नवेद शिकोह
इन कयासों ने अब बोर कर दिया है। सड़क पर आए बिना किसी के संभावित घरेलू झगड़े को चौराहे पर लाओगे तो दूसरा आपका ही गिरेबान पकड़ कर कहेगा कि मैं घर में एक्शन मूवी देख रहा था और तू सड़क पर चिल्ला रहा है कि हमारे घर में झगड़ा हो रहा है !
चचा- भतीजे किस्म का कोई सियासी झगड़ा जब घर से निकल के सड़क पर आ जाए तब ही खबर भी लिखिए और विश्लेषण भी कीजिए। क्योंकि कयासों का दूसरा नाम अफवाह है इसलिए पत्रकारिता को अफवाहबाजी से दूर रहना चाहिए है। फिर भी यदि आपको किसी पिक्चर का इंतेजार है तो आप पॉपकॉर्न के चटकारों के साथ ये न्यूज़ रील देखिए –
दवा खाई तब भी फोड़ा नहीं सूखा तो मैंने दर्द से निजात के लिए इसे फोड़वा देने का इरादा किया ! डॉक्टर ने कहा कि कच्चा फोड़ा नहीं फूटता। एक मुद्दत के बाद जब ये पूरी तरफ से पक जाएगा तब ही इसकी सर्जरी हो सकती है या सर्जरी नहीं की तो मवाद ख़ुद उबलने लगेगा और ये फोड़ा ख़ुद फूट जाएगा।
लब्बोलुआब ये है कि हर जगह तमाम चीजें पर्दों के पीछे खामोशी से पकती रहती हैं। लेकिन पकने की एक लिमिट होती है और ये फूटती हैं। हर ग़ुबार और उबाल की एक मुद्दत होती है। गर्भ मे पल रहा ताकतवर और तंदुरुस्त शिशु पूरे नौ महीने बाद ही दुनियां में आता है।
और अब रवायत ये बनती जा रही है कि यूपी की ताकतवर सरकारों के साढ़े चौथे साल पर साढ़े साती सवार होती है और ग़ुबार, उभार उभरता है। अंदर ही अंदर घुट रहा गुस्से, कुंठा, प्रतिशोध, वादाख़िलाफी और अपमान के मवाद का फोड़ा फूटने की स्थिति मे आ जाता है।
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जनता तो पांच साल बाद जनादेश देती है लेकिन सत्तारूढ़ पार्टी और सरकार के अंदर चार साल के बाद ही टकराव-बिखराव, बदलाव और अलगाव के आसार दिखने लगते हैं। या फिर अंतिम यानी पांचवे वर्ष कोई बड़ा कांड अथवा घोटाला सत्तारूढ़ पार्टी को दुबारा सत्ता मे नहीं आने देता।
कमोबेश उत्तर प्रदेश में ऐसा करीब साढे तीन दशक से अधिक अर्से से हो रहा है। तीस-पैतीस साल से ज्यादा मुद्दत ग़ुजर चुकी है कि यूपी की कोई सरकार रिपीट नहीं हुई।
सरकार रिपीट नहीं होने की कई वजह होती हैं। यहां दिलचस्प बात ये रही है कि अच्छा काम किया या बुरा काम किया, इसके बजाय यूपी में जीत-हार के कुछ अलग-अलग कारण भी होते हैं।
मसलन
# इस बार धर्म का कार्ड चल गया
# फिर अगली मर्तबा जातिवाद का फार्मूला निर्णायक रहा
# गठबंधन सरकारों में आपसी तालमेल टूटने का असर दिखा
# बड़ा घोटाला ले डूबा
# बहुमत की ताकतवर सरकारों में आपस मे ही सिर फुटव्वल
यूपी में भाजपा की सरकारों के इतिहास पर नज़र डालिए तो हर सरकार में आपसी सिर फुटव्वल खूब हुआ। योगी आदित्यनाथ पहले मुख्यमंत्री हैं जिनके चार साल तो ख़ैरियत से गुजार ही गए। पूर्व की भाजपा सरकारों पर नजर डालिए तो कल्याण सिंह, राम प्रसाद गुप्ता और राजनाथ सिंह अलग-अलग कारणों से तीन वर्ष भी पूरे नहीं कर सके।
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भाजपा में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल विहारी वाजपेयी और तत्कालीन यूपी मुख्यमंत्री कल्याण सिंह में विवाद के होते भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व द्वारा यूपी का मुख्यमंत्री बदल देना भी सब को याद होगा।
उत्तर प्रदेश की सियासत का इतिहास टटोलिये तो यहां अस्सी के दशक के अंत से अब तक कभी धर्म तो कभी जातिवादी सियासत परवान चढ़ती रही। सपा-भाजपा और बसपा सबको बारी-बारी धर्म-जाति की सियासत ने सत्ता दिलवाने का चांस दिया।
दिलचस्प बात ये है कि यूपीवासी इन साढ़े चार सालों में हर बार सत्ता का टेस्ट बदलते हैं। जो इस बार धर्म के बहाव में आकर वोट देता है वो अगली बार जाति की घुट्टी का असर दिखाता है। यहां क्षेत्रीय दलों की सरकारे रिपीट नहीं होने की दो वजह रहीं थी।
सत्ता के चौथे साल में कोई बड़ी घटना या घोटाला खुल जाना। जैसी की तत्कालीन मुलायम सरकार में नोएडा के निठारी कांड और मायावती की सत्ता के अंतिम वर्ष एन.आर.एच.एम जैसे घोटाले।
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ऐसा कोई बड़ा घोटाला या घटना का मिस मैनेजमेंट नहीं भी हो तो सत्ता और सत्तारूढ़ पार्टी की बदनामी दूसरी सूरत में उभर जाती है। सत्ता के अंतिम साढ़े चार साल होते ही सरकार और संगठन के बीच पक रहा विवाद जब रुक नहीं पाता और लड़ाई सड़क पर आ जाती है तो फिर पार्टी जनाधार अर्श से फर्श पर आ जाता है। जैसा कि पिछली सपा की अखिलेश सरकार के साढ़े चौथे वर्ष चचा-भतीजे का झगड़ा सड़क पर आ गया था।
वर्तमान में साढ़े चार साल की सत्ता पर फिलहाल साढ़े साती सवार होने के कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं हैं। लेकिन सियासी गतिविधियों को देख कर बड़े-बड़े राजनीतिक पंडित कह रहे हैं कि उन्हें किसी बड़े तूफान से पहले का सन्नाटा दिख रहा है।
आपसी टकराव की बारिश के बादलों की गड़गड़ाहट की आवाज भले ही मंजरे आम तक नहीं पंहुची पर विशेषज्ञों की पारखी निगाहें तूफान का इशारा करते सुर्ख आसमान को देख पा रही हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है, ये उनके निजी विचार है)