशाजनक परिणाम के बाद कांग्रेस पार्टी अपने अध्यक्ष से मनोबल की उम्मीद कर रही थी जबकि राहुल गांधी रणछोड़ बन गये। पार्टी कहती रही कि वे अध्यक्ष पद नही छोड़ें लेकिन उसके आर्तनांद को राहुल गांधी ने अपनी पीनक में बिल्कुल नही सुना।

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राहुल गांधी द्वारा अध्यक्ष पद छोड़ने के लिए आमादा हो जाने के पीछे कोई नाटक नही था इसलिए उन्हें मनाना मुश्किल काम था। बावजूद इसके उनके अध्यक्ष पद से इस्तीफे को मंजूर करने के उपरांत भी पार्टी ने लंबा इंतजार किया कि वे फिर से यह जिम्मेदारी संभालने की रजामंदी देने के लिए पसीज जायें। राहुल गांधी जब टस से मस नही हुए तो उनकी मां सोनिया गांधी को अंतरिम अध्यक्ष चुन लिया गया। आज पूरी पार्टी को शिकायत है कि राहुल गांधी ने मझधार में उन्हें छोड़ दिया था। अवचेतन में इसकी वजह से उनके प्रति जो शिकवा उभरा था वह चेतना की सतह पर आ गया है।

कांग्रेस की अंदरूनी परिस्थितियां अब बदल गई हैं। इसलिए सोनिया गांधी की इच्छा पूरी होना अब आसान नही रह गया जो चाह रही है कि राहुल बाबा ही एक बार नेहरू गांधी परिवार की जायदाद बन चुकी कांग्रेस की सल्तनत को संभालने के लिए तैयार हो जायें और उन्होंने राहुल गांधी की इसमें हां भी करा ली है। पर अब पार्टी इसे एक झटके में मानने को तैयार नही है। संदीप दीक्षित और शशि थरूर तो सामने आ गये हैं लेकिन जो लोग चुप हैं उन दिग्गजों को भी खानदानी प्रहसन का रूप ले चुकी यह चेयर रेस स्वीकार नही हो पा रही।

लगभग पूरी कांग्रेस पार्टी राहुल गांधी के भोदूपन से आजिज आ चुकी है और चाहती है कि उन्हें दोबारा पार्टी की बागडोर सौंपने की गलती न की जाये। पर ज्यादातर दिग्गज असमंजस में हैं। हालांकि यह असमंजस कांग्रेस में ही नही दिखाई दिया है इसके पहले अटल-आडवाणी युग के अंत के संधिकाल में भाजपा भी ऐसे असमंजस से ग्रस्त हुई थी। तब संघ ने एक झटके में सारे बूढ़ों को रिटायर करके गुजरात के राज्य स्तरीय नेता नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में नई शुरूआत का पक्का इरादा जाहिर कर दिया था तो ज्यादातर भाजपाइयों को लगा था कि पार्टी आत्मघाती दांव खेल रही है। पर वे ही अर्जुन वे ही बान की स्थिति सामने आ गई।

नरेंद्र मोदी ने अपने पैर मजबूती से जमाने के बाद पार्टी के तमाम जड़दार नेताओं को अपने दरबारी बिठाकर एक किनारे कर दिया। उन्होंने जब हैवीवेट नेताओं को पृष्ठभूमि में धकेला तो उनके समवेत विद्रोह का तूफान भी बेअसर रहा। आडवाणी और डाक्टर मुरली मनोहर जोशी ने खामोश बैठ जाने की अपनी नियति को कभी का स्वीकार कर लिया है।

जब लालकृष्ण आडवाणी को नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रपति तक नही बनने दिया था तो पार्टी का एक बड़ा वर्ग उनकी कृतघ्नता पर उद्वेलित हो गया था। पर अंततोगत्वा मोदी बड़ी लाइन खीचते चले गये और उनके खिलाफ गुबार ठंडा पड़ गया। यशवंत सिन्हा का विद्रोह भी फुसफुसा साबित हुआ। बावजूद इसके कि उनके और सुब्रमण्यम स्वामी जैसे नवरत्नों की उपेक्षा से आर्थिक मोर्चे पर मोदी की सरकार ने देश को रसातल में पहुंचा दिया है।

परमुखापेक्षी कांग्रेसियों को भी इतिहास के ऐसे क्रूर इंसाफ से दो-चार होना पड़ सकता है। जिसकी संभावना को लेकर वे बुरी तरह विचलित हैं। पर शायद भाजपा की नियति कांग्रेस में भी दोहराई जाने का अवसर आ गया है। यह पार्टी के लिए नये सृजन की प्रसव वेदना का भी क्षण हो सकता है या आप जैसी राजनीतिक शक्ति के नवोदय के साथ बढ़ती आप्रासंगिकता के कारण उसके इतिहास के गर्त में समाने का भी।

भाजपा के पैरों तले की जमीन जीडीपी, मंहगाई और लचर गवर्नेंस के मोर्चे पर उसकी चिंतनीय विफलता के कारण गहराने पर आ गई है। लोग विकल्प की तलाश में हैं लेकिन लोग न तो कांग्रेस को फिर अजमाने को तैयार हैं न ही दूसरे संकीर्ण दृष्टि वाले क्षेत्रीय दलों पर दांव लगाने को तैयार हैं। कांग्रेस वैकल्पिक राजनीति का व्याकरण सही तरीके से रच भी नही पा रही है। इस विफलता के कारण वह अंतिम कगार पर जा पहुंची है। अगर नियति के दबाव में उसे मजबूर कर दिया और वह नये रास्ते पर चलने का साहस दिखा सकी तो उसकी विफलताओं का एक बड़ा कारक यानी वंश सत्ता के साये से उसे छुटकारा मिल जायेगा। अन्यथा वामपंथी दलों की तरह कांग्रेस भी इतिहास के कूड़ेदान में दफन हो जायेगी।

जातिगत राजनीति जैसी बहुत सी खरपतवारें जो प्रगतिवाद में रुकावट बन गईं थीं इतिहास ने उनकी सफाई भाजपा के जरिये करा डाली। लेकिन यह भी ध्यान रखे जाने की जरूरत है कि इस देश में एक पक्षीय कट्टरता की राजनीति के चलने के लिए बहुत दिन गुंजाइश नही है। सो मध्य मार्ग ही यहां अल्टीमेट रास्ता है। नागरिक चेतना के विकास का मंत्र फूंकता जो विकल्प देश को चाहिए आम आदमी पार्टी में वह प्रस्फुटित दिख रहा है। कोई आश्चर्य नहीं है कि वक्त के तकाजे के कारण अगले लोकसभा चुनाव तक अन्य विपक्षियों के ध्वंसावशेषों पर राष्ट्रीय स्तर तक उसकी बुलंद इमारत तैयार हो जाये। इसलिए कांग्रेस का यह निर्णायक दौर बेहद दिलचस्प लग रहा है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेख में उनके निजी विचार हैं)

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