रूबी सरकार
मध्यप्रदेश सीहोर जिले के ढाबा गांव की निम्न मध्यमवर्गीय 34 वर्षीय लड़की निरूफा खान की पढ़ाई जल्दी शादी होने की वजह से बीच में ही छूट गई थी।
हालांकि शादी के वक्त ससुराल वालों ने वादा किया था, कि वह निरूफा की पढ़ाई जारी रखेंगे, परंतु वे अपने वादे पर खरे नहीं उतरे। इधर निरूफा के मन में पढ़ाई की ललक बनी रही।
लेकिन उसने इस पर कभी ससुराल वालों से खुलकर बात नहीं की। उसे डर था, कि कहीं इस बात को लेकर विवाद न खड़ा हो जाये। जब निरूफा के पति मोहम्मद उबेश खान का धंधा शहर में मंदा पडने लगा, तो उन्होंने सोचा, कि शहर से दूर गांव जाकर डॉक्टरी की जाये।
अचानक उबेश ने तय किया, कि ढाबा गांव में डिस्पेंसरी खोलेंगे और वहीं रहकर गांव वालों का इलाज करेंगे। उन्होंने अपने तीनों बच्चों और पत्नी को साथ लेकर घर से लगभग 100 किलोमीटर दूर ढाबा गांव पहुंचा और वहां एक घर किराये पर लेकर परिवार के साथ रहने की व्यवस्था की । इसके बाद उन्होंने गांव में डिस्पेंसरी खोला और गांव वालों की छोटी-मोटी बीमारियों का इलाज करने लगा।
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निरूफा घर पर रहकर रचनात्मक कामों में व्यस्थ हो गई। धीरे-धीरे उसकी दोस्ती आस-पास की महिलाओं से होने लगी। उसने देखा, कि प्रायः गांव की महिलाएं इकट्ठी होकर बैठक करती हैं। उसके मन में जिज्ञासा उत्पन्न हुई ।
आखिर एक दिन उसने समूह की अध्यक्ष नीलम साहू से पूछ लिया, कि चाची आपलोग इस बैठक में क्या करती हैं। तब नीलम ने उसे तुलसी स्व सहायता समूह के बारे में विस्तार से बताया और उसे सदस्य बनने के लिए प्रेरित किया।
चाची के समझाने पर निरूफा तुलसी समूह की सदस्य बन गई। सदस्य बनते ही उसने पहली बार समूह से 5000 रूपए कर्ज लिया और एक सिलाई मशीन खरीद लायी, जिससे वह टेलरिंग का काम करने लगी।
धीरे-धीरे उसके सिलाई किये हुए कपड़ों के चर्चे गांव मेें फैलने लगी। और गांव में अधिकतर परिवार निरूफा के डिजाइन किये हुए कपड़े पहनने लगे।
इस तरह निरूफा का धंधा बढ़ने लगा। जब सिलाई मशीन का कर्ज अदा हो गया, तो उसके मन में पढ़ाई की दबी इच्छा फिर से उभरने लगी। उसने समूह की बैठक में पूछ लिया, कि क्या उसे अपनी पढ़ाई के लिए भी कर्ज मिल सकता है। जानकारी मिलने के बाद उसने समूह से दोबारा बीए की पढ़ाई के लिए 15 हजार रूपये कर्ज लिया।
वर्तमान में निरूफा प्रतिष्ठित बरकलउल्ला विश्वविद्यालय से बीए की पढ़ाई कर रही है। निरूफा की पढ़ाई के प्रति लगन को देखकर गांव की अन्य महिलाएं प्रेरित हुई। समूह की महिलाएं भी अपनी लड़कियों को उच्च शिक्षा के लिए गांव से दूर शहर में स्थित कॉलेज भेजने लगी।
इसी गांव की कृष्णा स्व सहायता समूह की सदस्य शीला जाटव की बेटी शीतल जाटव बीए की पढ़ाई के लिए रोज अपने गांव से लगभग 100 किलोमीटर दूर राजधानी भोपाल आती हैं।
