उत्कर्ष सिन्हा
दिल्ली का शाहीन बाग इन दिनों चर्चा में है । बीते 31 दिनों से वहाँ पर औरतें जमी हुई हैं और सरकार विरोधी नारे आसमान में उछल रहे हैं । नानी दादी से ले कर नाती पोते तक कड़कड़ाती सर्दी के बावजूद वहाँ 24 घंटे धरना दे रहे हैं । ये न तो वामपंथी पार्टियों के हैं और न ही कांग्रेस के और न ही आम आदमी पार्टी के न समाजवादी पार्टी के और नहीं बसपा सरीखे दूसरे दलों के ।
मुख्यधारा के मीडिया की निगाह में कम ही सही मगर शाहीनबाग कम से कम है तो , मगर देश के करीब दो दर्जन शहरों में इसी तरह के जो आंदोलन चल रहे हैं वो तो मुख्य धारा की मीडिया के एजेंडे में ही नहीं है ।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर सत्ताधारी पार्टी के दूसरे नेता अमूमन इन प्रदर्शनकारियों को वामपंथी कहकर हाशिये पर डालने की कोशिश कर रहे हैं, मगर हकीकत तो ये है की इन प्रदर्शनकारियों जितनी तदात अगर वास्तव में कम्युनिस्ट पार्टियों के पास होती तो संसद और विधानसभाओं में उसकी संख्या इतनी कम नहीं होती जितनी दिखाई देती है ।
तो फिर वामपंथी बताए जाने वाली ये भीड़ कौन है ?
हम आपको बताते हैं की देश भर में ऐसे आंदोलन कहां-कहां चल रहे हैं जिसकी वजह तो एक है मगर चेहरे बिल्कुल जुदा ।
कोलकाता के पार्क सर्कस , कानपुर के मुहम्मद अली पार्क, इलाहाबाद के मंसूर बाग़, पटना के सब्ज़ीबाग़ , गया के शान्तिबाग़, भोपाल के इक़बाल मैदान और पुणे के कौसर बाग़ के अलावा देश के बीसियों छोटे-छोटे शहरों से शाहीनबाग़ की ही तरह के जन-सत्याग्रह की खबरें आ रही हैं ।
मुंबई के आजाद मैदान में जो जन सैलाब उमड़ा था उसके पीछे भी कोई सियासी पार्टी नहीं थी और हैदराबाद के तिरंगा मार्च का आह्वान हुआ तो इतने तिरंगे बिके जितने 70 सालों में हैदराबाद में नहीं बिके थे ।
नागरिकता संशोधन कानून की वजह से आवाम का जो गुस्सा भड़का है, उसे आसानी से खारिज करना बड़ी भूल होगी । देश के भीतर दबे गुस्से का अंदाजा बस इसी बात से लगाइए कि इस बार सरकार के खिलाफ हो रहे आंदोलनों के पीछे राजनैतिक दलों का विपक्ष नहीं है , बल्कि ये अनजान और अनाम लोग हैं ।
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यहां तक की इनमे से से एक शहर की आंदोलनकारी औरत दूसरे शहर की आंदोलनकारी औरत से कोई वास्ता भी रखती हो ये जरूरी नहीं ।
लंबे समय बाद भारत में इस तरह का जनआन्दोलन दिखाई दे रहा है । करीब 6 साल पहले दिल्ली के रामलीला मैदान में अन्ना हज़ारे के आंदोलन से भी इसकी तुलना करना ठीक नहीं ।
अन्ना आंदोलन की बुनियाद देश के जाने पहचाने सामाजिक कार्यकर्ताओं ने रखी थी और वह महज दिल्ली तक ही सीमित रहा । हाँ उसका प्रभाव जरूर देशव्यापी था , लेकिन इस बार के सत्याग्रह अलग हैं । मेधा पाटकर सरीखे चेहरे कही नहीं दिख रहे हैं मगर आम आवाम से ले कर बॉलीवुड की नई उम्र की अभिनेत्री तक मुखर है ।
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भाजपा और संघ परिवार पूरी कोशिश के बावजूद भी इस आंदोलन को महज मुसलमानों का नहीं साबित कर पा रहा ।
इन आंदोलनकारियों को अब ये शिकायत है कि लंबे समय से सत्याग्रह के बावजूद सरकार को कोई अदना सा नुमाईंदा भी इनकी बात सुनने नहीं आया ।
यही संकट है । समाज का भी और सरकार का भी और लोकतंत्र का भी । जनआन्दोलन हमेशा सरकार की नीतियों के खिलाफ ही होते हैं , मगर लोकतान्त्रिक सरकारे इसे बातचीत के जरिए शांत करती हैं। लेकिन इस बार सरकार बहादुर का मूड कुछ अलग है ।
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वो इन्हे देशविरोधी कह रही है , वामपंथी कह रही है , अर्बन नक्सल कह रही है और इनकी बात न तो सुन रही है और न ही अपनी तरफ से इन आंदोलनों को शांतिपूर्ण ढंग से निपटाने की कोशिश कर रही है ।
लेकिन ये भी सच है कि जामिया और जेएनयू में पुलिसिया रवैये के कारण जो गुस्सा उमड़ा उसके बाद वो सख्त रवैये के साथ शक्ति प्रदर्शन से डर भी रही है ।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित पूरी भाजपा लगातार CAA पर सफाई देने में जुटी है , मगर शायद जनता को उन पर विश्वास नहीं रहा । इसलिए एक तरफ भाजपा की रैलियाँ हैं और दूसरी तरफ आम आवाम का सत्याग्रह जिसका कोई चेहरा नहीं है ।
हालात वाकई खराब है और हालात बदलने के लिए सरकार का रवैया भी खराब है ।
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