के पी सिंह
इसी सप्ताह प्रतापगढ़ में विहिप के तहसील अध्यक्ष की हत्या और जालौन जिले के कालपी कस्बे में दरगाह परिसर में गोकशी को लेकर हल्का फुल्का तनाव पैदा होने के मामलों में शासन ने तुरत फुरत दोंनों जिलों के पुलिस कप्तान हटा दिये थे। लेकिन सोनभद्र में 10 आदिवासियों के नरसंहार के मामले को राज्य सरकार रोजमर्रा की घटना मान रही है जबकि पुलिस की स्पष्ट लापरवाही के कारण हुए इस भीषण खून खराबे को लेकर शीर्ष स्तर तक के अधिकारियों को जबावदेही के सिद्धांत के तहत नाप दिया जाना चाहिए था।
राज्य सरकार संवैधानिक प्रतिबद्धताओं को महत्व देने की बजाय विशिष्ट एजेंडे पर काम कर रही है। सोनभद्र कांड के संदर्भ में उसका ढ़ीला पोला रूख इस तथ्य को उजागर करता है।
संविधान में कमजोर वर्ग के लोगों की सुरक्षा और संरक्षण पर बहुत बल दिया गया है। अभी तक की सरकारें कमोबेश इसे ध्यान में रखते हुए ही कमजोर वर्ग से संबंधित मामलों में कड़ी कार्रवाई दर्शाती रही हैं लेकिन अब यह स्थिति बदल गई है। मृतकों के आश्रितों को कोई सहायता भी नहीं दी गई है। उन्हें किसान बीमा का जो पांच लाख रूपये कानूनी अनुमन्य है उसी रकम को उनके लिए राज्य सरकार की सहायता के बतौर प्रचारित किया जा रहा है।
उधर उत्तर प्रदेश अनुसूचित जाति/जनजाति आयोग ने इस मामले में जिस तरह अपने स्तर से कड़ी निगरानी शुरू की है उससे आयोग की भी खिन्नता का पता चलता है। आयोग के सभापति और पूर्व डीजीपी बृजलाल ने साफ कहा है कि पुलिस और प्रशासन की लापरवाही की बजह से यह कांड घटित हुआ है। उन्होंने आयोग के उपाध्यक्ष मनीराम कौल व रामसेवक खारवार की टीम को मौके पर भेजा है जो घायलों और पीड़ितों से बात करके जांच रिपोर्ट तैयार कर बृजलाल को सौपेगी। आयोग को स्वयं नरसंहार के आरोपितों के खिलाफ एनएसए की कार्रवाई करने के निर्देश जारी करने पड़े।
डीजीपी कर रहे पुलिस की भूमिका में लीपापोती
दूसरी ओर राज्य के डीजीपी इसमें पुलिस की भूमिका की लीपापोती में लगे हैं। उन्होंने यह कहकर पुलिस को क्लीन चिट देने की कोशिश की है कि पुलिस ने पर्याप्त एहतियाती कार्रवाई की थी। सामूहिक हत्याकांड के मुख्य आरोपी यज्ञदत्त गुर्जर को इसके तहत 107/116 में पाबंद किया गया था। उसके खिलाफ कुर्की का आदेश भी न्यायालय से प्राप्त कर लिया था। कुर्की होती उसके पहले ही यह कांड हो गया लेकिन तथ्य प्रधान को पुलिस की शह की बात चीख-चीख कर कह रहे हैं।
अनु0जाति/जनजाति आयोग की रिपोर्ट आने के बाद अगर राज्य सरकार को पुलिस अफसरों के खिलाफ कार्रवाई करनी पड़ी तो उसकी बहुत फजीहत होगी जबकि अगर वह पूर्वाग्रह और दुराग्रह से पीड़ित न होती तो यह काम गोकशी के मामलों की तरह तत्काल कर डालती।
सरकार ने समाधान दिवस के ढ़र्रे में बदलाव की जहमत नहीं की
