शबाहत हुसैन विजेता
राष्ट्रीय मूल्यांकन एवं प्रत्यायन परिषद (nacc) ने जुलाई 2012 में जेएनयू को देश का सबसे अच्छा विश्विद्यालय माना था। सिर्फ 7 साल में यह देशद्रोहियों का विश्वविद्यालय बन गया। Nacc से भी ज़्यादा काबिल लोगों ने इस विश्वविद्यालय को बंद कराने की सिफारिशें शुरू कर दी हैं। राष्ट्रीय स्तर पर JNU के छात्रों को गुंडा और देशद्रोही साबित करने की होड़ लग गई है।
यह बहस चल पड़ी है कि टैक्स का पैसा जेएनयू पर न खर्च किया जाए। ज़्यादा उम्र के छात्र यहां कैसे पढ़ रहे हैं, इस पर नज़रें जमी हैं। विश्वविद्यालय की अस्मिता को बचाने और आने वाली पीढ़ियों को बढ़ी फीस का सामना करने से बचाने के लिए जो लड़कियां सड़कों पर संघर्ष करने के लिए निकलीं उन्हें रंडी जैसे अलंकारों से नवाजा जा रहा है।
JNU पर सरकार जो पैसा खर्च कर रही है उसे रोकने के लिए भीड़तंत्र लोकतंत्र पर हावी होने की कोशिश में लगा है।
मूर्तियां बनाने के लिए सरकार चीन को टैक्स का पैसा दे दे तो किसी को फिक्र नहीं है। झालर से लेकर तमाम इलेक्ट्रॉनिक सामान चीन से खरीदने की होड़ लगी है। किसी को फिक्र नहीं कि देश का पैसा दुश्मन देश में जा रहा है। फिक्र है तो बस यह कि उस विश्वविद्यालय की शिक्षा पर सरकार क्यों इतना धन खर्च कर रही है जिसे देशद्रोही विश्वविद्यालय का तमगा मिल चुका है।
जेएनयू देशद्रोही विश्वविद्यालय है। एएमयू देशद्रोही विश्वविद्यालय है। JNU के विद्यार्थी अधिकार मांगने के लिए संघर्ष करते हैं तो AMU पर जिन्ना से मोहब्बत का इल्जाम है। एएमयू में मस्जिद है तो मंदिर भी बनना चाहिए। एएमयू से मुस्लिम शब्द के स्टीकर को उखाड़ देना चाहिए। इसी बहस-मुबाहिसे के बीच BHU में संस्कृत पढ़ाने आये डॉ. फ़िरोज़ खान को बैरंग लौटा दिया गया। मुसलमान को संस्कृत पढ़ाने का अधिकार नहीं है। मुसलमान आखिर संस्कृत कैसे पढ़ा सकता है, वह भी एक हिन्दू यूनिवर्सिटी में।
कलाम सबको चाहिए लेकिन फ़िरोज़ खान को संस्कृत नहीं पढ़ाने देंगे। एएमयू में एडमिशन सबको चाहिए लेकिन उसके नाम से मुस्लिम का स्टीकर नोच देंगे।
शिक्षा के मंदिरों में बंटवारे और नफ़रत की फसल उगाने की तहरीक पिछले पांच-छह साल में ज़मीन से आसमान तक उठी है। जिसने कबीर और जायसी से लेकर गोपीचंद नारंग तक की रूह कंपा दी है। दरअसल चंद विश्वविद्यालयों के साथ छेड़खानी की यह मुहिम देश में अलगाववाद की आंधी चलाने की वह पहल है जिसकी आँच में सरकार भी जलेगी और देश भी झुलसेगा।
धर्म और शिक्षा दो अलग-अलग इमारतें हैं। दोनों अलग-अलग मसालों से तैयार होती हैं। दोनों को बचाये रखने के लिए अलग-अलग व्यवहार की ज़रूरत होती है। दोनों की जड़ें बहुत संवेदनशील हैं। इन जड़ों में नफ़रत का मट्ठा डाला जाता है तो यह अचानक कमज़ोर होकर भरभराकर ढह नहीं जातीं बल्कि यह भी आक्रामक हो उठती हैं। स्नेह से दुलराने वाले इनके हाथ भी राक्षसी प्रवृत्ति के हो जाते हैं। इनका विद्रूप रूप सामने आता है तो इंतहाई डरावना माहौल तैयार होता है। हिन्दुस्तान में वही माहौल तैयार करने का काम बहुत तेज़ी से चल रहा है।
मन्दिर और मस्जिद की तरह हिन्दी और उर्दू के बंटवारे की मुहिम चलाई जा रही है। गोपीचंद नारंग, कृष्ण चंदर, फिराक गोरखपुरी, कृष्ण बिहारी नूर, निर्मल दर्शन और कुमार क्षितिज तक वह नाम हैं जो उर्दू को उसका मुकाम दिलाने के लिए रात-दिन एक किये रहे। इन्होंने उर्दू की इज़्ज़त के लिए खुद को भी दांव पर लगा दिया तो राही मासूम रज़ा ने महाभारत के संवाद लिखकर ऐसा तूफान उठा दिया था जिसे थमने में बहुत वक़्त लगा। मलिक मोहम्मद जायसी के पद्मावत को क्या आग के हवाले किया जा सकता है। मुंशी प्रेमचंद के धनपत राय रूप को क्या भुलाया जा सकता है।
