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वैज्ञानिकों ने बताया कि आखिर क्यों बढ़ रही साइबेरिया में गर्मी

जुबिली न्यूज़ डेस्क

पृथ्वी पर सबसे ठंडी जगहों की बात की जाए तो साइबेरिया उनमें से एक है। जी हां साइबेरिया उन जगहों में शुमार है, जहां तापमान माइनस 68 डिग्री तक जा चुका है। लेकिन आज ये जगह उनमें शामिल हैं जहां तापमान बेहद तेजी से बढ़ रहा। और आज ये जगह आग की लपटों से घिरी हुई है। इतना तापमान तो इससे पहले कभी नहीं बढ़ा। इस बात को लेकर मौसम विज्ञानिकों की भी चिंता बढ़ गई है।

इसके लिए दुनिया के कुछ सबसे बेहतरीन क्लाइमेट वैज्ञानिकों ने एक विश्लेषण किया है। इस विश्लेषण में वैज्ञानिकों की टीम ने ये दावा किया है कि, साइबेरिया में बीती जनवरी से जून 2020 के बीच पड़ने वाली जबर्दस्त गर्मी की वजह जलवायु परिवर्तन है और इस जलवायु परिवर्तन के लिए इंसानी गतिविधियाँ ज़िम्मेदार हैं।

पी.पी. शिर्शोव इंस्टिट्यूट ऑफ़ ओसियनोलॉजी (समुद्र विज्ञान), और रूसी विज्ञान अकादमी सहित अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालयों और मौसम विज्ञान सेवाओं के शोधकर्ताओं ने ऐसा भी पाया है कि अगर मानवों ने ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन कर जलवायु को प्रभावित नहीं किया होता तो इस जगह का तापमान इतना नहीं बढ़ता जोकि आज औसत तापमान से 2°C तक बढ़ गया है।

इस वर्ष की शुरुआत से साइबेरिया में तापमान औसत से ऊपर रहा है। आर्कटिक के लिए 38°C का एक नया रिकॉर्ड तापमान 20 जून को रूसी शहर वेरखोयान्स्क में दर्ज किया गया था, जबकि साइबेरिया का कुल तापमान जनवरी से जून तक औसत से 5°C अधिक दर्ज किया गया था।

बढ़ रहे तापमानों को लेकर जलवायु परिवर्तन का क्या प्रभाव पड़ रहा है इसको मापने के लिए, वैज्ञानिकों ने कंप्यूटर सिमुलेशन चलाए, जिससे पता चला कि मौजूदा जलवायु के मिजाज़ का पता चला. इसमें लगभग 1°C ग्लोबल वार्मिंग शामिल है, की तुलना मानन प्रभाव के बिना जैसे जलवायु होता उसके साथ करने के लिए, अतीत की तरह ही रैपिड और पीयर रिव्यूड स्टडीज़ के तरीकों का उपयोग करके।

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वैज्ञानिकों के अध्यन ने इस बात का भी पता चला कि जैसी लंबी गर्मी साइबेरिया में इस साल जनवरी से जून तक अनुभव की गई थी, वैसी गर्मी बिना मानव-प्रेरित जलवायु परिवर्तन के 80,000 वर्षों में केवल एक बार से भी कम होगी. इसका मतलब है कि ऐसी स्थिति बिना मानव जनित जलवायु परिवर्तन में लगभग असंभव है।

बिना ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन से पैदा हुई गर्मी के ऐसा नहीं हो सकता था। जलवायु परिवर्तन ने लंबे समय तक गर्मी की संभावना को कम से कम 600 के कारक से बढ़ा दिया। यह अब तक किए गए किसी भी एट्रिब्यूशन अध्ययन के सबसे मजबूत परिणामों में से है।

वैज्ञानिकों ने बताया कि वर्तमान जलवायु में भी लंबे समय तक ऐसी गर्मी की संभावना बहुत ही कम थी। इस तरह की स्थितियों की संभावना हर 130 साल में एक बार से भी कम होती है। लेकिन ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में तेजी से कटौती के बिना सदी के अंत तक उनके ज़्यादा फ्रिक्वेंसी से होने का जोखिम हैं।

साइबेरिया में गर्मी ने व्यापक आग भड़का दी है, जून के अंत में 1.15 मिलियन हेक्टेयर भूक्षेत्र जल चुके थे। जोकि लगभग 56 मिलियन टन कार्बन डाइऑक्साइड की रिहाई के साथ जुड़ा हुआ है। यह उत्सर्जन स्विट्जरलैंड और नॉर्वे जैसे कुछ औद्योगिक देशों के वार्षिक उत्सर्जन से भी अधिक है। इसने पारमाफ्रॉस्ट के पिघलने को भी तेज कर दिया है इसी वजह से मई में जमी हुई मिट्टी पर बना एक तेल टैंक ढ़य गया, जिससे इस क्षेत्र में अब तक के सबसे खराब तेल रिसाव में से एक हुआ।

