विवेक कुमार श्रीवास्तव
देश की हाई-प्रोफाइल सीटों में से एक नवाबी नगरी लखनऊ में छह मई को मतदान है। बीजेपी का गढ़ माने जाने वाली इस शहर की सियासी आबो-हवा इस बार कुछ बदली सी नज़र आ रही है। वजह है कायस्थ मतदाता, नवाबी नगरी में इससे पहले के किसी भी चुनावों में कायस्थ वोटों को लेकर कभी इतनी चर्चा नहीं रही, जितना इस बार के लोकसभा चुनावों में दिख रही है।
दरअसल, समाजवादी पार्टी ने शत्रुघ्न सिन्हा की पत्नी पूनम सिन्हा को जबसे लखनऊ की सीट से अपना उम्मीदवार घोषित किया तभी से कायस्थ वोटों की चर्चा शुरू हो गयी है। वजह भी साफ है, चुनावों में लखनऊ के चार लाख कायस्थ मतदाता।
इस सीट पर 1991 से बीजेपी की जीत का जो सिलसिला शुरू हुआ उसे कोई भी दल चुनौती नहीं दे सका। इसके पीछे चार लाख की संख्या में मौजूद ये कायस्थ मतदाता ही हैं जिन्होंने बिना शर्त बीजेपी को सर्थन देकर इस सीट को बीजेपी का अभेद्य दुर्ग बना दिया है। लखनऊ ने अटल बिहारी को पांच बार संसद भेजा।
2009 में अटल की चरण-पादुका लिए लालजी टंडन ने जीत दर्ज की तो 2014 में बीजेपी के कद्दावर नेता राजनाथ सिंह ने यहां से जीत हासिल की और 2019 में दोबारा इसी सीट से जीत की आस लेकर चुनावी समर में मौजूद हैं।
किसे वोट करेगा कायस्थ
इस बार के चुनावों में कायस्थ समाज किधर जाएगा ? क्या अपनी बिरादरी देखकर कर सपा के पाले में जाएगा या फिर अपनी परंपरागत शैली में बीजेपी को ही वोट देगा? ये कुछ सवाल हैं जो इस वक्त लखनऊ की राजनीतिक फिज़ा में तैर रहे हैं।
सच कहें तो सवाल ये भी नहीं है कि कायस्थ किधर जाएगा ? सवाल ये है कि आखिर बीजेपी का कोर वोट बैंक समझे जाने वाले कायस्थ मतदाताओं को लेकर इस बार इतनी चर्चा और हाय-तौबा क्यों है ? इसकी दो वजहें हैं पहला बीजेपी का कोर वोट बैंक होने के बावजूद पार्टी में राजनीतिक हिस्सेदारी ना मिलने से कायस्थों की नाराज़गी, दूसरा कायस्थों में धीरे-धीरे ही सही मगर आ रही राजनीतिक जागरूकता। इस लोकसभा चुनाव में कायस्थ समाज अपनी राजनीतिक स्थिति को मजबूत करना चाहता है।
बीजेपी से बढ़ती नाराज़गी
बीजेपी का कोर वोटर जानने के बावजूद सपा और बसपा ने 2017 के विधानसभा चुनावों में कायस्थों की हिस्सेदारी का काफी ख्याल रखा था। बीएसपी ने लखनऊ की करीब आधी विधानसभा सीटों पर कायस्थ उम्मीदवार खड़े कर दिये थे। मगर राष्ट्रवाद का ठेका अपने कांधे पर उठाए कायस्थों ने बीजेपी को ही वोट दिया। जिसके चलते लखनऊ की नौ विधानसभा सीटों में से आठ सीट पर बीजेपी ने जीत दर्ज की। इस जीत के पीछे भी कायस्थ मतदाता ही थे, बावजूद इसके लखनऊ पश्चिम से एक मात्र कायस्थ विधायक सुरेश कुमार श्रीवास्तव को योगी मंत्रिमंडल में जगह तक नहीं दी गयी।
