न्यूज डेस्क
समय कैसे बदलता है, इसको देखना है तो महाराष्ट की ओर रुख करते हैं। एक दौर था जब महाराष्ट्र की राजनीति में बाला साहेब ठाकरे की तूती बोलती थी। बीजेपी के मुकाबले शिवसेना के दबदबे का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि बाला साहेब ने जो कह दिया वहीं अंतिम वाक्य बना और बीजेपी को नतमस्तक होकर उसे मानना पड़ता था। अब वर्तमान स्थिति का आंकलन करते हैं।
यह उद्धव ठाकरे की शिवसेना है। उनका न तो बाला साहेब जैसा रूतबा है और न ही बीजेपी वैसी स्थिति में हैं जैसी वह बाला साहेब के समय में थी। यह अमित शाह की बीजेपी है।
अमित शाह के बीजेपी का अध्यक्ष बनने के बाद बीजेपी नए रूप में हैं। एक वक्त था जब शिवसेना, बीजेपी की मजबूरी थी और आज के समय में शिवसेना के लिए बीजेपी मजबूरी बन गई है। शिवसेना को अपना अस्तित्व बचाने की चिंता सताए जा रही है। शिवसेना को डर न होता तो वह इस विधानसभा चुनाव में वह बीजेपी का छोटा भाई बनना स्वीकार न करती। शिवसेना पहली बार ‘जूनियर पार्टनर’ के रूप में चुनाव लड़ रही है।
दरअसल शिवसेना 2014 के चुनाव में बीजेपी का जूनियर न बनने की जिद के चलते अलग होकर चुनाव लड़ने का हश्र देख चुकी है। इसलिए इस बार वह कोई रिस्क नहीं लेना चाहती। बीजेपी के लिए अब शिवसेना मजबूरी नहीं, बल्कि शिवसेना के लिए बीजेपी मजबूरी बन गई है।
शिवसेना को जूनियर पार्टनर के रूप में राज्य के विधान सभा चुनाव में महज 124 सीटें मिली हैं। इस समीकरण के आधार पर शिवसेना को राज्य में अकेले अपने बल पर सरकार बनाने की उम्मीदों को छोड़ना ही पड़ा, जबकि चुनाव की तिथि की घोषणा से पहले शिवसेना सीटों के बराबर बंटवारे पर अड़ी हुई थी।
शिवसेना कमजोर हुई है तो इसके पीछे कई वजह है। सबसे बड़ी वजह है कि शिवसेना के पास बाला साहेब ठाकरे जैसा नेतृत्व नहीं है। दूसरा 2012 में उनके निधन के बाद पार्टी का विभाजन हुआ तो वहीं बीजेपी को नरेन्द्र मोदी जैसा मजबूत नेतृत्व मिला। शिवसेना जिस ‘उग्र हिंदुत्व’ की झंडाबरदार हुआ करती थी, उसकी वह विशेषता बीजेपी के हिस्से जा चुकी है।
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महाराष्ट्र की राजनीति में बीजेपी के मुकाबले शिवसेना का दबदबा इसलिए दिखता था क्योंकि वह ‘मुसलमान’, ‘पाकिस्तान’ जैसे मुद्दों पर खुलकर अपनी बात कहती थी, जबकि उस दौर की बीजेपी तोल-मोल कर बोलने में यकीन करती थी।
पूर्व पीएम अटल बिहारी बाजपेयी वाला तो युग ऐसा था, जहां बीजेपी पाकिस्तान से दोस्ती की लगातार हिमायत करती दिखी, लेकिन अमित शाह वाली बीजेपी ने कश्मीर में अनुच्छेद 370 को खत्म करने जैसा निर्णय लेने में हिचक नहीं दिखाई।
वहीं एनआरसी को लेकर भी बीजेपी ने हिंदुत्व की पैरोकार होने की अपनी छवि को और पुख्ता किया और इस बदलाव ने शिवसेना को कहीं ज्यादा पीछे छोड़ दिया। 2014 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में शिवसेना से ज्यादा सीट जीतकर जो झटका दिया उससे सेना अब तक उबर नहीं पाई है। इसे देखते हुए 2019 में उसके सामने बीजेपी को ‘बिग ब्रदर’ के रूप में स्वीकारने के अलावा और कोई चारा नहीं था।
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