शबाहत हुसैन विजेता
पश्चिम बंगाल में डॉक्टर से मारपीट हुई तो देश भर के डॉक्टर हड़ताल पर चले गए। किसी वकील पर हमला होता है तो वकील एक समुदाय की शक्ल में अराजकता का नंगा नाच शुरू कर देते हैं। टीचर से मारपीट होती है तो कालेज के गेट पर ताला लटक जाता है। कोई छात्रनेता पिटता है तो छात्रसंघ सड़कों पर उत्पात मचाता है। डॉक्टर, वकील, इंजीनियर, छात्र, टीचर सब संगठित हैं। पत्रकार इन सभी संगठनों की छोटी बड़ी खबरें लोगों तक पहुंचाता है लेकिन पत्रकार बिरादरी का हाल सबसे बुरा है।
जो पत्रकार अच्छे विपक्ष की भूमिका निभाता था, जो सोती हुई सरकार को जगाने का काम करता था, वह आज सरकार के पाले में खड़ा हो गया है। सरकार की गल्तियों पर पर्दा डालने में लग गया है। पत्रकार भी पार्टियों में बंट गए हैं। जिस पार्टी का पत्रकार होता है उसे अपनी पार्टी की सरकार में पारितोषिक मिलते हैं। वह पुरस्कारों से नवाजा जाता है। सूचना आयुक्त जैसे पदों पर बिठाया जाता है।
धन और पद की लालसा में कलम गिरवीं रखने का चलन चल निकला है। चैनलों पर सरकार के कसीदे पढ़ने बैठा पत्रकार सरकार का प्रवक्ता नज़र आने लगा है। जो पत्रकार सरकार की गल्तियों से पर्दा उठाता है, उसकी लिंचिंग शुरू हो जाती है। सोशल मीडिया पर सरकार समर्थित पत्रकारों का झुंड उस पर हमला बोल देता है।
पत्रकारिता के सबसे खराब दौर में कुछ पत्रकार अपने कलम का सौदा करने को तैयार नहीं हैं। वह लगातार जनता तक सरकार का सच पहुंचाने में लगे हैं। सरकार ऐसे पत्रकारों के अखबारों और चैनलों की मुश्कें कसने में लगी है। विज्ञापन रोक दिए गए हैं। कुछ नामचीन पत्रकारों की सरकार के निर्देश पर नौकरियां गई हैं। सरकार मीडिया समूहों के मालिकान को निर्देशित करने में लगी है कि इस पत्रकार को बेरोज़गार कर दो।
अपने पत्रकारीय उसूलों से समझौता न करने वाले एक पत्रकार रवीश कुमार को मैग्सेसे अवार्ड देने का एलान किया गया तो उनकी पत्रकार बिरादरी ने बधाई देने के बजाय मैग्सेसे अवार्ड की ही बखिया उधेड़नी शुरू कर दी। एक पत्रकार ने लिखा कि मैग्सेसे वही ना जो केजरीवाल को मिला था। एक पत्रकार ने लिखा कि रवीश में ज़रा भी नैतिकता है तो वह मैग्सेसे को लौटा दें। मैग्सेसे जैसे प्रतिष्ठित अवार्ड को दाउद इब्राहीम तक से जोड़ दिया गया।
रवीश का अवार्ड वास्तव में पत्रकारीय उसूलों के उस अध्याय का सम्मान है जो तमाम मुश्किलों के बावजूद जनता तक सच की तस्वीर पेश करने का काम करता है। रवीश का अवार्ड उस हिम्मत का सम्मान है , जिसमें रोज़ी रोटी छिनने का डर नहीं सताता, जिसमें जान चली जाने पर परिवार की स्थितियों पर कोलाहल नहीं होता।
पत्रकारिता के उसूलों पर दो दशक पहले सरकारी हथौड़े से हल्के वार शुरू हुए थे। तब सरकार ने पत्रकारों को कम दाम में प्लॉट और उस प्लॉट पर मकान बनाने के लिए लाखों रुपये के अनुदान दिए गए थे। पत्रकारों की इस पहली खरीद फरोख्त के साथ ही पत्रकारिता के उसूलों में दीमक लगनी शुरू हो गई थी। आज हालत यह है कि खबरों की समझ रखने वाले मज़बूत कलम के मालिक पत्रकार भी इन दिनों सरकारी यशगान में लगे हैं। सोशल मीडिया पर इन्होंने हिन्दू मुस्लिम का राग छेड़कर पूरे देश मे साम्प्रदायिक माहौल को बिगाड़ने का ठेका ले लिया है।
ऐसे हालात में प्रणय राय, पूण्य प्रसून वाजपेयी, रवीश कुमार और विनोद दुआ जैसे लोग जब खबर मतलब सच की बात करते हैं तो उन पर सरकार की तलवार लटक जाती है और उनकी अपनी बिरादरी भी उनके खिलाफ खड़ी नज़र आती है।
एक कहावत है कि डायन भी सात घर छोड़ देती है लेकिन लोकतंत्र में चौथे खम्बे की हैसियत हासिल करने वाला पत्रकार पुरस्कारों, पदों और अन्य लाभों के लालच में अपने मिशन से भटकता जा रहा है।
रवीश के अवार्ड की सराहना होनी चाहिए थी क्योंकि वह जिस सरकार को पांच साल से आइना दिखाते हुए सरकारी आग की तपिश झेल रहे थे उसी सरकार ने फिर वापसी कर ली और रवीश ने पत्रकारीय उसूलों के मद्देनजर तलवार म्यान में रखने से फिर इनकार कर दिया।
रवीश का मैग्सेसे हर उस पत्रकार का सम्मान है जो उसूलों से डिगने को तैयार नहीं है। रवीश का अवार्ड हर उस पत्रकार का सम्मान है जो तमाम अभावों के बावजूद बिकने को तैयार नहीं है।
रवीश का अवार्ड उन ताक़तों की हार है जिनका एजेंडा पत्रकारीय उसूलों को बेचकर अपने लिए सुविधाएं जुटाना है। रवीश का अवार्ड इस बात का पुख्ता सबूत है कि सच को लहूलुहान किया जा सकता है, मगर उसका कत्ल नहीं हो सकता।
रवीश को मैग्सेसे की घोषणा ज़रूर अब हुई है मगर जिन पलों में पत्रकारिता को जुनून की तरह जीने वालों ने यह तय कर लिया था कि न वह सरकार की गैर वाजिब बातों के आगे झुकेंगे और न ही अपने खुद के फायदे के लिए समाज का बंटवारा होने देंगे उन्हीं पलों में ग्रामीण इलाकों में गाये जाने वाले गीत ले मशालें चल पड़े हैं लोग मेरे गांव के, अब उजाले जीत लेंगे लोग मेरे गांव के, की आवाज़ें शहर की सड़कों से होती हुई लोगों के कानों तक पहुंचने लगी थीं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेख उनके निजी विचार हैं)
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