अभिषेक श्रीवास्तव
ईमानदारी अवगुण है। ईमानदारी अमन चैन के लिए खतरा है। कानून व्यवस्था बिगड़ने का डर रहता है, अगर जनता के बीच से कोई अचानक ईमानदार निकल आए। वैसे ईमानदार सभी हैं अपने यहां लेकिन ज़ाहिर नहीं करते। अंतरात्मा की आवाज़ को दबाकर रखते हैं ताकि व्यवस्था सुचारु रूप से चलती रहे। कुछ लोगों को अंदाज़ा ही नहीं होता कि खुद को ईमानदार दिखाने के क्या परिणाम हो सकते हैं। दुनिया भर के पाप करेंगे लेकिन ऐन मौके पर जब पाप करने का मौका आएगा, राजा हरिश्चंद्र बन जाएंगे।
मेरे नाना कहते थे कि ”कहले से धोबिया गदहवा पर ना चढ़त”। लोग भी किसी के कहने पर, उकसाने पर, ईमानदार नहीं बनते। भीतर से आवाज़ आने पर बनते हैं। अपने दिमागी ख़लल के चक्कर में कबीर सिंह जिंदगी भर पाप करते रहे लेकिन जब झूठ बोलने का मौका आया तो जज के सामने पलट गए। ईमानदार बन गए। बोल दिए कि हां जी, मैंने दारू पीकर ऑपरेशन किया था। डॉक्टरी का लाइसेंस कैंसिल हो गया। बड़ा भाई समझदार था। ईमानदार था। उसने पैसे खिलाये थे, बेईमानी कैसे करता। एक पड़ाका कबीर सिंह को जड़ दिया सच बोलने के लिए।
ईमानदारी की कीमत खुद को चुकानी पड़े तो फिर भी ठीक है। दूसरा कोई आपकी ईमानदारी की कीमत चुकाए यह कतई अनैतिक है। ममता दीदी अचानक ईमानदार बन गईं और मणिमाला की जान खतरे में पड़ गई। दीदी ने पार्टी में फ़रमान जारी किया कि जनता से वसूला हुआ पैसा लौटाओ। जैसे ही फ़रमान आया, भाजपा वालों की सामूहिक ईमानदारी जाग गई। उन्होंने बीरभूम से तृणमूल की पंचायत सदस्य मणिमाला का घर घेरने का प्लान बना लिया।कहां से लौटाएगी बेचारी गरीब ? कोई गाड़ के तो रखा नहीं है। मणिमाला गर्भवती थीं, लेकिन भागना पड़ा।
अभी बीस दिन पहले की बात है। असम में 590 किलो गांजा पकड़ा गया था। असम पुलिस की ईमानदारी जाग गई। उसने ट्वीट किया- ”किसी का 590 किलो गांजा खो गया है। हमारे पास है। आकर ले जाओ।” जनता, पुलिस जितना ईमानदार होती तो कब का लोकतंत्र आ चुका होता। कोई नहीं आया क्लेम करने। मान लीजिए जिसका गांजा था उसकी भी ईमानदारी जाग जाती तब क्या होता? पुलिस की इस साफ़गोई पर सोशल मीडिया लहालोट हो गया, लेकिन गांजे का मालिक पुलिस के पास नहीं ही पहुंचा।
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ईमानदारी एक संक्रामक बीमारी है। असम से चला संक्रमण यूपी पहुंचा तो नोएडा पुलिस ने अपने ही महकमे के सिपाहियों को भ्रष्टाचार के आरोप में निलंबित कर दिया। बिहार और यूपी के बीच शाश्वत होड़ है ईमानदारी की। बिहार इस मामले में हमेशा आगे निकल जाता है। वहां के डीजीपी ने एक नहीं, छह नहीं, सीधे 22 सिपाहियों को निपटा दिया। ई्मानदारी है ही ऐसी चीज़। तुम्हारी कमीज़ मेरी कमीज़ से सफेद कैसे? ईमानदारी प्रतिस्पर्धा को जन्म देती है। प्रतिस्पर्धा केवल गलाकाट होती है। कभी पैरकाट या बालकाट प्रतिस्पर्धा के बारे में सुना है? गरीब सिपाहियों का गला काट लिया गया। काटने वालों को ईमानदारी का तमगा मिल गया।