राजस्व प्रबंधन का अमला तो पहले से ही जमीन खोरों की कठपुतली बना हुआ है। अखिलेश सरकार के जमाने से महीने में दो शनिवार भूमि विवादों के निस्तारण के लिए थानों पर समाधान दिवस आयोजित हो रहे हैं लेकिन इच्छा शक्ति के अभाव में इनकी कोई सार्थकता स्थापित नहीं हो पाई है। योगी सरकार ने भी समाधान दिवस के ढ़र्रे में बदलाव की जहमत नहीं उठाई। जैसा कि होता है कि हर बड़े कांड के बाद नींद में गाफिल रहने वाला सरकारी अमला जागकर हाथ पैर मारने लगता है।
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इसी दस्तूर के मुताबिक उत्तर प्रदेश राजस्व परिषद भी सोनभद्र में 10 लाशें गिरते ही हरकत में आ गया। राजस्व परिषद के सभापति प्रवीण कुमार ने अब सोनभद्र के डीएम अंकित कुमार अग्रवाल से रिपोर्ट तलब की है। साथ ही पूरे प्रदेश के भूमि विवादों की समीक्षा का फैसला लिया है। इसमें पता चला है कि राजस्व परिषद में ही पांच वर्ष से अधिक समय से लंबित भूमि विवादों की संख्या 77377 है।
दूसरा सबसे बड़ा जिला सोनभद्र
सोनभद्र उत्तर प्रदेश का दूसरा सबसे बड़ा जिला है। कैमूर के जंगल और पहाड़ियों से घिरे इस जिले की सीमा चार प्रदेशों बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ से जुड़ती है। जिले में 70 प्रतिशत आबादी आदिवासियों की है। उत्तर प्रदेश के नक्सल प्रभावित जिलों में सोनभद्र का नाम कुछ वर्षो पहले तक आगे रहा है। जाहिर है कि सोनभद्र की संवेदनशीलता से राज्य सरकार बखूबी परिचित है फिर भी वहां की समस्याओं और स्थितियों की शासन स्तर पर अलग से मानिटरिंग की जो व्यवस्था होनी चाहिए उसका ख्याल नहीं रखा जा रहा है। जबकि ताजा नरसंहार से नक्सलियों को यहां एक बार फिर पनपने का मौका मिलने की आशंका है जिस पर शासन को अब बहुत गौर रखना पड़ेगा।
आनन फानन पुलिस ने की गिरफ्तारी
उधर शासन की नाक बचाने के लिए पुलिस अब सोनभद्र नरसंहार के आरोपितों पर कार्रवाई के मामले में पूरी फुर्ती दिखा रही है। इसी का नतीजा है कि उम्भा गांव के प्रधान और हत्याकांड के मुख्य सरगना यज्ञदत्त गुर्जर व उसके भाई धर्मेन्द्र गुर्जर सहित 10 लोग आनन फानन गिरफ्तार कर लिये गये हैं लेकिन सरकार को इस बात पर गौर करना होगा कि कानून व्यवस्था के मामले में लापरवाही पर सीधे दो कप्तानों को हटाने की उसकी कार्रवाई का कोई इंपैक्ट क्यों नहीं हुआ जबकि पुलिस को इन कार्रवाइयों के बाद कम से कम महीना भर तो प्रदेश भर में अलर्ट मोड पर रहना ही चाहिए ही था।
मूल समस्या यही है कि प्रदेश में पेशेवर पुलिसिंग का अभाव हो गया है। मुह देखी कार्रवाइयों ने पुलिस को दिशाहीन बना दिया है। साथ ही जबावदेही के सिद्धांत की अनदेखी से भ्रष्टाचार चरम सीमा तक पहुच जाने के कारण पुलिस का कोई खौफ अपराधियों, माफियाओं और अराजक तत्वों पर नहीं रह गया है।