डा. रवीन्द्र अरजरिया
देश की व्यवस्था को पारदर्शी बनाने का दावा करने वाली सरकारों ने नागरिकों के विश्वास को ठगने का हमेशा से ही प्रयास किया है। गुलामी के लम्बे काल ने स्वाधीनता के मायने कहीं गुम कर दिये हैं।
लोग स्वतंत्रता और वास्तविक स्वतंत्रता में अंतर करना भूल गये हैं। थोपी गई व्यवस्था को ही सौभाग्य मानने वाली मानसिकता को आज भी अंगीकार किया जा रहा है।
दूरदर्शिता भरी नीतियों को सभी सरकारों ने जानबूझकर अनदेखा किया है। परिणाम सामने है। पहले गोबर की खाद के स्थान पर रासायनिक खादों के प्रयोग हेतु दबाव बनाया गया। पालीथीन के उपयोग को व्यवहार में उतारने की पहल हुई। बाद में इन्ही के बहिस्कार की घोषणा की जाने लगी। राष्ट्र भाषा हिन्दी को अंग्रेजी से दबाने की व्यवस्था तो संविधान निर्माण के दौरान ही कर दी गई थी। तभी तो अनेक कार्यालयों में केवल और केवल अंग्रेजी में ही कार्य किये जाते हैं।
वहां राष्ट्र भाषा अस्तित्वहीन हो जाती है। ऐसे में अनेक विभागों के मनमाने आचरणों परे लगाम लगाना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है। हाल में जिस तरह से सड़क दुर्घटनाओं की संख्या में इजाफा हुआ है उसके कारणों की विवेचना न करके उन्हें मनमानी योजनानुसार रोकने के हेतु बडे़ बजट आवंटित कर दिये जाते है। सड़क सुरक्षा के नाम पर सप्ताह, पखवाडे़ और माह, मनाने की घोषणाएं होने लगती हैं।
उन्हें आंकडों के आइने में सफलता दिखाने के लिए दो पहिया वाहनों पर हैलमैट से लेकर चार पहिये के व्यक्तिगत वाहन चालकों से सीट बैल्ट के नाम पर जुर्माने वसूले जाते हैं। चौराहों से लेकर राजमार्गों तक पर पुलिस का अमला तैनात रहता है।
परिवहन अधिकारी की गाडियों में उनके अधीनस्थ खडे़ देखे जाते हैं। इन सारे तामझाम के मध्य ट्रैक्टर, ट्रक, बसें, आटो रिक्सा आदि खुले आम यातायात नियमों की धज्जियां उड़ाते घूमते रहते हैं।
जांच के नाम पर सभी वाहनों पर समदृष्टि डाली जाना चाहिये परन्तु ऐसा नहीं होता। उदाहरण मौजूद है कि जांच करने वाले अधिकारियों की गाडियां ही नियमों के विरुध्द स्थिति में होतीं हैं। उन गाडियों के चालकों के पास ड्राइविंग डाइसेंस, वर्दी, जूते आदि ही नहीं होते।
सरकारी योजनाओं की व्यवहारिक परिणति से आंकडों में भले ही उपलब्धियां आसमान छू लेती हों परन्तु सड़कों पर होने वाली दुर्घटनाओं की संख्या में कमी न आती है और न ही आयेगी।
इन दुर्घटनाओं के पीछे के मूल कारणों को जानने के लिए वातानुकूलित कमरों की नहीं बल्कि स्थलीय समीक्षा की आवश्यकता होती है जिसे बडे़ अधिकारी और उनसे भी बडे़ अधिकारी गैरजरूरी समझते हैं।
सामान्य नागरिक भी जानता है कि सड़कों पर बनाये गये गति अवरोधक अधिकांश स्थानों पर मानकों का मुखौल उड़ा रहे हैं। हजारों स्थानों पर तो इतने ऊंचे गति अवरोधक होते हैं कि धीमी गति से गुजरने वाली कारों तक के चैम्बरों पर ठोकर लगती है।
मनमाने ढंग से बनाये गये इन हजारों ब्रेकरों पर संकेतिक बोर्ड न लगे होने से तेज रफ्तार से गुजरने वाली गाडियां दुर्घटनाग्रस्त हो जाती हैं। मगर इन दुर्घटनाओं की जांच करने वाले अधिकारी भी इन मनमाने गति अवरोधकों, वहां संकेतक न होने को कभी उत्तरदायी नहीं मानते हैं।
