ओम प्रकाश सिंह
स्वतंत्रता आंदोलन के चित्रपट पर ‘समय की शिला पर’ जैसे अमर गीत के रचनाकार डॉ शंभूनाथ सिंह ने भी किरदार निभाया था। मधुर गीतों के इस रचनाकार ने आजादी आंदोलन में सड़क भी काटा, रेलवे लाइन उखाड़ने की योजना बनाई और आंदोलन को गति देने के लिए संपादन भी किया। मृदुभाषी व्यवहार के धनी और कोमल ह्रदय डॉक्टर शंभू नाथ सिंह, शचिन्द्र नाथ सान्याल जैसे क्रांतिकारी के सहायक थे। गांधी जी को अपनी कविता भेंट करने के लिए सरदार वल्लभभाई पटेल से उलझ पड़े थे।
आजादी के इस योद्धा को सरकार ने मात्र डाकटिकट जारी कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लिया। जिन विश्वविद्यालयों के लिए उन्होंने कुलगीत लिखा वे तो और गए गुजरे निकले। डाक्टर राममनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति आचार्य मनोज दीक्षित ने तत्कालीन कार्य परिषद सदस्य ओमप्रकाश सिंह के प्रयास पर उनके तैलचित्र और कुलगीत के शिलापट को स्थापित करवाया। विश्वविद्यालय के प्रवेश द्वार का नामकरण भी कार्यपरिषद ने पास कर दिया है लेकिन वर्तमान हुकूमत ने आंख मूंद रखा है।
हिंदी साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, समाजसेवी डॉ शंभूनाथ सिंह का जन्म 17 जून 1916 को देवरिया जनपद के ग्राम रावतपारा अमेठिया में हुआ था। अपनी प्रारंभिक शिक्षा दीक्षा बिहार के सिवान जिले के अंतर्गत ग्राम रामगढ़ तथा माध्यमिक शिक्षा देवरिया जनपद के मझौली राज में संपन्न हुई। मिडिल स्कूल मेंं अध्ययन करते समय ही बालक शंभू नाथ के मन में राष्ट्रीयता एवं देश भक्ती की प्रवृति का जन्म हुआ।
सन् 1930 में गांधीजी उत्तर प्रदेश दौरे के सिलसिले में देवरिया जिले का दौरा करते समय भाटपार रानी नामक स्थान पर आए, वहां पर गांधी जी के दर्शन एवं के भाषण सुनने के लिए अपने स्कूल से ही गए। 1934 में गांधीजी बनारस आए और 3 दिन तक काशी विद्यापीठ में ठहरे। इस अवसर पर गांधीजी को भेंट करने के लिए शंभू नाथ जी ने हरिजन नामक कविता लिखी। गांधी जी की प्रार्थना सभा के बाद देश के उद्धार के लिए लोग पैसों के अलावा अपने आभूषण करते थे जिसे वे सभा में नीलाम कर देते थे।
एक दिन प्रार्थना सभा में गांधी जी चौकी पर बैठे हुए थे तथा उनके पीछे कई नेता विराजमान थे। शंभू नाथ जी अपनी भेंट लेकर मंच के पास तक गए किंतु गांधी जी तक पहुंचना कठिन था। गांधीजी के बगल में सरदार वल्लभभाई पटेल बैठे थे और यदि कोई कोई दान देना चाहता था तो उसे वही ले लेते थे। इनकी कविता को भी सरदार पटेल ने लेना चाहा किन शंभूनाथ जी ने कहा मैं इस कविता को अपने हाथ से गांधी जी को भेंट करूंगा। सरदार पटेल ने उन्हें ऐसा करने से रोका तब तक शंभू नाथ जी ने फटकारते हुए मंच पर पहुंचकर गांधी जी के चरणों में समर्पित कर दिया। थोड़ी थोड़ी देर बाद गांधी जी ने भेंट की गई वस्तुओं की नीलामी प्रारंभ की तो सबसे अधिक बोली ₹50 लगाकर शिव प्रसाद गुप्त जी ने उस कविता को सहेज लिया।
सन 1942 में जब उन्होंने काशी हिंदू विश्वविद्यालय में एम ए द्वितीय वर्ष में दाखिला लिया तो उसके अगले महीने में 9 अगस्त को देश में अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन प्रारंभ हो गया। गांधी जी ने घोषणा की कि इस बार आंदोलन समाप्त नहीं होगा कार्यकर्ताओं को करो या मरो का संकल्प लेकर जो करना चाहे वह करें। यह अनुमति पाकर देशभर में रेल पटरियां उखाड़ी जाने लगींं, सड़के काटी जाने लगा। काशी हिंदू विश्वविद्यालय में भी क्रांति की चिंगारी फैल गई।
