अंकिता माथुर
भारत के पश्चिमोत्तर में स्थित राजस्थान, भारत का रेगिस्तानी भू-भाग है। रेगिस्तान का विचार आते ही मस्तिष्क में उभरने लगता है जल विहीन, रेत का अथाह समुद्र जो वनस्पति रहित विषम जीवन लिए है, परन्तु राज्य की सबसे अधिक आबादी वाला ये क्षेत्र अपनी अलग जैव विविधता लिए सम्पूर्ण सा प्रतीत होता है। जहाँ घग्घर, लूणी नदियों ने यहाँ जीवन अमृत दिया है, वहीं आधुनिक इन्दिरा गांधी नहर ने पश्चिमी राजस्थान की काया पलट की है।
आज जब समस्त दुनिया जलवायु परिवर्तन के संकट से जूझ रही है, तब सोचनीय है-राजस्थान का क्या योगदान हो? किसी का विचार हो सकता है कि राजस्थान ‘बीमारू’ राज्य है, आर्थिक व सामाजिक तौर पर बहुत पीछे है, ऐसे में प्रथम आवश्यकता सामाजिक व आर्थिक विकास की है। पर क्या कोई मध्यम मार्ग पर्यावरण बनाये रखते हुए राज्य की आय में भी इजाफा कर सकता है?
आइए विचार करते हैं, क्योटो प्रोटेकॉल में कार्बन उत्सर्जन को कम करने के तीन तरीके सुझाये गये थे। इनमें से एक है ‘कार्बन ट्रेडिंग’ जिसके अनुसार प्रत्येक देश या उसमें मौजूद विभिन्न सेक्टर या कम्पनी को एक निश्चित सीमा तक कार्बन उत्सर्जित करने की छूट दी जाती है। अब यदि उसने निर्धारित सीमा तक कार्बन उत्सर्जित कर लिया है व आगे भी उत्सर्जित करना चाहता है जो उसे किसी अन्य देश या कम्पनी से कार्बन खरीदना होगा जिसने निर्धारित सीमा तक उत्सर्जन न किया हो। इसे कार्बन ट्रेडिंग कहा जाता है। यह व्यापार भी बाजार मांग व आपूर्ति नियमों के अधीन है।
अब अगर राजस्थान चाहे तो खाली पड़ी भूमि पर वनों का विकास करके व ओरणों, गोचरों, इत्यादि की रक्षा करके ‘कार्बन क्रेडिट’ बना सकता है। वन वातावरण की कार्बनडाई ऑक्साइड अवशोषित करते है साथ ही प्राकृतिक संतुलन बनाये रखने में भी सहायक है। राजस्थान का लगातार गिरता जल भू-स्तर भी वृक्षों की मदद से संतुलित किया जा सकेगा। ये वृक्ष जहां पश्चिम में रेगिस्तान का मार्च रोकने में सहायक हो सकते है, वहीं पूर्वी राजस्थान में मृदाक्षरण रोकने में भी सहायता प्रदान करेंगे और सम्पूर्ण राजस्थान को जोड़ सकते है वैश्विक व्यापार से।
अब बात करते है जल की। वनों की तरह ही राज्य में जल की स्थिति भी भयावह होती जा रही है। अंतर्प्रभावी नदियाँ विलुप्ति के कगार पर है। राजधानी के पास ढूंढ व बाणगंगा अब नहीं दिखती तो कांतली नदी भी बीती सी बात लगती है। वर्षा जल संचयन की आवश्यकता को समझते हुए हमारे पूर्वजों ने अनेक बावड़ियों, जोहडों, ढाण्ढ, खड़ीन इत्यादि को महत्व दिया। कहीं जल स्त्रोतों को धर्म का संरक्षण मिला तो कहीं समाज का।
सामाजिक व्यवस्था के चरमराने का असर हमारे परम्परागत जल स्त्रोतों पर भी दिखाई पड़ता है। बात चाहे रामगढ़ बांध की हो या कड़ाना की स्थितियाँ समान सी दिखती है। जब इन्दिरा गांधी नहर तिब्बत के राकसताल का जल आपके राज्य में लाती है तो क्यों न इस जल का प्रबंधन भी नयी आवश्कताओं के अनुसार ही सुनिश्चित किया जाए।
इंदिरा गांधी नहर के आस-पास की खुली भूमि का उपयोग सौर ऊर्जा व पवन ऊर्जा उपकरणों के माध्यम से दूरस्थ क्षेत्र में बिजली उपलब्ध कराने के लिए भी किया जा सकता है साथ ही यह पर्यावरण संतुलन बनाए रखने में सहायक है। आवश्यकता है एक सशक्त पहल की, एक संगठित-व्यवस्थित प्रयास की जो रोजगारोन्मुख भी हो।
वनों के समान ही जल भी कार्बन अवशोषण कर पर्यावरण शुद्ध करने में सहायक है तो क्यों न पारम्परिक स्त्रोतों का संरक्षण कर नए स्त्रोतों के साथ नवीन प्रबंधन किया जाए। जब जयपुर के मध्य से बहती द्रव्यवती नदी पर्यटन बढ़ायेगी तब क्यों न जाना जाये ये कितना कार्बन अवशोषण करेगी? झीलों की नगरी उदयपुर अपनी झीलों के साथ कितना कार्बन सोख रही है? क्या कार्बन ऑडिट की बात सोची जा सकती है?
विकास एवं संरक्षण के बीच अब राजस्थान को आवश्यक्ता है कि जागरूकता के साथ यहां की सरकारें, निजी संगठन व जनता संरक्षण, नियम व समावेशी विकास की बात करें। बात करें कार्बन फ्रूट प्रिंट की, कार्बन टैक्स की, कार्बन ट्रेड की और कार्बन सिक्वेस्ट्रिशन की।
( सम्पादक, दैनिक लोकमत, जयपुर)