Monday - 28 October 2024 - 8:11 AM

व्यंग्य / बड़े अदब से : चिन्दी चिन्दी हिन्दी

उनका हिन्दी प्रेम बेमिसाल है। जब देखो, जहां देखो, हिन्दी के हिमायती बने विशुद्धता के साथ हिन्दियाते रहते हैं। हिन्दी के ऐसे-ऐसे शब्द, कोश से बीनकर, छाड़-फूंक कर लाते कि सुनने वाला चकरा जाए कि क्या यह हिन्दी ही है। उसे अपने हिन्दुस्तानी होने पर शर्मिन्दगी महसूस होने लगती। जब हिन्दी दिवस आता है वे जगह-जगह हिन्दी की लौ जलाने माचिस लेकर पहुंच जाते हैं। दीप प्रज्जवलन के बाद वे हिन्दी की पताका को फहराना भी नहीं भूलते। अपने भाषण को वे कुछ ऐसे शुरू करते- ‘हिन्दी और संस्कृत बोलने वालों का दिमाग अंग्रेजी बोलने वालों से ज्यादा विकसित व सजग होता है।

इसका कारण यह है कि अंग्रेजी भाषा सीधी सरल रेखा में चलती है जिससे दिमाग का बायां भाग ही जागृत होता है जबकि हिन्दी और संस्कृत भाषा की मात्राओं के कारण दिमाग के दोनों भागों का अच्छा व्यायाम हो जाता है।

हिन्दी बोलने वाले अनेक मानसिक रोगों से बच जाते हैं। हिन्दी का ह्रदय विशाल है, जिस भाषा का भी शब्द घुसा दो, उसकी सेहत में कोई फर्क नहीं पड़ता। जिस तरह सत्ता प्राप्त दल में दागी व अपराधी नेता हाथ मिलाकर गंगा नहा लेता है और पवित्र हो जाता है।

नये श्रोता तालियां पीटते। पुराने मोबाइल पर बतियाने में मशगूल रहते।  इत्तेफाक से हिन्दी दिवस वाले दिन ही उनके बच्चे का जन्मदिन भी पड़ता था। उन्होंने उसका नाम हिन्दीवर रखा है।

घरवाली ने मोहल्ले वालों और बच्चे ने अपने दोस्तों को बर्थडे पार्टी में बुला लिया था। मोबाइल पर धर्मपत्नी का आदेश मिला कि हिन्दी का दीप जलाकर उसकी बीन बजा चुके हो तो बच्चे के लिए केक और मोमबत्तियां भी लेते आना।

फिर फेसबुक पर बच्चे की मां का अपडेट आया विश माई चाइल्ड। आजिज आये विघ्नसंतोषी स्टेटस देख, चालू हो गये-‘ये मोमबत्तियां बुझाना जीवन के अन्त का प्रतीक है।

केक तो हमारी संस्कृति में कहीं भी नहीं आता। यह तो फिरंगियों (ब्रिटिशर्स) का चलन है। हमारी संस्कृति में गुलगुले और पुआ बनाए जाते हैं। वही बना लो।” हिंदी प्रेमी व संस्कृति वाहक के घनघोर उवाच के बाद पत्नी फिर से मोबाइल पर आ धमकीं।

हिंदी वाहक को उधर से जो झाड़ पड़ रही थी उसका छन्नप्रसारण (छन-छन कर आ रही वार्ता) हो रहा था और आसपास मौजूद सुधी श्रोता दंत पंक्तियों को होठों की कैद से छूटने नहीं दे रहे थे।

कुछ पेट को कस कर पड़े हुए थे। कुछ जो पेट से कमजोर थे वे धीरे से दायें-बायें हो लिये। हिप्रे (हिन्दी प्रेमी) के चेहरे पर आते-जाते भाव से स्पष्ट था कि भारतीय संस्कृति अभी-अभी विदेशी संस्कृति से पराजित हो, कपड़े झाड़ रही थी। क्षमा मांगते हुए वे अपने विद्युत चालित द्विचक्रीय वाहन से कूचकर गये। बकरी बने हिप्रे का वाहन सीधे बेकरी के सामने आ रुका।

‘जी एक केक दीजिए,” सूखे हलक से बोले। वजन व पैसे तय होने के बाद दुकानदार ने बच्चे के नाम की स्पेलिंग पूछी। हिप्रे बोले-‘ह में छोटी इ की मात्रा आधा न…”।
‘अंग्रेजी के लेटर्स बताइये जनाब।” उसने बीच में ही टोका। ‘क्यों हिन्दी में नहीं लिख सकते!” चेहरे पर आने को बेताब तमतमाहट को छिपाते हुए हिप्रे ने कहा। ‘जी नहीं, आज तक कोई भी हिन्दी में नाम लिखाने नहीं आया। फिर हमें भी हिन्दी के लेटर लिखकर अपनी कलाई में मोच नहीं बुलवानी।” उसने अपने एटीट्यूड पर कोई काबू नहीं रखा।

‘लेकिन कोशिश तो कीजिए, आखिर हिन्दी में भी लिखने का चलन आपको आज ही के शुभ दिन से करना चाहिए!” आदतानुसार उन्होंने हिन्दी की तरफदारी की सलाह दे डाली।

‘सुरेश इनके पैसे वापस करो। हमें केक नहीं बेंचना।” दुकानदार खड़ा हो गया। हिप्रे सदमे में आ गये। बिना केक घर जा नहीं सकते। मरता हुआ आदमी तो यमराज के भैंसे के भी पांव पकड़ने से नहीं चूकता।\

हिप्रे सरेंडर हो गये। अंग्रेजी के लेटर्स में हिन्दीवर लिखकर उसने पकड़ा दिया। आगे पीछे देखा, कोई जानने वाला तो नहीं खड़ा है। शुक्र था वहां उनके अलावा कोई दूसरा नहीं था जो उन्हें जानता हो। सामने लगे टीवी पर खबरिया चैनल हिन्दी दिवस की कवरेज दिखा रहा था। उनके जलाये दीप अब उन्हें मोमबत्ती से लग रहे थे जिसे अंग्रेज मजे से फूंक रहे थे।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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