ग्रीनहाउस गैसें आग और पिघलाव के द्वारा रिहा होती है. साथ ही साथ बर्फ और बर्फ के नुकसान से ग्रह की परावर्तन में कमी ग्रह को और अधिक गर्मी देता है। साथ ही बर्फ के नुकसान से ग्रह और गर्म होगा और ग्रह की परावर्तन क्षमता में भी कमी आती है। गर्मी को रेशम कीटों के प्रकोप से भी जोड़ा गया है, जिनके लार्वा शंकुधारी पेड़ खाते हैं।

प्रोफेसर ओल्गा ज़ोलिना, पी.पी. शिर्शोव इंस्टिट्यूट ऑफ़ ओसियनोलॉजी (समुद्र विज्ञान), आरएएस (RAS), मॉस्को, और सीएनआरएस (CNRS) इंस्टीट्यूट डेस जिओसाइंसेज डे ल’एनवीरोमेंट, ग्रेनोबल, प्रमुख लेखक आईपीसीसी एआर 6 (IPCC AR6) के अनुसार, “इस अध्ययन से न केवल यह पता चलता है कि तापमान की परिमाण मात्रा अत्यंत दुर्लभ है, वह मौसम के पैटर्न भी दुर्लभ हैं जो इसका मुख्य कारण बने।”

इसके अलावा अभी ये अध्ययन जारी है कि हजारों हेक्टेयर में फैले जंगल कैसे आग की लपटों को प्रभावित कर सकते हैं क्योंकि आग की लपटें धुएं और वायुमंडल में राख भर देती हैं।

वहीं एंड्रयू सियावरेला, शोध के प्रमुख लेखक और मेट ऑफिस में सीनियर डिटेक्शन एंड एट्रिब्यूशन साइंटिस्ट ने बताया कि ‘इस रैपिड रिसर्च के निष्कर्ष निकला कि जलवायु परिवर्तन ने साइबेरिया में प्रोलोंगड (लंबे समय तक) गर्मी की संभावना को कम से कम 600 गुना बढ़ा दिया जोकि वास्तव में चौंका देने वाला है।’

वैज्ञानिकों द्वारा किया गया यह शोध चरम तापमान का और सबूत है जिसे हम दुनिया भर में एक गर्म वैश्विक जलवायु में अधिक बार देखने की उम्मीद कर सकते हैं। महत्वपूर्ण रूप से, इन अत्यधिक गर्मी की घटनाओं की बढ़ती आवृत्ति को ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करके नियंत्रित कर सकती है।

डॉ फ्रेडेरिक ओटो, ऑक्सफोर्ड के पर्यावरण परिवर्तन संस्थान के कार्यवाहक निदेशक का कहना है कि ‘यह अध्ययन बताता है कि हीटवेव के संबंध में जलवायु परिवर्तन का कितना बड़ा गेम चेंजर हिस्सा है। यह देखते हुए कि दुनिया के अधिकांश हिस्सों में हीटवेव अब तक के सबसे घातक चरम मौसम की घटनाएँ हैं, उन्हें बहुत गंभीरता से लिया जाना चाहिए।’

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चूंकि उत्सर्जन में वृद्धि जारी है, हमें दुनिया भर में अत्यधिक गर्मी का सामना करने में लचीलापन बनाने के बारे में सोचने की जरूरत है, आर्कटिक समुदायों में भी – जो थोड़े ही समय पहले निरर्थक लगता।’

प्रोफेसर सोनिया सेनिविरत्ने, ईटीएच (ETH) ज्यूरिख (डी-यूएसवाईएस D-USYS) में पर्यावरण प्रणाली विज्ञान विभाग, और कई आईपीसीसी (IPCC) रिपोर्टों की प्रमुख लेखक बताती है कि ‘इन परिणामों से पता चलता है कि हम चरम घटनाओं का अनुभव करना शुरू कर रहे हैं जिनके जलवायु प्रणाली पर मानव पदचिह्न के बिना होने का लगभग कोई भी मौका नहीं होता।’

उन्होंने कहा कि ‘हमारे पास ग्लोबल वार्मिंग को उन स्तरों पर स्थिर करने के लिए बहुत कम समय बचा है जो के जलवायु परिवर्तन पेरिस समझौते की सीमा में हो। ग्लोबल वार्मिंग के 1.5 डिग्री सेल्सियस पर स्थिरीकरण के लिए, जो अभी भी इस तरह के चरम गर्मी की घटनाओं के अधिक जोखिम का कारण होगा. हमें 2030 तक अपने CO2 उत्सर्जन को कम से कम आधा करने की आवश्यकता है।’

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