जायका लखनऊ का / कैसे पहुंचे शून्य से शिखर तक
प्रेमेन्द्र श्रीवास्तव
वो जमाना ही कुछ और था। लोग ईमानदार थे। मिलावट का दूर दूर तक अता पता नहीं था। देश गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ था। फूड इंडस्ट्री से जुड़े कारोबारियों में देशवासियों की सेहत का ख्याल रखने का जज्बा था।
यह बात है 1880 की। श्री छेदा लाल गुप्ता जी भी रोजी रोटी के लिए मटर बेचा करते थे अमीनाबाद में। तब अमीनाबाद के बीचो-बीच एक टीला हुआ करता था।
उसी टीले पर अपना खोमचा लगाकर हांडी मटर बेचते थे छेदा लाल जी। उनकी मटर की खासी धूम थी। उनके मसाले और खट्टी चटनी के महिलाओं से ज्यादा पुरुष दीवाने थे।
सभी दुकानदार घर से रोटी ले आते और लकड़ी के कोयले पर धीमी आंच में हांडी में पकी सोंधी मटर के साथ लंच करते। कुछ तो अपने घर के लिए बंधवाना नहीं भूलते थे।
इस रवायत को उनके बेटे कलिका प्रसाद जी ने आगे बढ़ाया। कलिका प्रसाद जी की धर्मपत्नी को मसालों का अच्छा ज्ञान था। उन्होेंने कई प्रकार के मसालों का काबिनेशन बनाया।
1935 में नगर पालिका ने आज जहां मोहन मार्केट है, वहां उन्हें जमीन एलाट कर दी। अब उनकेे पास ठेला आ गया था। फिर बीआर मोहन जी ने मोहन मार्केट रूपरेखा तैयार की और जब मार्केट बनकर तैयार हो गयी तो छह बाई छह की एक दुकान कलिकाजी के सुपुत्र श्रीकृष्ण गुप्ता जी को भी मिल गयी। उसके बाद श्री नरेश गुप्ता 1980 से अपने दादा परदादाओं को विरासत को आगे बढ़ रहे हैं।….
आइये आगे की कहानी जानते हैं नरेश भाई से।
‘उस जमाने में दाउजी गुप्त का हमारी दुकान पर रेगुलर आना होता था। अब स्वास्थगत कारणों से नहीं आ पाते। हमें अपने काम का इनाम उस वक्त मिला जब रजनीगंधा पान मसाला के मालिक की बेटी की शादी में हमें चाट के लिए लखनऊ से दिल्ली खास तौर पर बुलाया गया।
बहुत वीआईपी आया हुआ था। मेरे हुनर की परीक्षा होनी थी। मुझे हर क्षण यही लगता रहा कि मेरेे बाप दादा की नाक न कट जाए। लेकिन ऊपरवाले का इतनी मेहरबानी रही कि हमारी मटर टिक्की जो भी खाता तारीफ किये बिना नहीं रहता।
वहां से हमें कई और काम मिले। हमें प्रगति मैदान में होने वाले सभी फेयर में बुलाया जाने लगा। इससे नाम व पैसा तो बहुत मिला लेकिन हमारी पुश्तैनी चाट और स्वाद नेगलेट होने लगा। फिर हमने जाना कम कर दिया।” बताते हैं नरेश भाई।
‘मटर टिक्की लखनऊ की पहचान है यह और कहीं नहीं मिलती। हमारे बाबा दादाओं ने इसे शुरू किया और अपनी साख बनायी। हमारी स्पेशल मटर टिक्की जो पुश्तैनी पहचान हैं, वैसी मटर टिक्की आपको जल्दी नहीं मिलेगी।
अनेक तरह के मसालों के साथ इसको वनस्पति घी में इतना सेंका जाता है कि यह कबाब का स्वाद देने लगती है। इसको बिना फ्रिज के ही दो दिन तक रखे रहिए खराब नहीं होगी।
साथ ही हम जैसी सोंठ पापड़ी बनाते हैं वैसी आपको पूरे लखनऊ में किसी की नहीं मिलेगी। उसमें कई तरह के मसाले और आइटम पड़ते हैं। हमारे पानी के बताशोें का पानी आपका हाजमा दुरूस्त कर देगा।
दही बड़े का स्वाद भी अन्य चाट वालों से भिन्न है। आलू टिक्की का टेस्ट जो एक बार ले लेता है वह कभी नहीं भूल पाता। मुख शुद्धि और तीखा को बैलेंस करने के लिए हम गुलाब जामुन भी बनाते हैं।”
‘हमने पचास पैसे में एक टिक्की बेचना शुरू की थी। हम लोग बचे माल को फेंक देते हैं। हमने कभी भी ग्राहक को बासी आइटम नहीं खिलाया।”
जब उनसे उनके बच्चों के चाट के पुश्तैनी व्यवसाय प्रति रुझान के बारे में पूछा गया तो उनके स्वर में अजीब सी मायूसी थी, ‘आज की पीढ़ी इस काम को छोटा काम मानती है।
मेरी तीन बेटियां हैं जिसमें एक एयर होस्टेज का कोर्स कर चुकी है एक फैशन डिजाइनिंग का कोर्स कर चुकी है। दो की शादी हो गयी है और बेटा ग्रेज्युएट है और कई कम्पनियों की फ्रैंचाइजी लिये हुए है। कहा भी जाता है कि मिठाई चाट का काम चार पांच पीढ़ी के बाद खत्म हो जाता है। देखिए मेरे बाद इस काम को कौन सम्भालता है?”