करीब दो सौ लोग लू से मर गए, डेढ़ सौ बच्चे बुखार से, लेकिन बिहार में जनता की ईमानदारी अब भी नहीं जाग रही। अच्छा है। कारण सिर्फ एक है। प्रशासन बहुत ईमानदार है। वह किसी को मरने देना नहीं चाहता। जनता बेईमान हुई तो क्या, दरोगा तो ईमानदार है। तो दरोगा ने राजा को सलाह दी कि मालिक, लोग न घर से बाहर निकलेंगे, न चौराहे पर खड़े होकर गप करेंगे, न लू से मरेंगे, ऐसा नुस्खा है मेरे पास। राजा ने बोला लागू करो। गया में धारा 144 लगा दी गई। अब लू से मर कर दिखाओ। जनता फिर भी बेईमानी से बाज़ नहीं आ रही। बीच धारा अकेले में मर जा रही है।
ऐसे थोड़े ही कोई मर सकता है!आपकी देह पर स्टेट का अधिकार है। सुप्रीम कोर्ट में सरकारी वकील ये कह चुके हैं। ऐसी ईमानदारी इस युग में दुर्लभ है। इस बयान का बहुत विरोध हुआ था। शांति व्यवस्था खतरे में आ गई थी। ईमानदारी कोलाहल पैदा कर देती है। ईमानदार आदमी दिल की आवाज़ सुन ले तो मरने-मारने पर उतारू हो जाता है।
अब दिल्ली में पिछले दो दिनों में हुए सीरियल क़त्ल को ही लीजिए। अगर घरों में धारा 144 लगा दी जाए, पांच आदमी एक कमरे में एक जगह इकट्ठा ही न होने पाएं तो भला कौन दिल की आवाज़ सुनकर बीवी-बच्चों पर छुरा चला पाएगा? बहुत काम की चीज़ है यह धारा। ईमानदारी को भांप लेती है। पहले ही बांध देती है। जहां कहीं ईमानदारी की आशंका हो, अशांति की गुंजाइश हो, मरने-मारने का सीन हो, घर में या बाहर, सरकार को ईमानदारी से 144 लगा देना चाहिए।
अपने आप में जिंदगी का एक पैकेज है एक सौ चउवालिस। अव्वल तो जनसंख्या की समस्या से हलकान लोगों के प्रचार अभियान का खर्चा-पानी बचेगा। दूसरे, सड़क पर यातायात सुचारु रहेगा। एक मोटरसाइकिल पर पूरा परिवार नहीं बैठेगा। भीड़ नहीं होगी तो हर एक आदमी पर निगरानी रखना भी सरकार के लिए आसान होगा। लू तो खैर नहीं ही लगेगी। ठंड में भी जान बचेगी। बारिश में भी लोग नहीं मरेंगे, जैसे अभी राजस्थान में रामकथा सुनने के चक्कर में कई मर गए। एक जगह इकट्ठा नहीं होते, अलग-अलग समूहों में न्यूनतम लोग बैठते तो बारिश में उठकर भाग सकते थे। तम्बू भी छोटा होता, गिरता नहीं तूफान में।
इस देश में केवल पैदा होने पर ही नहीं, मरने पर भी लगाम कसने की जरूरत है। ऐसे कैसे आप मर सकते हैं? आपको मरने का शौक ही है तो कोई नहीं, हम इतने सदाशय तो हैं ही कि आपको पकड़ कर भीतर करने के बजाय केवल पैर में गोली मार देंगे। वैसे भी, ईमानदार पहलों की शुरुआत हमेशा नीचे से होती है।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं )