केपी सिंह
मुगल साम्राज्य के संस्थापक फरगाना के सुल्तान बाबर द्वारा अयोध्या में भगवान राम की जन्मभूमि के मंदिर को तोड़कर मस्जिद खड़ी करवा देने के मुकदमें में देश की सबसे ऊंची और अंतिम अदालत सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने ही वाला है। देश की राजनीति और समाज में यह फैसला क्या मोड़ लायेगा यह तो आने वाला वक्त तय करेगा। लेकिन यह जानना दिलचस्प होगा कि रामचरित मानस लिखकर राम कथा को घर-घर में लोकप्रिय बनाने वाले गोस्वामी तुलसीदास के रिश्ते मुगल साम्राज्य के साथ कैसे थे।
हिंदू-मुस्लिम दोनों समुदाय में सम्मानित थे गोस्वामी
बताया जाता है कि तुलसीदास का सम्मान हिंदू और मुसलमान दोनों करते थे। गोस्वामी जी के अकबर के प्रमुख सिपहसलार खानखाना अब्दुल रहीम से बहुत ही अपनत्व के संबंध थे। रहीम ने रामचरित मानस की प्रशंसा में दोहे भी रचे थे। कहा तो यहां तक जाता है कि गोस्वामी तुलसीदास की बादशाह अकबर से भेंट भी हुई थी लेकिन इसके भरोसेमंद प्रमाण नही हैं।
एक विवादास्पद किवदंती यह भी है कि गोस्वामी तुलसीदास जी ने एक दिन एक मस्जिद में शरण भी ली थी। भले ही इसमें सच्चाई न हो लेकिन उनकी रामचरित मानस और स्वयं का व्यक्तित्व साम्प्रदायिक भाई चारे का अवलंब था। इसलिए अयोध्या विवाद के फैसले के बाद परिपक्व विद्वानों को किसी तरह की कसीदगी के अंदेशे में कोई दम नजर नही आती।
कुरान और मानस के अवतरण की कथा का एक जैसा संयोग
यह भी मजेदार बात है कि कुरान और रामचरित मानस के अवतरित होने की कहानी एक जैसी है। जिस तरह से कुरान के बारे में कहा गया है कि पैगम्बर साहब पर जब जिब्राइल नाम के फरिश्ते की सवारी उतरती थी तो वे आयते दर्ज करने के लिए बैठ जाते थे। रामचरित मानस के बारे में भी लिखा गया है कि इसके दोहा-चौपाई भगवान राम के दूत बनकर हनुमान जी तुलसीदास से लिखवाते थे।
दक्षिण से उठी थी भक्तिकाल की लहर
भगवान राम का जन्म अयोध्या में हुआ था इस मान्यता के बावजूद आधुनिक रामजन्म भूमि आंदोलन को दक्षिण से अधिक बल मिला। जिसके संदर्भ में यह जानना भी दिलचस्प होगा कि भक्तिकाल में रामचरित मानस रचा गया और भक्ति युग का समारंभ उत्तर की बजाय दक्षिण भारत से हुआ जिसने पहली शताब्दी से लेकर नौवीं शताब्दी तक जोर पकड़ा। इसके सूत्रधार आलवार संत थे जो जाति-पात को नही मानते थे क्योंकि इन संतों में निम्न समझी जाने वाली जातियों के ही मनीषी शामिल थे। हालांकि गोस्वामी तुलसीदास वर्णाश्रम धर्म के कटटर हिमायती थे लेकिन उत्तर भारत का भक्तिकाल दक्षिण के भक्तिकाल की गंगोत्री से ही जन्मा था। जिसके प्रभाव से गोस्वामी तुलसीदास भी अछूते नही थे। परिणाम स्वरूप रामचरित मानस में उन्होंने वनवासियों से भगवान राम के प्रेम और शबरी प्रसंग के माध्यम से सामाजिक समता के ही संदेश को रामचरित मानस में मजबूत किया।
दक्षिण से हुआ राम पूजा का सूत्रपात
यद्यपि कालीदास ने भी रघुवंशम लिखा था लेकिन उत्तर भारत में राम शुरूआत में सिर्फ विष्णु के अवतार के रूप में पूजित होते थे। राम पूजा की स्वतंत्र परंपरा का प्रवर्तन कहां से और कैसे हुआ इसे जानना होगा। दक्षिण की आलवार संत परंपरा भी तीसरी-चौथी सदी तक नारायण की भक्ति करती रही। इसमें वामन अवतार के रूप में अवतार पूजा प्रारंभ हुई। इसके बाद इन्होंने कृष्ण और बलराम के अवतार की कल्पना की। राम की उपासना की नींव केरल के संत कुलशेखर ने डाली और पहली रामायण तमिल में लिखी गई। इसी क्रम में आलवार संतों के तमिल पदों का संपादन नाथ मुनि सामने लाये। जिसे प्रबंधम के नाम से जाना जाता है।
