Tuesday - 29 October 2024 - 4:09 PM

आरक्षण के भीतर आरक्षण

केपी सिंह

आरक्षण की व्यवस्था को लेकर पिछले कुछ वर्षो से वैचारिक स्तर पर उठा पटक तेज है। सोशल मीडिया पर सक्रिय ब्रिगेड के निशाने पर इस्लाम और मुसलमानों के बाद आरक्षण की व्यवस्था चढ़ी हुई है।

देश के बदलते राजनैतिक और सामाजिक परिदृश्य से न्यायपालिका भी प्रभावित हो रही है। उच्चतम न्यायालय द्वारा दिये गये ताजा फैसले में कहा गया है कि आरक्षण के भीतर आरक्षण देने के लिए राज्य सरकारें प्रावधान कर सकती हैं जबकि इसके पहले उच्चतम न्यायालय भी ऐसी इजाजत देने से इंकार करता रहा था।

2004 में ईवी चिन्नैया मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि राज्य सरकारों को यह अधिकार नहीं है कि वे आरक्षण में वर्गीकरण करें। पांच सदस्यीय तब की खण्ड पीठ की राय को पलटते हुए जस्टिस अरूण मिश्रा की अध्यक्षता वाली इतने ही सदस्यों की पीठ ने अब कहा है कि राज्य सरकारों को एससी/एसटी आरक्षण में वर्गीकरण का अधिकार है। हालांकि इस पर अब सात सदस्यीय या इससे बड़ी बैंच विचार करेगी। इसके पहले राज्यों में ओबीसी के आरक्षण में उप वर्गीकरण के प्रस्ताव भी विचाराधीन हैं।

बदलते वैचारिक परिवेश के बीच संघ प्रमुख मोहन भागवत ने आरक्षण को लेकर परस्पर विरोधी वर्गो में संवाद की आवश्यकता जताकर हलचल पैदा कर दी थी। जिससे इस मुद्दे को एक बार फिर हवा मिल गई और घमासान तेज हो गया था। हालांकि दलित संगठनों ने उनके सुझाव का कड़ा विरोध किया था।

इसके पहले आरक्षण पर संघ प्रमुख के बयान के कारण ही भाजपा को बिहार विधान सभा के चुनाव में भारी नुकसान झेलना पड़ा था। जिसकी वजह से भाजपा सतर्क थी और संघ प्रमुख के संवाद के बयान पर उसने त्वरित स्पष्टीकरण जारी कर डाला था। लेकिन इस मामले का पटाक्षेप नहीं हुआ है।

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वैसे भी केन्द्रीय मंत्रिमंडल, राज्यों के मंत्रिमंडल, राज्यपालों के चयन और प्रशासनिक पदस्थापनाओं में भाजपा जिस व्यवहारिक नीति का परिचय दे रही है उसमें तो योग्यता के नाम पर सर्व प्रतिनिधित्व के सिद्धांत की ही बलि चढ़ाई जा रही है।

इसे भाजपा में प्रभावी वर्ग सत्ता के दृष्टिकोण के अनुरूप देखा जाना चाहिए। भले ही वंचितों का भी वोट बड़ी संख्या में भाजपा को चुनावों में मिला हो जो बहुजन हैं लेकिन भाजपा में नीतियों का नियमन सवर्ण सत्ता में विश्वास रखने वाली ताकतें ही करती हैं इसमें दो राय नहीं होनी चाहिए। इनके युवाओं की कटु अभिव्यक्ति आरक्षण को लेकर सोशल मीडिया पर देखी जाती है। वे खुलेआम आरक्षण से लाभांवित वर्गो और व्यक्तियों के प्रति विष वमन करते हैं, उनके लिए हीन भावना दिखाते हैं और राष्ट्र के विकास में उन्हें बड़ी रूकावट जताते हैं।

कमजोर वर्गो के प्रति जो सहानुभूति का दृष्टिकोण रहता था वह हाल के वर्षो में पूरी तरह तिरोहित हुआ है। जिसके पीछे कई कारको का योगदान है। बल्कि तिक्तता इतनी बढ़ चुकी है कि कई बार सोशल मीडिया पर सिविल वार जैसे सीन उभरने लगते हैं। व्यवस्था में सभी को भागीदारी के न्यायपूर्ण दृष्टिकोण की अवहेलना के प्रति व्यवहारिक स्तर पर जताये जा रहे इस तरह के समर्थन ने हठधर्मिता को और उग्र किया है। बहरहाल यह देश के लिए शुभ संकेत नहीं है।