दुर्घटना में हुई मौतों के लिए कभी भी सड़क निर्माण करवाने वाले विभाग पर, निर्माण करने वाली कम्पनी पर और इस निर्माण को मानक सहित पूर्ण होने का प्रमाण पत्र देने वाले अधिकारी पर गैर इरादतन हत्या का आरोप नहीं लगाया। जांच करने वाला विभाग और सड़क निर्माण करवाने वाला विभाग, दोनों ही तो सरकारी हैं। सरकारी अधिकारी भाई-भाई की तर्ज पर काम करते हैं।
तभी तो सरकारी विभागों में काम करने वाले अधिकांश लोग अपने वाहनों की नम्बर प्लेट पर केवल विभाग का नाम लिखकर खुले आम घूमते है। उन्हें न तो वाहन के चालान का डर रहता है और न ही जुर्माने की आशंका।
दुर्घटनाओं में मृत्यु को प्राप्त हुये लोगों के भाई भले ही चिल्ला-चिल्ला कर इन विभागों को दोषी ठहरायें परन्तु सुनने वाला कौन है। राज मार्गों से लेकर छोटी-छोटी गलियों तक में ऐसे ही अमानक गति अवरोधकों की बाढ़ सी आ गई है।
रोड टैक्स जमाकर के वाहन चलाने वालों से टोल के नाम पर जबरजस्ती अतिरिक्त शुल्क वसूलने तो अब वैध ठहराया जा रहो है। इन टोल रोड श्रंखला में भी अधिकांश मार्ग क्षतिग्रस्त हैं।
कुछ मरम्मत के नाम पर मार्ग परिवर्तित कर रहे हैं तो कुछ अधूरे होते हुए भी परेशानी का कारण बने हुए हैं परन्तु टोल सभी पर वसूला जा रहा है। वाहन चालक यदि इन टोल प्लाजा पर शिकायत दर्ज करने हेतु पुस्तिका मांगता है तो वहां मौजूद ठेकेदार के बाउंस तत्काल सक्रिय हो जाते हैं।
बेचारा शिकायतकर्ता अब सड़क की दुर्दशा के स्थान पर स्वयं से हुई अभद्रता की शिकायत लिए घूमता रहता है। आश्चर्य तो तब हुआ जब घाटी पर भी गति अवरोधकों का निर्माण होने लगा। अनेक चढाई वाले मार्गों पर भारी-भारी गति अवरोधक अस्तित्व में आ चुके हैं।
ऊपर की ओर जाने वाले भारी वाहनों को पिकअप बनाकर चढाना पडता है, ऐसे में यदि पिकअप टूट गया तो वाहन को चढाना मुश्किल होता है और यदि पिकअप के साथ चढाया तो एक्सल टूटने का खतरा पैदा हो जाता है।
फिर समाधान क्या है, इस प्रश्न पर उत्तरदायी विभाग मौन हो जाता है। दूसरी ओर नियमों का मुखौल उडाकर चलने वाले वाहन अपने अंदाज में ही मस्त हैं। कोई दायीं ओर सडक को घेर कर चलता है तो कोई बायीं ओर से ओवर टेक करता है।
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कोई ओवर लोड माल के साथ दौडता है तो कोई बिना फिटनेश और परमिट के सवारियां ढो रहा है। डम्पर, टैक्टर और आटो रिक्शा के वर्गों में तो नियमों का पालन करने वाले विरले भी होंगे।
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लम्बी दूरी तय करने वाले ट्राला चालक तो एक्सप्रेस-वे पर भी मनमानी जगह वाहन खडा करके सो जाते हैं, भले ही पीछे से आने वाले तेज रफ्तार वाहन दुर्घटना हो जायें। उसमें यात्रा करने वाले मौत की नींद सो जायें। मगर इन मनमानियों पर पावन्दी लगने की पहल अभी तक नहीं हुई है और न ही निकट भविष्य में होते दिख रही है।
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सत्ताधारी दल अपनी राजनैतिक नीति से काम कर रहे हैं और अधिकारी अपने ढंग से। ऐसे में देश का नागरिक मुंह पर कपडा बांधकर थोपी गई व्यवस्था सहने को मजबूर कर दिया गया है, शायद यही है हमारी स्वतंत्रता के वास्तविक मायने।