कुमार भवेश चंद्र
बात कड़वी है और लेकिन ये सवाल इस वक्त उठने शुरू हो गए हैं। संकट की घड़ी में सियासत और सवाल चुभते हैं, लेकिन वह सवाल ही क्या जो वक्त पर नहीं उठाया गया हो। सवाल है क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश में लॉकडाउन का ऐलान करने से पहले कैबिनेट की बैठक की थी?
क्या प्रधानमंत्री ने इस बात की जरूरत समझी कि इस तरह का ऐतिहासिक फैसला करने से पहले कैबिनेट के अपने साथियों की राय ले ली जाए? लॉकडाउन में रेल, विमानन से लेकर परिवहन तक का वास्ता था। तो क्या इन मंत्रालयों का काम देख रहे मंत्रियों की राय को शामिल किया गया?
लोकतंत्र में विपक्ष की भी अपनी जगह है। ऐसी विषम परिस्थितियों में तो उनकी सलाह भी लेना जरूरी होना चाहिए था। लेकिन अभी तक जो जानकारी सामने है, उससे ऐसा आभास नहीं मिल रहा कि इतनी माथापच्ची की गई।
वैसे तो प्रधानमंत्री के कार्यालय काफी सशक्त है और विशेषज्ञों की एक बड़ी टीम उनके साथ काम करती है। लेकिन राष्ट्र के नाम प्रधानमंत्री के संदेश में ऐसी जानकारी नहीं दी गई कि ऐसा करते हुए किन तथ्यों पर गौर करने की कोशिश हुई।
ये सवाल इसलिए भी उठ रहे हैं क्योंकि लॉकडाउन के बाद पूरे देश में हालात बेकाबू हुए। संक्रमण को पसरने से रोकने के लिए ‘जो जहां है वहीं रहे’ का संदेश विफल हो गया।
सभी राज्यों या शहरों में रह रहे बाहरी लोग अचानक अपने शहरों की ओर रवाना होने के लिए उठ खड़े हुए। तकरीबन 48 घंटे से भी अधिक समय तक स्थिति प्रशासन के लिए बेकाबू सी हो गई।
आनंद विहार और आसपास के इलाकों में इस अफरातफरी को तो पूरे भारत ने टीवी के जरिए देखा। लेकिन देश के बाकी हिस्सों में भी ऐसी ही स्थिति आज भी दिख रही है।
दो शहरों को जोड़ने वाली किसी सड़क पर निकल जाइए। सामान सिर पर उठाए नौजवानों, महिलाओं-बच्चों और बुजुर्गों का झुंड दिख जाएगा। ये सब अपने गांव की यात्रा पर निकल चुके हैं।
कुछ पहुंच चुके हैं कुछ पहुंचने वाले हैं। और जो देर से फैसला कर सके, वह अभी भी दिख रहे हैं। उनकी हालत कुछ ऐसी ही है जैसे सावन के समय में शिवभक्तों की देखी जाती है। थके और हार चुके पांव से वह अपने लक्ष्य की बढ़ते हुए दिख रहे हैं।
बात इतनी सी नहीं है। इस तरह के आपात स्थिति आने पर सामूहिक निर्णय का सवाल इसलिए भी उठ रहे हैं, क्योंकि सामूहिकता के साथ समस्या के अलग-अलग पहलुओं को देखने और समझने की गुंजाइश अधिक रहती है।
इस तरह का फैसला करते हुए अलग-अलग दृष्टिकोणों को जानना अहम हो जाता है क्योंकि भविष्य में पैदा होने वाली दिक्कतों और चुनौतियों को कोई एक व्यक्ति समग्रता में समझ पाए इसकी गुंजाइश कम ही रहती है।
हर विषय के जानकार का नजरिया अलग हो सकता है। और कठोर और कठिन फैसले करते हुए सभी पहलुओं और सभी तरह के नजरिया को ध्यान में रखने से गफलत की गुंजाइश कम रहती है।
कोरोना के संक्रमण की ये लड़ाई लंबी है। भविष्य की चुनौतियां भी अभी भी नए रूप में सामने आने वाली है। देश के लॉकडाउन जैसे कठिन कई और फैसले करने होंगे। मुमकिन है प्रधानमंत्री आने वाले समय में ऐसा फैसला करते हुए अवश्य इस बात का ध्यान रखेंगे ताकि आने वाले समय में देश से माफी मांगने की जरूरत नहीं हो।
अब बात यूपी की। कोरोना संकट से उपजे हालातों से लड़ने में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने अद्भुत कौशल और सक्रियता का परिचय दिया है। वे लगातार अफसरों के साथ बैठकें कर रहे हैं। स्थिति की समीक्षा कर रहे हैं। फैसले कर रहे है। उन्हें जमीन पर लागू करने के लिए सख्ती दिखा रहे हैं। इस आपात स्थिति में उनकी इस सक्रियता की तारीफ उनके आलोचक भी कर रहे हैं।
लेकिन मंत्रिमंडल के साथियों के साथ मशविरे की कोई जानकारी नहीं आना यहां भी वही सवाल उठा रहा है? ऐतिहासिक आपदा की इस स्थिति में भी उनके दो दो डिप्टी का मोर्चे पर सक्रियता को लेकर विपक्ष भविष्य में जरूर सवाल करेगा। सभी प्रमुख विभागों के प्रमुख सचिव अहम रोल में दिख रहे हैं लेकिन उन्हीं विभागों के मंत्रियों की भूमिका उस तरह सामने नहीं है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में ये सवाल मामूली नहीं हैं।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार है , ये उनके निजी विचार हैं
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति Jubilee Post उत्तरदायी नहीं है।)