जुबिली न्यूज डेस्क
इस मुल्क में लड़की होना गुनाह है। शायद इसीलिए इनके मरने पर कोई मातम नहीं करता बल्कि खुदा की मर्जी समझकर लोग आगे बढ़ जाते हैें। और तो और लड़कियों के मरने पर कहते हैं कि लड़की ही तो हैं, मर गई, अल्ला की मर्जी।
पाकिस्तान के सिंध प्रांत में लाड़काना के शेख जायद चिल्ड्रन अस्पताल चर्चा में है। यह अस्पताल इसलिए चर्चा में हैं क्योंकि यहां कई लोग अपनी नवजात बच्चियों को अस्पतालों में छोड़ कर जा रहे हैं या फिर ऐसी हालत में घर लेकर जाते हैं जिनमें उनका ज्यादा दिन बचना मुमकिन नहीं होता।
पाकिस्तान के दक्षिणी प्रांत सिंध में ग्रामीण इलाकों में रहने वाले लोग लाड़काना के शेख जायद चिल्ड्रन अस्पताल में ही अक्सर इलाज के लिए आते हैं। इसीलिए इस अस्पताल में नन्ही बच्चियों को छोड़े जाने के सबसे ज्यादा मामले देखने को मिले हैं।
जानकार बच्चियों को लावारिस छोडऩे जाने के दुखद और निदंनीय कदम के पीछे समाज को जिम्मेदार मानते हैं। उनका मानना है कि समाज में बेटियों को लेकर जो पुरानी सोच है वह जिम्मेदार है। जैसे बेटियां बोझ होती हैं।
सिर्फपाकिस्तान ही नहीं भारत जैसे तमाम मुल्क है जहां आज भी बेटियां बोझ मानी जाती है। बेटियों पर बेटे को तरजीह दी जाती है।
मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक चंद महीने पहले शेख जायद चिल्ड्रन अस्पताल में नन्ही सायरा को गंभीर हालत में भर्ती कराया गया था। इलाज के बाद सायरा ठीक हो गई लेकिन उसके परिजन अस्पताल में उसे लावारिस छोड़कर चले गए। अस्पताल प्रशासन को ऐसी कई और बच्चियों के बारे में पता चला।
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हालांकि अन्य बच्चियों के मामले में नन्ही सायरा खुशकिस्मत रही। वह ना सिर्फ पूरी तरह ठीक हो गई बल्कि अस्पताल की ही एक नर्स ने सायरा को गोद भी ले लिया।
जामिया बेनजीर भुट्टो मेडिकल यूनिवर्सिटी और शेख जायद चिल्ड्रन अस्पातल के प्रमुख प्रोफेसर सैफुल्लाह जामड़ू ने इस मामले में न्यूज पोर्टल डीडब्ल्यू से बताया कि इस साल कई माता पिता अपना नाम और पता गलत लिखवा कर नवजात बच्चियों को अस्पताल में छोड़कर लापता हो गए।
उन्होंने कहा कि गंभीर हालत के कारण छह में पांच बच्चियां मर गईं, जिन्हें पुलिस और राहत संस्था ईधी सेंटर की मदद से दफना दिया गया। इस साल यहां छोड़ी गईं नवजात बच्चियों में से सिर्फ एक ही बच्ची ऐसी है जिसे ईधी सेंटर की मदद से अस्पताल में एक नर्स ने गोद ले लिया है।”
वह नन्ही सायरा की बात कर रहे थे।
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वहीं कारणों को गिनाते हुए प्रोफेसर सैफुल्लाह कहते हैं कि हमारे समाज में लड़कों के मुकाबले लड़कियों को बोझ समझा जाता है। जब लड़की पैदा होती है तो माता पिता सोचते हैं कि इस पर तो हमें खर्चा करना होगा। पहले इसको पालना है, पढ़ाना लिखाना है और फिर उसकी शादी पर खर्च करते हुए उसे दूसरे परिवार को सौंपना है। चूंकि हमारे यहां गरीबी है और स्वास्थ्य सुविधाएं भी महंगी हैं। इसलिए लोग बेटियों पर खर्च करने से बचते हैं।”
शेख जायद चिल्ड्रन अस्पताल में ऐसे कई मामले आए हैं जो लोगों की पिछड़ी सोच को उजागर करते हैं। उन्हें बेटियों की मौत पर कोई अफसोस नहीं होता है। वह अपनी बेटियों को अस्पताल से ऐसी हालत में ले जाते हैं जब उनको पता होता है कि वह बचेगी नहीं।
ग्रामीण इलाकों के लोग अपने बच्चों को इसलिए अस्पताल लेकर आ जाते हैं ताकि समाज में लोगों को दिखा सकें कि वे अपनी बच्ची को इलाज के लिए लेकर गए थे, लेकिन जल्द ही वे आर्थिक हालात के हाथों मजबूर या फिर कभी परेशान होकर बच्चों को घर ले जाते हैं।
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शेख जायद चिल्ड्रन अस्पताल के इमरजेंसी वार्ड में डॉक्टर अब्दुल्लाह असर चांडियो इसकी पुष्टिï करते हैं। वह कहते हैं कि अस्पताल में सिर्फ बच्चियों को लावारिस ही नहीं छोड़ा जाता है, बल्कि ऐसे केस भी सामने आए हैं जिनमें बां-बाप यह जानते हैं कि अगर वे बच्ची को अस्पताल से ले गए, तो उसका मरना स्वाभाविक है। फिर भी वे डॉक्टर की सलाह के खिलाफ जाकर बच्चियों को घर ले जाते हैं।
डॉ असर कहते हैं कि ऐसे मामले हजारों की तादाद में हैं और ऐसे ज्यादातर मामले बच्चियों से जुड़े होते हैं। वह कहते हैं, “हमारे रिकॉर्ड के मुताबिक 80 फीसदी लड़कियां और 20 फीसदी लड़के होते हैं, जिनके माता पिता डॉक्टर के मना करने के बाजवूद अपने बच्चों को अस्पताल से ले जाते है। ” सिर्फ अगस्त से सितंबर के बीच ऐसे 19 मामले दर्ज किए गए हैं।
वह कहते हैं कि कभी माता पिता ढंके छुपे शब्दों में तो कभी खुलकर यह कहते हुए अपनी बच्चियों को घर ले जाते है कि “लड़की ही तो है, मर भी जाएगी तो क्या हुआ। खुदा ने बचा लिया तो बचा लिया, वरना क्या कर सकते हैं। परिवार में और भी बेटियां हैं। मर गई तो खुदा की मर्जी।”
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अस्पताल के डॉक्टरों के अनुसार ग्रामीण इलाकों में बेटियों को लेकर जो सोच पाई जाती है, उसे बदलने की जरूरत है। इसके अलावा बच्चियों को लावारिस छोड़े जाने के खिलाफ कानून भी सख्त किए जाने की जरूरत है।