जुबिली न्यूज डेस्क
प्रदेश की राजनीति में सहारनपुर लोकसभा सीट बेहद ही खास है. कभी कांग्रेस का गढ़ रही इस सीट से 1984 के बाद से अब तक कांग्रेस का कोई उम्मीदवार चुनाव नहीं जीत सका. 2024 के लोकसभा चुनाव में सपा-कांग्रेस गठबंधन से कांग्रेस उम्मीदवार इमरान मसूद चुनाव लड़ रहे हैं जिनकी लड़ाई बहुजन समाज पार्टी के माजिद अली और भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार राघव लखनपाल से है.
इसी सहारनपुर में एक कस्बा और विधानसभा क्षेत्र देवबंद भी है जहां विश्व प्रसिद्ध मदरसा दारूल उलूम है. दारुल उलूम वैसे तो इस्लामिक शिक्षण संस्थान के लिए जाना जाता है लेकिन राजनीति और राजनीतिक लोगों का भी यहां से पुराना नाता रहा है. कभी कई राजनीतिक दलों के दिग्गज नेता दारुल उलूम देवबंद में आकर राजनीतिक जमीन तलाशते थे और कई बार बड़े नेताओं ने चुनाव से पहले उलेमाओं की मदद मांगी लेकिन अब स्थिति यह हो गई है कि दारुल उलूम में नेताओं का प्रवेश निषेध कर दिया गया है.
राजनीति से परहेज
दारुल उलूम से जुड़े अशरफ उस्मानी बताते हैं कि चूंकि यह एक धार्मिक और शैक्षणिक संस्था है इसलिए इसका राजनीति से कोई लेना-देना नहीं है. उनके मुताबिक, संस्था के जिम्मेदार लोगों ने इसी वजह से नेताओं का प्रवेश बंद कर रखा है. हालांकि कुछ लोगों के मुताबिक, ऐसा इसलिए है कि कुछ लोग यहां के उलेमाओं के साथ तस्वीरों का गलत इस्तेमाल करने लगे थे इसीलिए नेताओं का आना बंद करना पड़ा.
दारुल उलूम मदरसे से पढ़ाई कर चुके देवबंद कस्बे के रहने वाले मोहम्मद यासीन बताते हैं, “हुआ यह कि 2009 में एक पार्टी के कोई बड़े नेता यहां आए और उन्होंने उस समय के प्रमुख मौलाना के साथ तस्वीर खिंचाई. उस तस्वीर का इस्तेमाल उन्होंने यह कहते हुए चुनाव में किया कि उन्हें देवबंद और वहां के मौलाना का आशीर्वाद हासिल है. मतलब, कुछ इस तरह कि जैसे दारुल उलूम चुनाव में उनका समर्थन कर रहा है. बस उसके बाद ही नेताओं के आने पर प्रतिबंध लगा दिया गया और हर चुनाव से पहले एक बयान भी जारी किया जाता है कि यहां राजनीति के लिए कोई जगह नहीं.
दारुल उलूम का असर
दारुल उलूम देवबंद की स्थापना 30 मई 1866 को हुई थी. इसकी स्थापना हाजी सैयद मोहम्मद आबिद हुसैन, फजलुर्रहमान उस्मानी और मौलाना कासिम नानौतवी द्वारा की गई थी. मौजूदा समय में यहां देश-विदेश के करीब साढ़े चार हजार छात्र इस्लामी तालीम हासिल करते हैं. मुस्लिम समाज दारुल उलूम के साथ किस कदर भावनात्मक तौर पर जुड़ा है, उसे इसी बात से समझा जा सकता है कि दारुल उलूम जब कोई फतवा जारी करता है तो उसे आमतौर पर हर मुस्लिम मानता है.
सहारनपुर लोकसभा सीट
सहारनपुर लोकसभा सीट की बात करें तो यहां करीब 18 लाख मतदाता हैं. फिलहाल यहां 10 उम्मीदवार मैदान में हैं लेकिन मुख्य मुकाबला बीजेपी, कांग्रेस और बीएसपी के बीच ही है. साल 2019 के पिछले लोकसभा चुनाव की बात करें तो यहां से बीएसपी उम्मीदवार हाजी फजुर्लरहमान ने जीत दर्ज की थी. उन्होंने बीजेपी उम्मीदवार राघव लखनपाल को बीस हजार वोटों से हराया था.
सहारनपुर लोकसभा के तहत पांच विधानसभा क्षेत्र आते हैं. साल 2022 में हुए विधानसभा चुनावों में तीन सीटों पर बीजेपी और दो सीटों पर समाजवादी पार्टी ने जीत हासिल की थी. बीजेपी ने सहारनपुर नगर, देवबंद और रामपुर विधानसभा सीटें जीती थीं जबकि सहारनपुर देहात और बेहट विधानसभा सीटें समाजवादी पार्टी के खाते में गई थीं. लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस पार्टी का गठबंधन है इसलिए कांग्रेस उम्मीदवार की स्थिति मजबूत मानी जा रही है.
कांग्रेस उम्मीदवार इमरान मसूद इससे पहले 2014 में भी कांग्रेस के टिकट पर यहां से लोकसभा चुनाव लड़ चुके हैं और उस वक्त भी उनका मुकाबला बीजेपी के राघव लखनपाल से ही था. लेकिन राघव लखनपाल ने उन्हें करीब 68 हजार वोटों से हरा दिया था. 2019 में बीएसपी के हाजी फजलुर्रहमान ने राघव लखनपाल को करीब बीस हजार वोटों से हराया था लेकिन बीएसपी ने इस बार फजलुर्रहमान की बजाय माजिद अली को उम्मीदवार बनाया है.
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इस सीट के सामाजिक समीकरणों की बात करें तो यहां करीब एक तिहाई वोटर मुस्लिम समुदाय से आते हैं जबकि करीब 15 फीसद मतदाता दलित हैं. सवर्ण मतदाताओं की संख्या भी करीब इतनी ही है. बाकी पिछड़ी जातियां हैं जिनमें गुर्जर, सैनी इत्यादि हैं.
क्षत्रिय समाज के लोग बीजेपी से नाराज हैं
सहारनपुर जिले के ननौता कस्बे में तीन दिन पहले क्षत्रिय महाकुंभ का आयोजन हुआ था जिसमें कई राज्यों के लोग पहुंचे थे. सम्मेलन में बीजेपी को हराने के लिए एकजुट होने का आह्वान किया गया. क्षत्रिय समाज के लोग कई बातों से बीजेपी से नाराज हैं और अब खुलकर विरोध में उतर आए हैं. विरोध की मुख्य वजह कुछ क्षत्रिय उम्मीदवारों का टिकट कटना और केंद्रीय मंत्री पुरुषोत्तम रुपाला का क्षत्रियों के खिलाफ दिया एक बयान बताया जा रहा है.