सुरेन्द्र दुबे
राजस्थान का सियासी ड्रामा अब राज्यपाल कलराज मिश्रा के रहमोकर्म पर टिक गया है। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत समझ गए है कि अदालत से उन्हें राहत मिलने की कोई उम्मीद नहीं। हाई कोर्ट ने यथास्थिति का आदेश देकर स्थिति बिगाड़ दी है। कोर्ट के सामने प्रश्न यह था कि क्या विधान सभा स्पीकर का बागी विधायकों को नोटिस देना विधि सम्मत है या नहीं।
हाई कोर्ट ने इसका कोई सीधा जवाब नहीं दिया। दूसरी ओर सुप्रीम कोर्ट ने स्पीकर के अधिकार क्षेत्र पर कोई टिप्पणी करने के बजाय नाराज़ विधायकों के असहमति के अधिकार पर सवाल जवाब कर स्पष्ट कर दिया है कि कोर्ट में यह मामला लंबी बहस में फंस सकता है।
लोकतंत्र में असहमति का अधिकार होना चाहिए इसको लेकर पूरा देश चिंतित है। पर असहमति व्यक्त करने वाले लोगों को राष्ट्र द्रोही की संज्ञा दे दी जाती है। इस पर पूरा देश विचार करे। कोर्ट चाहे तो इस पर संविधान पीठ की राय ले ले। पर तब तक क्या राजस्थान में गहलोत व पायलट के बीच लुकाछिपी का खेल चलता रहेगा। पायलट खुद कह रहे है कि वे कांग्रेस में ही है और भाजपा में नहीं जाएंगे। अगले विधान सभा स्पीकर को यह स्थिति स्पष्ट कर दें तो सारा बवाल ही खत्म हो जाएगा।
पूरा ड्रामा बहुत ही रोचक है। भाजपा कह रही है कि उसका इस मामले से कोई लेना देना नहीं है तो फिर केंद्र सरकार किस तुफैल में मुकदमे में पार्टी बन गई है। क्यों गहलौत के करीबियों पर छापे डाले जा रहे हैं। केंद्रीय मंत्री शेखावत एक टेप में कथित रूप से घोड़े खरीदने और बेचने में लगे पाए गए है।
वो कह रहे कि गहलोत ताएं कि किस कानून के तहत टैपिंग की गई है। एक तरह से वे बातचीत का खण्डन नहीं कर रहे है। अब भाजपा नैतिकता का सवाल उठा रही है जबकि पिछले कई वर्षों से वह नैतिकता को ठेंगा दिखाने और बिकाऊ घोड़ों के बल पर कांग्रेस की सरकारें गिराने का खेल खेल रही है। पूरा देश यह खेल देख रहा है।
कुछ लोग बेइमानी व भ्रष्टाचार के इस खेल को अपनी तालियां से नवाज कर उद्घोष कर रहें कि भले ही बेईमान सही पर इन्हे जीतना आता है। कुछ लोग मुंह में दही जमाए बैठे है। कुछ लोग उंगली उठा रहे हैं तो उन्हें घूंसा दिखाया जा रहा है।
इस बार दृश्य बदला बदला सा है। एक तरफ केंद्र की जांच एजेंसियां जैसे इनकम टैक्स व प्रवर्तन निदेशालय है तो दूसरी तरफ राजस्थान सरकार का एस ओ जी। छापामार युद्ध चल रहा है। कुछ लोग बहुत प्रसन्न है कि चलो कांग्रेस भी घटियापन पर उतर आई। घटियापन चाहे जिसका हो उसकी निन्दा ही होनी चाहिए वरना लोकतंत्र घटिया लोगो का आई पी एल बनकर रह जाएगा।
गहलोत समझ गए है कि जल्दी से जल्दी बहुमत साबित कर देने में ही भलाई है इसलिए एक ओर उन्होंने राज्यपाल पर दबाव बनाने के लिए राजभवन में धरना देना शुरू कर दिया है। दूसरी ओर पूरे प्रदेश में आंदोलन को भी तैयारी है। राज्यपाल तो वैसे ही केंद्र के दबाव में काम करते है।
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अब मुख्यमंत्री का दबाव। संविधान की माने तो राज्यपाल के पास विधानसभा का सत्र बुलाने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं है। पर संविधान की सुनता कौन है। संविधान की किताब अब यदा कदा देखी जाती है। संविधान अब अपने हिसाब से पढ़ा जाता है।
एक मात्र उपाय है कि विधानसभा में गहलोत सरकार अपना बहुमत साबित कर दे जो शायद वह कर भी दे। जिसतरह से राज्यपाल विधानसभा का सत्र बुलाने से भाग रहे है उससे लगता है कि भाजपा का खेल बन नहीं पाया है। पर अगर राज्यपाल विधानसभा का सत्र न बुलाएं तो गहलौत क्या कर सकते है। वे फिर कोर्ट में जाएं तो मुकदमे बाज़ी में फंस सकते हैं।
राज्य भर में आंदोलन करे तो भाजपा कानून व व्यवस्था का हवाला देकर राष्ट्रपति शासन लगाने की मांग कर सकती है।स्थिति बड़ी विचित्र है पता नहीं राजस्थान में ऊंट किस करवट बैठेगा या फिर लंबे अरसे तक ऊंट खड़ा ही रहेगा।