सुरेंद्र दुबे
करीब ढ़ाई महीने पहले दिल्ली के शाहीन बाग में नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में धरना व प्रदर्शन शुरू हुआ था। शाहीन बाग धीरे-धीरे पूरे देश में नागरिकता संशोधन कानून के विरोध का प्रतीक बन गया और पूरे देश में लगभग 100 जगहों पर शाहीन बाग की तर्ज पर धरना प्रदर्शन शुरू हो गया।
ये इस देश में पहला आंदोलन है, जिसकी अगुआई पर्दानशीन मुस्लिम महिलाएं कर रहीं हैं, जो सामान्यत: घरों की दीवारों में हीं कैद रहती थी। सरकार इस बात का कतई इल्म नहीं रहा होगा कि महिलाओं द्वारा शुरू किया गया यह आंदोलन उनकी मान प्रतिष्ठा के लिए गंभीर संकट बन सकता है।
शाहीन बाग के आंदोलनकारियों को पहले जेएनयू फिर जामिया मिलिया में पुलिसिया आतंक के जरिए धमकाने की कोशिश हुई। यहां तक कि इन दोनों जगहों पर गोली चलने की घटनाएं भी हुई, जिनके बारे में आरोप है कि यह सब कुछ प्रायोजित कार्यक्रम था। पर यह धमकी भी काम नहीं आई।
शाहीन बाग में मुसलमानों के साथ ही हिंदू, सिख और ईसाईयों की भी संख्या बढ़ती गई। हद तो तब हो गई जब कुछ समाचार चैनलों ने इस आंदोलन को बदनाम करने की सुपारी लेकर तमाम मनगढ़ंत खबरें चलाईं। पर आंदोलनकारियों का हौसला नहीं टूटा और केंद्र सरकार की नाक के नीचे ही सरकार की नाक में दम होता रहा।
शाहीन बाग को बदनाम करने के लिए एक साजिश के तहत भाजपा नेता कपिल मिश्रा ने एक पुलिस अधिकारी की उपस्थिति में जाफराबाद मेट्रो स्टेशन पर बैठे प्रदर्शनकारियों को धमकाने के लिए भडकाऊ भाषण दिया। आंदोलनकारी तो नहीं हटे, पर बडे पैमाने पर 24 फरवरी से लेकर 26 फरवरी तक उत्तर पूर्वी दिल्ली में आगजनी व दंगे हुए, जिसमें लगभग 50 निर्दोष लोग मारे गए और अरबों की संपत्ति जल कर खाक हो गई।
दंगे इस जेहनियत के साथ भडकाए गए थे कि इससे डर कर शाहीन बाग के आंदोलनकारी भाग खड़े होंगे और पूरे देश में शाहीन बाग की तर्ज पर चल रहे आंदोलन ठप पड़ जाएंगे। लगता भी ऐसा था। जान का डर किसे नहीं होता है। पर शाहीन बाग के लोग अपने इरादे के साथ डटे रहे और ये आंदोलन आज भी बदस्तूर जारी है।
कल से फिर शाहीन बाग और गोकलपुरी इलाके में अफवाहों के जरिए एक बार फिर दंगा भडकाने और शाहीन बाग पर डटे प्रदर्शनकारियों को धमकाने की नाकाम कोशिशें हुई। अगर हम सारे घटनाक्रमों को समेट कर निहितार्थ निकालने की कोशिश करें तो साफ-साफ समझ आता है कि इरादा अभी भी शाहीन बाग में बैठे लोगों को भगाने का ही है। फिर इसके लिए चाहे जो करना पड़े। यह एक गंभीर और चिंतनीय स्थिति है, जिसका हल खोजना देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था को जिंदा रखने के लिए आवश्यक है।
हिंदू-मुस्लिम मानसिकता से ग्रसित नेता लगातार ये कहते रहे हैं कि जब कोई कानून संसद से पारित कर दिया गया है तो फिर उसका विरोध करना कहां तक उचित है। ये लोग ये भूल जात हैं कि हर कानून संसद की गर्भशाला से ही निकलता है और जनता जब इसे पसंद नहीं करती है तो उसका विरोध होता है। कम से कम महात्मा गांधी के इस देश में इस तरह की बेसिर-पैर की भडकाऊ बातें नहीं की जानी चाहिए।
दिल्ली में हुए दंगों ने तमाम सवाल हवा में उछाले, जिनका जवाब अभी तक नहीं मिल सका है। देश की राजधानी दिल्ली में हजारों प्रशिक्षित दंगाई कहां से आ धमके। पुलिस ने प्रदर्शनकारियों को पीट-पीटकर जय श्री राम बोलने पर कैसे मजबूर किया। यहां तक की घटना स्थल पर गए तमाम पत्रकारों को जय श्री राम के नारे लगा कर अपनी जान बचानी पड़ी। यानी पत्रकार अब अपने सत्ता समर्थक चेहरे के कारण दोतरफा घिर गए हैं।
नागरिकता संशोधन कानून के विरोधी पत्रकारों को शंका की नजर से देखने लग गए हैं और कानून समर्थकों में पत्रकारों को पीटने की हिम्मत आ गई है। मुठ्ठी भर पत्रकारों के कारण पूरा मीडिया संकट में है, जिसका हल मीडिया को ही निकालना होगा। लेकिन असली सवाल ज्यों का त्यों बना हुआ है। शाहीन बाग जब दंगो से भी नहीं डरा तो अब उसे डराने के लिए किस हथियार का इस्तेमाल किया जाएगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेख उनके निजी विचार हैं)
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