उत्तर भारत में राम पूजा का सूत्रपात करने का श्रेय 1299 में प्रयाग में जन्में रामानंद स्वामी को है। जिन्होंने दक्षिण में वर्षों तक प्रवास किया था और वहीं से वे रामकथा को लेकर आये थे।
निर्गुण और सगुण दोनों धाराओं के आराध्य रहे हैं राम
राम कथा की एतिहासिकता और मिथक के विवाद के बीच यह जानना भी गौरतलब है कि रामानंद स्वामी के शिष्यों में एक ओर सगुण भक्ति धारा के प्रचारक गोस्वामी तुलसीदास थे जिन्होंने नाथपंथियों और गोरखपंथियों की आलोचना निराकारवादी मताग्रह को लेकर की थी। तो दूसरी ओर कबीर दास और रविदास भी उनसे प्रेरित थे जो मानते थे कि उनके राम किसी राजा के पुत्र न होकर अकाल, अजन्मा और अनाम हैं। उन्होंने कहा कि सनातन धर्म में जिसे राम कहा गया है वही इस्लाम का रहीम है।
रामचरित मानस के सेतुबंध का प्रसंग वास्तविक है या लाक्षणिक यह तो राम ही जानें। लेकिन इन्हीं विशेषताओं के कारण राम कथा ऊंच-नीच की भावना के शिकार और हिंदू-मुसलमान के बीच बटे भारतीय समाज का सेतुबंध है इसमें कोई दोराय नही है।
दशानन की प्रतीकात्मकता और राम का पवित्रतावाद
रामानंद स्वामी के पहले जयदेव के कारण विष्णु के अवतारों में कृष्ण की लोकप्रियता चरम पर पहुंच गई थी। लेकिन इसमें माधुर्य का अत्यधिक समावेश रामानंद स्वामी को रास नही आया। इसलिए उन्होंने राम पूजा पर बल देकर रामोपासक वैरागियों को एक अलग संप्रदाय के रूप में संगठित किया। यहां महत्वपूर्ण यह है कि उस समय दीनहीन स्थिति में पहुंच चुके हिंदुओं को जहां एक ऐसे अवतार की जरूरत थी जो उनकी वीरता को उभार सके। वहीं उनके नैतिक बल को पवित्रता के द्वारा सुदृढ़ करने की भी आवश्यकता महसूस की जा रही थी।
इस परिप्रेक्ष्य में राम के रावण विजय को नई दृष्टि से देखने की जरूरत महसूस हो सकती है। रावण को दशानन कहा गया है। अगर राम कथा के इस पात्र के पीछे कोई प्रतीकात्मकता है तो शरीर की 10 इंद्रियां अध्यात्म में मानी गईं हैं जो कि व्यक्ति को भ्रष्ट बनाती हैं। जो इन दसों इंद्रियों पर विजय प्राप्त करता है वह अवतार मान लिया जाता है। राम कथा कहती है कि युवराज घोषित होने के बाद राम ने संकल्प लिया कि वे सैन्य बल का शासन स्थापित करने की बजाय नैतिक शासन स्थापित करेगें। जिसके लिए वे वनवास चले गये जहां उन्होंने मखमली सेज छोड़कर खुरदरी नंगी जमीन पर लेटकर नींद लाने का अभ्यास किया। सुस्वादु व्यंजन छोड़कर कंदमूल से तृप्त होने का अभ्यास किया।
इस तरह चौदह साल में पूर्ण इंद्रिय निग्रह के जरिये उन्होनें अपने को पवित्र बनाया। दशानन वध का वास्तविक अर्थ यही है। जिस दिन वह इस मामले में पूरी तरह समर्थ हो गये उस दिन को दशहरे के रूप में घोषित किया गया। इसके बाद मात्र अपने नैतिक प्रभा मंडल से उन्होंने पूरे प्रजा समाज को व्यवस्थित और संचालित किया। राज्य विहीन राज के इस रूप को ही रामराज कहा गया। दशहरे के बाद जो दीपावली आने का क्रम है वही रामराज है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले से क्या अयोध्या में एक नई धार्मिक क्रांति होगी जो कलयुग में रामराज की नई सुबह को लायेगी और जिसे गोस्वामी तुलसीदास की धारा से अलग निर्गुण धारा के संत रविदास ने बेगमपुरा के रूप में परिभाषित किया है, यह देखने और जानने की जिज्ञासा अब सभी को है।