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तथापि आरक्षण की व्यवस्था में सुधार का तकाजा भी समय की मांग है। जिससे मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है। खासतौर से वैश्वीकरण के तेज प्रतिस्पर्धि माहौल में। आरक्षण का लाभ अनु0जाति या जनजाति हो अथवा पिछड़े वर्ग कुछ जातियों तक ही सिमट गया है। जबकि कई जातियां ऐसी हैं जिन्हें इसका न्यून लाभ ही मिल सका है। इस तरह आरक्षण का वर्तमान प्रारूप बड़ी मछलियों द्वारा छोटी मछलियों को निगलने का पर्याय बन गया है। आरक्षण से लाभान्वित चंद जातियां इतनी समर्थवान हो चुकी हैं कि उनमें पिछड़ेपन को आंकना प्रवंचना की तरह है। यह आरक्षण की विसंगति का एक पहलू है।

दूसरा पहलू है कुछ परिवारों को पीढ़ी दर पीढ़ी उच्च संवर्गो में मिल रहा आरक्षण का लाभ जिससे इसकी व्यापकता प्रभावित हो रही है। होना तो यह चाहिए कि ऐसे परिवार स्वयं ही घोषणा करें कि वे आरक्षण से अपने को अलग करते हैं लेकिन इस त्याग के लिए जिस बड़प्पन की जरूरत है वह समाज में नैतिक वातावरण के अभाव में उत्पन्न करना संभव नहीं हो रहा है।

आरक्षण बनाम योग्यता का प्रश्न भी विचारणीय हो चुका है। न्यूनतम अंको पर भी आरक्षण का लाभ उठाने की अभिलाषा उचित नहीं कही जा सकती। बाबा साहब अम्बेडकर का उदाहरण ले जब तक उन्होंने भारत में शिक्षा ली उन्हें न्यूनतम अंक ही मिले क्योंकि यहां का वातावरण अछूतों के लिए हतोत्साहन में धकेलने वाला था।

विदेश में शिक्षा के लिए पहुंचने पर उन्हें उन्मुक्त वातावरण मिला, जिसमें आत्मसम्मान और स्वाभिमान का प्रदर्शन जारी रखते हुए उन्होंने ऐसी लगन और मेहनत से पढ़ाई की कि वे ही बाबा साहब सर्वोच्च मेरिट में स्थान बनाने लगे। अगर बाबा साहब जैसी कटिबद्धता उनके अनुयायी दिखाते तो उनमें भी प्रतिभा की कमी नहीं है। वे जनरल की मैरिट से ऊपर जाकर दिखा सकते हैं लेकिन ऐसा नहीं हो रहा। उनमें प्रतिस्पर्धा की कोई भावना नहीं है। उन्होंने आरक्षण की बैशाखी के लिए अपने को मोहताज बना लिया है। जिससे उनकी भी प्रतिस्पर्धा धूमिल हो रही है और सेवाओं की गुणवत्ताओं में भी गिरावट आ रही है।

खासतौर से दलितों में ऐसे युग पुरूष के अवतरण की आवश्यकता है जो उन्हें ऐसे मुद्दों पर जगा सकें, फटकार लगा सकें और आइना दिखा सकें। दूसरी ओर जनरल कास्ट को गाली गलौजनुमा भाषा में आरक्षितों को कोसने से बचना चाहिए। नौकरियों के सीमित होते अवसर के बीच आरक्षण के कारण उन्हें जो समस्यायें हो रही हैं उसकी कुंठायें हो सकती हैं। पर उन्हें कभी अपने आप को अनुसूचित वर्ग की जगह रखकर देखना चाहिए जिन्होंने सदियों तक अन्याय और भेदभाव झेला। सामाजिक एकता और सदभाव बनाये रखते हुए ही इन मुद्दों का सकारात्मक हल निकाला जाना संभव है।

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डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति Jubilee Post उत्तरदायी नहीं है।
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