समाजवादी छात्र नेता राज नारायण के नेतृत्व में काशी हिंदू विश्वविद्यालय के छात्रों का बहुत बड़ा जुलुस कचहरी की ओर बढ़ा, शंभूनाथ सिंह भी जुलूस में शामिल थे। कचहरी में छात्रों ने कांग्रेस का झंडा फहरा दिया। पुलिस बौखला उठी, लाठीचार्ज हुआ। काशी हिंदू विश्वविद्यालय अनिश्चितकाल के लिए बंद कर दिया गया और वहां सेना ने घेरा डाल दिया।
इसके बाद उन्होंने मुगलसराय से भंवरी जाने वाली सड़क को गांव के लोगों के साथ मिलकर काट दिया। इन लोगों का लक्ष्य था कि चंदौली थाने को फूंक दिया जाए और रेलवे लाइन उखाड़ दिया जाए परंतु उसी समय अपनी माता की मृत्यु के कारण इन्हें अपनी यह योजना छोड़कर अपने गांव जाना पड़ा। लौटने के बाद उन्होंने यह महसूस किया कि एक पत्रकार के रूप में स्वतंत्रता आंदोलन में अधिक शक्ति से भागीदारी कर सकेंगे इसी उद्देश्य को लेकर उन्होंने पंडित कमलापति त्रिपाठी के संपादक में ‘आज’ में साप्ताहिक संपादक के रूप में कार्य प्रारंभ किया।
आचार्य नरेंद्र देव के निर्देश पर काशी विद्यापीठ में अध्यापन कार्य करने लगे। इस प्रकार देखा जाए तो डॉक्टर शंभू नाथ सिंह स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय योगदान देकर भी कभी स्वतंत्रता पश्चात स्वतंत्रता सेनानी के रूप में स्वयं के परिचय के आग्रह ही नहीं रहे ना ही उन्होंने स्वतंत्रता सेनानी के रूप में किसी सुविधा का उपयोग करना पसंद किया। स्वतंत्रा आंदोलन में डॉक्टर शंभू नाथ सिंह जैसे साहित्यकार के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता।
डॉक्टर शंभुनाथ सिंह ने महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ के साथ-साथ डॉ राममनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय, आचार्य नरेंद्र देव कृषि विश्वविद्यालय एवं श्री गणेश राय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, डोभी, जौनपुर के कुल गीतों की भी रचना की। विद्यापीठ का कुलगीत “विद्या के सिद्ध पीठ जय महान हे, जय जय हे चिर नवीन चिर पुराण हे” आज इस विश्वविद्यालय की प्रासंगिकता को पूर्ण रूप से चरितार्थ कर रहा है। जहां प्रागैतिहासिक से लेकर विज्ञान और मेडिकल जैसी विद्या में विद्यार्थी इस विश्वविद्यालय का नाम रौशन कर रहे हैं।
बहुत कम लोगों को ही मालूम होगा कि उन्होंने साहित्य की सभी विधाओं पर कलम चलाने के साथ-साथ कला और पुरातत्व के क्षेत्र में भी अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया था। क्षत्रिय मित्र, अग्रगामी, नया हिन्दुस्तान और आज अखबारों के सम्पादक और पत्रकार के रूप में और स्वतंत्रता संग्राम में क्रांतिकारी के रूप मे भी उन्होंने देश और समाज के प्रति अपना योगदान दिया, किन्तु आजाद भारत में उन्होंने कभी भी अपने स्वतंत्रता संग्राम सेनानी होने का दावा सरकार के समक्ष प्रस्तुत नहीं किया।
देवरिया के सलेमपुर के रावतपार अमेठिया गांव में घुसने के पहले ही अमरत्व की घूंट पीने वाले शंभूनाथ अपनी कविताओं के जरिए उपस्थित हो जाते है। गेट बना है और पत्थर भी गड़े है जिसमें समय की शिला कविता उत्कीर्ण है। उनका पुश्तैनी घर खपरैल का है जिसमें उनके भाई शिवनाथ सिंह की पत्नी शांती देवी अपने बेटे अखिलेश के साथ रहती है जबकि शंभूनाथ के दोनों बेटे विनय व राजीव काशी में रहते है। काशी विद्यापीठ में हिंदी के प्रोफेसर रहे शंभूनाथ का गांव आज भी प्रेमचंद की ऋषि-कृषि संस्कृति का संवाहक है।