राजीव ओझा
बड़ी तिलिस्मी हो चली है कांग्रेस की कहानी। विक्रम और बेताल का खेल 77 दिन तक चला और अंततः बेताल फिर डाल पर। कांग्रेस में एक नहीं कई बेताल हैं जो एक-दूसरे की टांग खींचते रहते हैं। लोकसभा चुनाव हारने के बाद राहुल गाँधी जिद्दिया गए थे कि अब अध्यक्ष नहीं बनेंगे। पूरे देश भर में अध्यक्ष की खोज ढाई महीने से अधिक चली। इस दौरान मल्लिकार्जुन खड्गे, मुकुल वासनिक, जतिन पायलट, ज्योतिरादित्य सिंधिया, गुलामनबी, दिग्विजय सिंह, सुशिल कुमार शिंदे यहाँ तक कि मोतीलाल वोरा तक नए-पुराने कांग्रेसी चावलों पर चर्चा हुई। लेकिन सुई बार बार सोनिया, प्रियंका और राहुल पर टिक जाती थी।
राहुल के इस्तीफे के 77वें दिन कांग्रेस कार्यसमिति ने बैठक में कार्यसमिति के पांच समूहों की रिपोर्ट और नेताओं से रायशुमारी में सोनिया का नाम ही अंतरिम अध्यक्ष के तौर पर सहमति जताई। सोनिया ने पहले मना कर दिया था लेकिन नेताओं की मनुहार पर “हां” कर दी।
लोकतंत्र के लिए असीमित शक्ति अच्छी नहीं
कांग्रेसियों और गैर कांग्रेसियों को पहले ही पता था कि ये तो होना ही था। कुल मिला कांग्रेस में चारण युग का अभी अंत नहीं हुआ है। कांग्रेस रसातल में जा रही है। बीजेपी के लिए यह ख़ुशी की बात हो सकती है लेकिन लोकतंत्र के लिए यह अत्यंत चिंता का विषय है।
देश में इस समय बीजेपी अत्यंत सशक्त हैं। वर्तमान हालातों में यह जरूरी भी है। लेकिन लम्बे समय तक किसी एक पार्टी अत्यंत शक्तिशाली रहना एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं है। आपको याद होगा कि सत्तर और अस्सी के दशक में कांग्रेस भी इतनी ही ताकतवर थी। लेकिन उसके बाद क्या हुआ यह किसी से छिपा नहीं। यहाँ मसला किसी एक पार्टी के समर्थन और दूसरी के विरोध का नहीं है।
आशय सिर्फ इतना है कि कांग्रेस या किसी अन्य राजनीतिक दल के पास कम से कम इतनी ताकत जरूर होनी चाहिए कि वह सत्तारूढ़ दल को निरंकुश न होने दे। अंतरविरोधों वाले राजनीतिक गठबंधन सशक्त विपक्ष की भूमिका प्रभावशाली ढंग से नहीं निभा सकते यह बार-बार सिद्ध हो चुका है। भारतीय लोकतंत्र के लिए यही सबसे बड़ी चिंता का विषय है।
“चारण संस्कृति” कांग्रेस के लिए दुर्भाग्यपूर्ण
कांग्रेस पार्टी, गांधी परिवार प्राइवेट लिमिटेड के कवच से बहार निकल ही नहीं पा रही है। इसमें न तो सोनिया गाँधी का दोष है न राहुल गांधी का और न ही हल्ला मचाने वाले नेताओं का। सारा दोष कांग्रेस की उस ‘चापलूस संस्कृति’ का है जो पिछले चार दशक में धीरे धीरे पनपी। कांग्रेस की सारी राजनीति गांधी परिवार के इर्दगिर्द घूमती रही और अब भी घूम रही है। कांग्रेस का यह संक्रमण काल है। नेहरू-गांधी परिवार के पुराने “लॉयलिस्ट” नटवर सिंह को लगता है की गांधी परिवार है तो कांग्रेस है। ऐसा ही ढेर सारे वरिष्ठ, कनिष्ठ नेताओं और कार्यकर्ताओं का भी मानना है। यह 134 साल पुरानी पार्टी के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है।
मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और पंजाब में कांग्रेस की सरकारें हैं। लेकिन राजनीति की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण प्रान्त उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की एकमात्र लोकसभा सदस्य और अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गाँधी के लिए कांग्रेस को फिर से खड़ा करना सबसे बड़ी चुनौती है।
कांग्रेस के इतिहास पर नजर डालें तो 1998 में सोनिया गाँधी पहली बार कांग्रेस अध्यक्ष बनीं। सोनिया गांधी करीब दो दशक तक अध्यक्ष रहीं। लेकिन उनके नेतृत्व में कांग्रेस कभी अपने बल पर केंद्र में पूर्ण बहुमत नहीं प्राप्त कर सकी। अब अंतरिम अध्यक्ष के रूप में वो कांग्रेस को फिर से कितनी मजबूती दे सकेंगी या कोई मजबूत अध्यक्ष दे सकेंगी, यही सबसे बड़ा सवाल है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेख उनके निजी विचार हैं)
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