लोकसभा चुनावों से पहले अखिल भारतीय कायस्थ महासभा ने बीजेपी हाईकमान से पांच कायस्थ बाहुल्य लोकसभा सीटों पर कायस्थ प्रत्याशी की मांग की थी। ये सीटें हैं लखनऊ, कानपुर, गोरखपुर, इलाहाबाद और फूलपुर, इन लोकसभा सीटों में कायस्थ मतदाताओं की संख्या काफी अधिक है। मगर बीजेपी हाईकमान ने इस कान से सुना और दूसरे कान से निकाल दिया। वैसे भी इन पांच सीटों के अलावा वाराणसी, जौनपुर, फैजाबाद, मिर्जापुर, बरेली के साथ ही कई सीटों पर कायस्थ मतदाता बीजेपी की जीत में प्रमुख भूमिका निभाते हैं। इसके बावजूद लोकसभा चुनावों में सूबे की 80 सीटों में से एक भी सीट पर कायस्थ को बीजेपी ने टिकट नहीं दिया है।
इन सबको लेकर कायस्थ खुद को ठगा हुआ सा महसूस कर रहे हैं। धीरे-धीरे बीजेपी के प्रति उनकी नाराजगी भी बढ़ती जा रही है। कायस्थों की इसी नाराजगी और बीजेपी से दूरी की एक बानगी गोरखपुर और फूलपुर उपचुनाव में भी देखने को मिली, जिसमें दोनों ही सीटों पर बीजेपी की हार हुई।
गठबंधन ने बिगाड़ा गणित, तो कांग्रेस ने संभाला
कायस्थों की बीजेपी से नाराज़गी को भांप चुके सपा मुखिया अखिलेश यादव ने मौके का फायदा उठाते हुए लखनऊ की सीट पर कायस्थ उम्मीदवार के रूप में शत्रुघ्न सिन्हा की पत्नी पूनम सिन्हा को टिकट दे दिया। लखनऊ की चुनावी बिसात पर सपा की इस बाजी ने पिछले 28 सालों से बीजेपी का अभेद्य दुर्ग बन चुकी इस सीट का सियासी गणित लगभग बिगाड़ ही दिया और लखनऊ के चुनावी माहौल में कायस्थों को चर्चा में ला दिया। सपा की इस चाल से, दूसरी बार भी लखनऊ से अपनी जीत के प्रति आश्वस्त नज़र आ रहे राजनाथ सिंह के पेशानी पर भी बल पड़ गये।
कायस्थों की बीजेपी से नाराज़गी का अहसास राजनाथ सिंह को भी बखूबी है। यही वजह है कि उनकी नाराज़गी दूर करने के लिए इस बार वो शहर के हर कायस्थ सम्मेलन में शिरकत कर रहे हैं। अभी कुछ दिनों पहले वो गोमती तट पर स्थित कायस्थों के अराध्यदेव चित्रगुप्त मंदिर भी पहुंचे थे और वहां पूजा-अर्चना की थी। हालांकि व्यक्तिगत रूप से राजनाथ सिंह को लेकर कायस्थों में कोई नाराज़गी नहीं है जिसका फायदा उन्हें चुनावों में मिल सकता है।
चूंकि पूनम सिन्हा के पति शत्रुघ्न सिन्हा बिहार की पटना साहिब सीट से कांग्रेस के उम्मीदवार है, इसीलिए गठबंधन को उम्मीद थी कि पूनम सिन्हा को लखनऊ से प्रत्याशी बनाने के बाद कांग्रेस भी उन्हें समर्थन दे सकती है। मगर कांग्रेस ने गठबंधन की उम्मीदों पर पानी फेरते हुए तीन राज्यों के विधानसभा चुनावों में पार्टी के स्टार प्रचारक रहे प्रमोद कृष्णम को टिकट दे दिया।
हालांकि कांग्रेस को अच्छी तरह पता था कि उसके इस फैसले से लखनऊ में बीजेपी को फायदा होगा और राजनाथ सिंह को इसका चुनावी लाभ मिल सकता है, बावजूद इसके उसने ये फैसला लिया।अब कांग्रेस के रणनीतिकारों ने सारी गुणा-गणित समझने के बावजूद ये फैसला क्यों लिया ये तो वही जाने।