डॉ. फ़िरोज़ खान का BHU छोड़कर चले जाना कितना बड़ा नुकसान है, इस पर मंथन किया जाना चाहिए। मंथन इसलिए भी कि यह बनारस का मामला है। यह एक तरफ प्रधानमंत्री का संसदीय क्षेत्र है तो दूसरी तरफ उस्ताद बिस्मिल्लाह खान की कर्मभूमि है। यह वह शहर है जहां बाबा विश्वनाथ का द्वार बिस्मिल्लाह खान की शहनाई की आवाज़ के साथ खुलता था। ऐसे शहर से संस्कृत का विद्वान फ़िरोज़ खान बेइज़्ज़त होकर लौट गया। क्या बनारस में मोहब्बत का रस बनना अब बन्द हो गया । पूरे देश में नफरत की जो फसल बोई जा रही है क्या उसके बीज बनारस में भी बो दिए गए, इस पर ज़िम्मेदार सोचें।
जिस देश में ईश्वर के बाद गुरु को सबसे बड़ा दर्जा हासिल है, उस देश में गुरु की शक्ल में हिन्दू और मुसलमान तलाशे जा रहे हैं। कलाम भी तो मुसलमान थे, फिर उन्हें क्यों बनाने दी मिसाइल। क्यों बना दिया उन्हें देश का प्रथम नागरिक।
AMU खराब विश्वविद्यालय है तो फिर उसे बंद क्यों नहीं कर देते। JNU से देशद्रोही पैदा हो रहे हैं तो क्या कर रही हैं हमारी सुरक्षा एजेंसियां। जेएनयू ने जो हीरे समाज को दिए हैं उनका अपमान नहीं हो रहा है क्या। अपने अधिकार के लिए पुलिस की लाठियां खाने वाली लड़कियों को रंडी और वेश्या कहा जाता रहेगा और यह समाज चुपचाप सुनता रहेगा।
लॉर्ड मैकाले ने शिक्षा को नौकरी हासिल करने की टेक्नीक से जोड़ा था। उसने तय किया था कि छात्र शुरू से ही नौकरी को दिमाग में रखकर पढ़ाई करें और पढ़-लिखकर क्लर्की करें। मैथली शरण गुप्त ने इसी शिक्षा व्यवस्था पर कहा था कि शिक्षे तुम्हारा नाश हो तुम नौकरी के हित बनीं।
JNU, AMU और BHU ने मैकाले की सोच को धूल चटाते हुए प्रतिभाओं को चमकाने का सिलसिला शुरू किया। ताकि हमारे देश का भविष्य चमकता दिखाई दे, तो वह ताकतें फिर सक्रिय हो गई हैं जो आज़ाद हिन्दुस्तान में भी शिक्षा को गुलामी की मानसिकता से जोड़े रखना चाहती हैं। इन ताक़तों को अपने पैरों पर खड़ा होता हिन्दुस्तान रास नहीं आ रहा है। यह ताक़तें देश को कमज़ोर करने वाली ताकतें हैं। इन ताकतों ने अगर हिन्दुस्तान की आज़ादी में वेश्याओं के योगदान को भी देख लिया होता तो शायद यह औरत की इज़्ज़त करना सीख गए होते न कि सड़कों पर लाठियां खा रही हमारे-आपके घरों की लड़कियों के बारे में इस तरह की घटिया भाषा का इस्तेमाल।
देश को कमज़ोर करने की साज़िश सोची समझी योजना के तहत रची जा रही है। इस साजिश में कुछ पत्रकारों से लेकर प्रशासनिक अधिकारी तक शामिल हैं। यह एक तरफ देश को कमज़ोर कर रहे हैं तो दूसरी तरफ सरकार की वाहवाही भी कर रहे हैं। वास्तव में यह न देश के हैं न सरकार के। इनकी पहचान भी स्पष्ट है। अच्छे पदों पर बैठकर अच्छा वेतन ले रहे यही लोग वास्तव में देशद्रोही हैं।
तीन दशक पहले शिव ओम अम्बर ने कहा था :-
तुम हो हिन्दी के पुजारी हम हैं उर्दू के मुरीद,
बस इसी ज़िद में कलमकारों का फन जलता रहा।
हम कहीं हिन्दू कहीं मुस्लिम बने बैठे रहे,
धर्म की चौपाल से सारा वतन जलता रहा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेख में उनके निजी विचार हैं)
यह भी पढ़ें : शेर-ए-मैसूर पर कलंक के टीके की तैयारी
यह भी पढ़ें : सरकार से बाहर रहकर भी असरदार रहेंगे कांडा
यह भी पढ़ें : अलविदा निर्मल
यह भी पढ़ें : आखरी उम्मीद पर आरे
यह भी पढ़ें : गंगा उल्टी बहने लगी
यह भी पढ़ें: यह धर्म की अफीम नहीं अक़ीदत का मुद्दा है