Monday - 28 October 2024 - 8:42 PM

अविमुक्त क्षेत्र से विस्थापित कर दिए गए शिव की रात्रि

अभिषेक श्रीवास्तव 
एक होती है मुक्ति। दूसरी विमुक्ति। इन दोनों के पार है अविमुक्ति। ये सिर्फ काशी में मिलती है। इसीलिए बनारस मने काशी को अविमुक्त क्षेत्र कहा जाता है। इस अविमुक्ति का सीधा संबंध भगवान अविमुक्तेश्वर से है। अविमुक्तेश्वर महादेव शिव के गुरु हैं। राजनीतिक शब्दावली में लिबरेटेड ज़ोन यानी मुक्त क्षेत्र की कल्पना बीसवीं सदी में आयी। अपने यहां सांसारिक लौकिकता से मुक्ति और शिव से अविमुक्ति की अवधारणा सदियों पुरानी है। इसीलिए लोग काशी में मरने आते हैं क्योंकि यहां जो मोक्ष मिलता है, वो सामान्य मोक्ष नहीं है। शिव के संरक्षण वाला मोक्ष है, अविमुक्ति है, जहां मरने से पहले विषयी के कान में आकर गुरु फुसफुसा जाते हैं- बहुत हो गयल, अब चला गुरु!
पिछले हफ्ते काशी में अविमुक्तेश्वर महादेव का मंदिर तोड़ दिया गया। विश्वनाथ मंदिर के प्रांगण में दक्षिणी दरवाजे पर जहां नंदी बैठे हैं, वहां अविमुक्तेश्वर महादेव हुआ करते थे। विकास उनको निगल गया। बनारस चुप रहा। बीते तीन साल में ऐसे ही तमाम विग्रहों को तोड़ा गया और शिव के इस विशिष्ट मुक्त क्षेत्र को आधुनिक विकास का बंधक बना दिया गया, लेकिन बनारस चुप रहा। आज शिवरात्रि के मौके पर शिवलिंग के स्पर्श दर्शन पर रोक लगी हुई है, फिर भी बनारस चुप है। उत्सवरत है।
एक मित्र का फोन आया था तीन दिन पहले। मैंने पूछा कहाँ हो, वे बोले- मोक्ष की धरती पर। मैंने उन्हें सूचना दी कि मोक्ष परसों से मिलना कैंसिल हो गया गुरु, अविमुक्तेश्वर महादेव नहीं रहे। उन्हें खबर ही नहीं थी। वे बोले- तुम्हें कैसे खबर? शहर में हो क्या? मैंने बताया गुरु, बीस साल पहले जब शहर छोड़ के निकला था तो पंचतंत्र के बंदर की तरह अपना कलेजा मणिकर्णिका घाट के पीपल पर टांग आया था ताकि दिल्ली में किसी मगर का ग्रास न बन जाऊं। तुम लोग तो वहां रहते हुए भी कलेजाहीन हो गए यार!
सुरेश प्रताप सिंह जी की फेसबूक पोस्ट से साभार
अपने मित्र की ही तरह शहर में रहने वाले अधिकतर लोग अब मुक्त क्षेत्र की तरफ बरसों महीनों नहीं जाते। दुनिया भर के धंधों में लिप्त रहते हैं, मोक्ष की कल्पना में नाहक खुश रहते हैं और चुनाव में बनारस की तबाही के नाम पर वोट देते हैं। आज वे तमाम लोग शिवरात्रि मना रहे हैं जिन्हें नहीं पता कि राजा दिवोदास के बाद सदियों में एक दूसरा राजा आया है जिसने काशी से शिव को विस्थापित कर दिया है। काशी को बंधक बना लिया है। उन सब को शिवरात्रि वैसे ही मुबारक जैसे होली या दीवाली या न्यू ईयर। औपचारिकता है, शुभकामनाएं लीजिए।
शिव ने कभी नहीं सोचा होगा कि उनके भक्त इतने बेगैरत हो जाएंगे कि गुरु का मंदिर टूटने पर भी नहीं जागेंगे। शिव हमारे कल्याण के लिए तांडव कर सकते हैं लेकिन जब हम ही अपने अच्छे बुरे के प्रति अनभिज्ञ रहे, तो अकेला शिव क्या करेगा भला। हर राजा अपनी कांस्टीट्यूएंसी के बल पर जीता है। शिव की प्रजा उसी दिन उनसे विमुख हो गयी थी जब काशी में हर हर मोदी का नारा आया था। सात साल से स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद समझाए जा रहे हैं। वरिष्ठ पत्रकार सुरेश प्रताप सिंह जी तो किताब ही लिख दिए- उड़ता बनारस। लारी जी, डॉक्टर लेनिन, और न जाने कितने लोग बोल-बोल कर थक गए। अब लगता है बहुत देर हो चुकी है। शिव अकेले पड़ गए हैं। नंदी टूटे पड़े हैं एक कोने में।
मंदिर तोड़े जाने के अगले दिन एक दोस्त के माध्यम से मंदिर के महंत जी से बात हुई। वे दुखी थे कि एक आवाज़ नहीं उठी इस कुकृत्य के विरोध में। मैंने पूछा, स्वामीजी तो लगातार लिख-बोल रहे हैं। वे बोले, यही तो विडंबना है कि लोग उन्हें कांग्रेसी मानते हैं। अजीब नहीं है ये? अगर सभी शिवभक्त हैं, तो इसमें राजनीति कहाँ से घुस गई? लेकिन आज के काशी की हकीकत यही है कि जो चुप हैं, वे भक्त हैं। जो बोल रहे हैं, उन्हें कांग्रेसी करार दिया जा चुका है। बीच की ज़मीन गायब हो चुकी है।
(लेखक  janputh.com के संपादक हैं) 
Radio_Prabhat
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