शीला ने बताया, कि वह सुबह 8 बजे कॉलेज के लिए घर से निकलती है और देर शाम गांव वापस आती है। कॉलेज के लिए उसे बस बदल-बदल कर जाना पड़ता है।
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यहां परिवहन की इतनी सुविधा नहीं है। वक्त के पन्नों को थोड़ा पलटें तो यह गांव पहले ऐसा नहीं था। यहां बिल्कुल विपरीत स्थिति थी । शीला ने कहा, पहले गांव वाले 12वीं के बाद लड़कियों को दूर पढ़ने के लिए नहीं भेजते थे, उनके मन में अनहोनी का डर था।
समूह की बैठकों में आने-जाने से यहां की महिलाओं की समझ बढ़ी है, उनकी झिझक खत्म हुई। उनमें हिम्मत भी आईं और वे जागरूक भी हुई हैं। अब उन्हें समझ आ गया है, कि बेटियों को पढ़ाना जरूरी है।
यहां सभी परिवार चाहते हैं, कि उनकी बेटी खूब पढ़े आगे बढ़े। इसी तरह निकिता साहू ने 8वीं के बाद ही आगे की पढ़ाई के लिए गांव से 100 किलोमीटर दूर राजधानी भोपाल आ गई थी।
छोटी सी किशोरी निकिता एक साधक की तरह कमरा किराये पर लेकर यहीं अकेले रहने लगी । बचपन से ही वह इंजीनियर बनना चाहती थी। इस साल उसने इंजीनियर की पढ़ाई पूरी की ।
अब वह नौकरी की तलाश कर रही है। इससे पहले सरोज और शाईन पठान ने भी बीए की पढ़ाई पूरी कर गांव में मिसाल कायम कर चुकी हैं। आज दोनों नौकरी कर परिवार का सहारा बन चुकी हैं।सलमा पठान और पूजा जाटव कॉलेज की पढ़ाई के लिए रोज 50 किलोमीटर आना-जाना करती हैं। इसके अलावा गांव की हर बेटी दसवीं तक पढ़ने के लिए 12 किलोमीटर का साईकिल से सफर तय करती है।
दरअसल यह हैरतअंगेज परिवर्तन स्वस्ति संस्था की सोच के कारण उपजा है। संस्था वर्ष 2017 को वंचित समुदाय को स्वास्थ्य और सशक्त बनाने के उद्देश्य से सीहोर जिले के दो विकासखण्डों क्रमशः बुदनी और नसरूल्लागंज में काम करना शुरू किया।
वंचित समुदाय की महिलाओं को सशक्त बनाने की दिशा में जब संस्था ने यहां विभिन्न माध्यम से प्रयास शुरू किए थे, उस समय महिलाएं घरों के अंदर सिमटी रहती थीं या पति के साथ बाहर मजदूरी के लिए जाती थीं।
इसका उन महिलाओं के सेहत पर असर पड़ता था। न वे खुलकर अपनी परेशानी बता नहीं पाती थी और न ही उन्हें सरकारी सुविधाओं की जानकारी थी। स्वस्ति संस्था की वेलनेस डायरेक्टर संतोषी तिवारी बताती हैं, कि शिक्षा की राह में अक्सर गरीबी सबसे बड़ा रोड़ा बनती थी।
इसलिए जब समूह बनाकर महिलाओं ने अपना व्यवसाय शुरू किया, तो उन्हें आर्थिक संबल मिला । उनका आत्मविश्वास बढ़ा। यही वजह है, कि वे आज निर्णय ले पा रही हैं। उन्होंने कहा, जब गांव में शिक्षा के सूरज का उदय होगा, पिछड़ी सामाजिक सोच का अंधेरा अपने आप छंटने लगेगा।
उल्लेखनीय है, कि यह आदिवासी बाहुल्य गांव हैं। यहां 98 आदिवासी परिवार , 6 अनुसूचित जाति और मात्र एक पिछड़ी जाति परिवार निवास करते हैं।
लगभग 921 आबादी वाले इस गांव में पुरुषों की संख्या 469 और महिलाएं 452 हैं। पिछड़ा और साधनविहिन क्षेत्र होने के बावजूद लड़कों की अपेक्षा लड़कियों में पढ़ाई की ललक देखते ही बनती है।