सीमा रहमान
कई वर्ष पहले मेरी मित्र ने एक बात का जिक्र किया था, जो मुझे अक्सर याद आता है। उसने अपने एक अंकल की कही हुई बात बतायी थी। उसके अंकल के अनुसार हम अपने बच्चों को जो सबसे महत्वपूर्ण भेंट दे सकते हैं वह है अच्छा संस्कार। बच्चों को भौतिक चीजों से ज्यादा भावनाओं की कद्र करना सिखाना किसी भी अभिभावक की तरफ से उसके बच्चे के लिए बेहतर गिफ्ट होगा।
आज के परिवेश में उनकी बात अक्सर याद आती है। दरअसल आज हम आभासी दुनिया में जी रहे हैं। संबंधों की गहराई खत्म होती जा रही है। हम कुछ रिश्तों तक सीमित होकर रह गए हैं।
हम उसी रिश्ते को स्वीकार कर रहे हैं जो हमारे लिए पाजिटिव सोच रखते हैं। हमारे बारे में कोई निगेटिव सोच रखता है तो चाहे वह कितना भी खास रिश्ता क्यों न हो उसे हम दरकिनार कर देते हैं। जब हम नकारात्मक सोच रखने वाले रिश्तों को नकार रहे हैं तो हमारे बच्चे भावनाओं की कद्र कैसे करेंगे।
ऐसा ही हम अपने बच्चों के साथ कर रहे हैं। हम अपने बच्चों के नकारात्मक सोच को स्वीकारने में हिचकते हैं और उन्हें अच्छे बच्चे का उदाहरण देकर चुप करा देते हैं। नकारात्मक सोच को सकारात्मक में बदलने की नहीं सोचते बल्कि बच्चे को दूसरी तरह से चुप कराने की सोचते हैं। यदि हम ऐेसे ही करते रहे तो आने वाले समय में हमारे बच्चों को इसके गंभीर परिणाम भुगतने होंगे।
जब हम छोटे थे तो हमारे आस-पास रिश्ते-नातों की बड़ी दुनिया थी। इसलिए हम रिश्तों की अहमियत को समझने में कामयाब रहे। हमारे अभिभावकों ने सभी को साथ लेकर चलने की नसीहत शुरु से दी।
इसलिए हम सकारात्मक और नकारात्मक दोनों रिश्तों को गले लगाकर चले। लेकिन आज परिस्थितियां बदल गई हैं। आज रिश्ते निभाने के लिए किसी के पास वक्त नहीं है। बच्चों के इर्द-गिर्द गिने-चुने रिश्ते हैं। उसमें भी वह उन्हीं रिश्तों को अहमियत दे रहे हैं जो उनके पसंद की चीज लेकर आते हैं। उनके हिसाब से व्यवहार करते हैं। मां-बाप भी बच्चों को रिश्तों की अहमियत नहीं समझा रहे।
भावनाएं हमारे व्यक्तित्व का एक अभिन्न अंग है। फिर चाहे वो नाकारात्मक हो या सकारत्मक। हम जहां अपनी और दूसरे की सकारात्मक भावनाओं को स्वीकार कर लेते हैं और उनका आदर करते हैं वहीं हम खुद की या दूसरों की नाकारात्मक भावनाओं को लेकर उतने सहज नहीं रह पाते।
अगर कोई बच्चा अपना क्रोध प्रकट करता है तो हमारा तुरंत का रियेक्शन होता है ‘आप अच्छे बच्चे हो, अच्छे बच्चे गुस्सा नही करते या फिर ‘मम्मा-पापा आप से बात नही करेंगे अगर आप गुस्सा करोगे।
क्या हम कभी ये कहते हैं की its all right to be angry क्योंकि anger भी एक नॉर्मल भावना है जो हम सब कभी ना कभी experience करते हैं। क्या हम उनको कभी बताते हैं की हमको अपना क्रोध कैसे अभिव्यक्त कर सकते हैं। ये सीखना चाहिये ना की उसको छुपाने की कोशिश करनी चाहिये, पर हम ऐसा नही करते, क्योंकि हम को भी कभी किसी ने नही बताया था।
अक्सर अभिभावकों से बातचीत करते समय मै उनको बताती हूं कि बच्चों का आत्मविश्वास बढाने के लिये बहुत महत्वपूर्ण हैं कि हम उनकी नकारात्मक भावनाओं को भी स्वीकार करें। यहां सवाल ये नहीं है की वो सही है या गलत, ये भी नहीं है कि इन भावनाओं के होने के कारण क्या हैं।
यहां सबसे बड़ी बात यह है की ये भावनाएं उनके व्यक्तित्व का एक हिस्सा हैं। जब हम उनसे ये कहते हैं की ये फीलिंग सही नहीं है तो हम उनके व्यक्तित्व के एक हिस्से को नकार रहे हैं जो धीरे धीरे-धीरे आगे उनके जीवन में कुंठा से भर जाती है।
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इसलिए जरूरी है कि हम बच्चों की नकारात्मक सोच को स्वीकार करें और उस दिशा में काम करें जिससे बच्चे में सकारात्मक सोच आए। बच्चों में सकारात्मक सोच तभी आयेगी जब वह घर-परिवार और रिश्तों के समझेंगे। उनके बीच रहेंगे।