दरअसल सियासत में रिश्ते बड़े पेचीदे होते हैं और कौन, कब कहां किसके काम आ जाए कुछ कहा नहीं जा सकता। खैर जो भी हो मगर कांग्रेस के इस कदम ने बीजेपी के लगभग बिगड़ चुके चुनावी गणित को संभाल दिया और राजनाथ सिंह को थोड़ी राहत दे दी।
राजनीतिक हिस्सेदारी में क्यों पिछड़े कायस्थ
स्वभाव से मूलतः शान्तिप्रिय और कानून-व्यवस्था के प्रति संवेदनशील कायस्थ समाज अपनी राजनीतिक, सामाजिक या किसी भी तरह की अन्य मांगों को लेकर कभी कोई उग्र आंदोलन नहीं करता। इतना ही नहीं, सालों से बीजेपी का कोर वोट बैंक होने के बावजूद, अपने राजनीतिक भागीदारी के लिए ना तो पार्टी पर कभी दबाव की कोई रणनीति अपनाई और ना ही कोई राजनीतिक धमकी दी। मगर लगता है शायद यही संवेदनशीलता, शालीनता और शान्तिप्रियता ही इस समाज की उपेक्षा का कारण बन चुकी है।
अपनी इस राजनीतिक दुर्दशा के लिए कायस्थ समाज भी स्वयं जिम्मेदार है। कायस्थों में आज भले ही थोड़ी बहुत एकजुटता देखने को मिल रही हो मगर अब भी इस समाज में एकजुटता की काफी कमी है। जब सभी जातियां अपने को मजबूत करने में लगी थीं, अपनी बिरादरी के लोगों की राजनीतिक हिस्सेदारी की लड़ाई लड़ रही थीं और चुनावों में अपनी बिरादरी के पक्ष में वोट करती थीं भले ही वो किसी भी पार्टी से खड़ा हो। तब राष्ट्रवाद का चोला ओढ़े कायस्थ समाज बिना किसी राजनीतिक महात्त्वाकांक्षा के बीजेपी को ही वोट देता रहा।
पिछले चुनावों में ऐसे कई मौके आए जब अन्य दलों ने कायस्थ बाहुल्य इलाकों में कायस्थ प्रत्याशी खड़ा किया मगर एकजुटता की कमी के चलते कायस्थ ने अपनी बिरादरी के लोगों को भी समर्थन नहीं दिया।
कायस्थों की इसी सोच का बीजेपी ने फायदा भी उठाया। बीजेपी ये अच्छी तरह समझती है कि राष्ट्रवादी सोच रखने वाला कायस्थ समाज उसे छोड़कर कहीं नहीं जाएगा औऱ हकीकत भी यही है कि कायस्थ हमेशा से बीजेपी को ही वोट करता आया है। यही नहीं बीजेपी का ठप्पा लगा होने की वजह से कांग्रेस, बीएसपी और एसपी जैसे राजनीतिक दलों में भी कायस्थों को ज्यादा तरजीह नहीं दी जाती। उन्हें लगता है कि कितना भी कर लो ये जाएंगे बीजेपी के साथ ही।
उद्देश्य राजनाथ सिंह को हराना या पूनम सिन्हा को जीताना नहीं है। उद्देश्य है अपनी हिस्सेदारी के मुताबिक अपनी भागीदारी मिलना। और कायस्थ समाज अब अपनी राजनीतिक हिस्सेदारी सुनिश्चित करना चाहता है। वो यह समझ चुका है कि अगर अब भी वो नहीं चेता तो आने वाले वक्त में राजनीतिक रूप से वो शून्य हो जाएगा।
कायस्थ समाज आरक्षण की मार के चलते पहले ही सरकारी नौकरियों से तकरीबन साफ हो चुका है। मगर अब बाकी जातियों की तरह वो भी अपनी बिरादरी के लिए खड़ा हो रहा है। ऐसा नहीं है कि उसकी इस पहली अंगड़ाई में ही सब कुछ हासिल हो जाएगा। इस शुरुआत को अंजाम तक पहुंचने में वक्त लगेगा और वक्त तो आएगा ही।