Monday - 28 October 2024 - 12:17 AM

आरएसएस को कहा तो मिर्चें क्यों लगीं ?

के. पी. सिंह

राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को आरएसएस का प्रधानमंत्री कहा, निश्चित रूप से जानबूझकर लेकिन हैरत की बात है कि प्रधानमंत्री के खेमे को यह रास नही आया जिसके चलते संबित पात्रा के माध्यम से भाजपा की जो प्रतिक्रिया सामने आई वह राहुल गांधी के कथन से भाजपा को जबर्दस्त मिर्चा लगने जैसी थी।

भाजपा और आरएसएस के संबंध कोई रहस्य नही है। अटल बिहारी बाजपेयी तक को इस मामले में आलोचनाओं का सामना करना पड़ा था। जबकि अटल जी कई मौकों पर संघ को आड़े हाथों लेकर दिखा चुके थे। लेकिन प्रधानमंत्री के रूप में जब उन्हें बार-बार संघीय होने का ताना सुनना पड़ा तो बैकफुट पर जाने की बजाय डंके की चोट पर बोलने के अंदाज में बोल दिया था कि उन्हें अपने स्वयं सेवक होने के नाते बहुत गर्व है।

बावजूद इसके अटल बिहारी बाजपेयी का अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व था जिसकी वजह से वे राजनीति अपने तरीके से करते थे। कई बार संघ द्वारा व्यक्त की गई मंशा को नकार देते थे। अयोध्या में विवादित स्थल पर मंदिर निर्माण के लिए संघ ने उनसे संसद में विधेयक लाने की मंशा जाहिर की थी।

इसका परवाना लेकर पहुंचे विहिप के शीर्ष नेताओं को उन्होंने इसके लिए दृढ़ता पूर्वक मना कर दिया था। विहिप ने खुलकर अटल जी के प्रति नाराजगी जाहिर की लेकिन अटल जी ने इसकी कोई परवाह नही की। पर अटल जी की तरह नरेंद्र मोदी को राष्ट्रीय राजनीति की पहचान स्वयं के पुरुषार्थ से नही मिली। बल्कि संघ की कृपा से ही उन्होंने इस महिमा का अधिकारी अपने को बना पाया।

संघ के मार्गदर्शन के आगे नतमस्तक मोदी

2014 में भाजपा के जरिये उन्हें अगले प्रधानमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट किये जाने के पीछे संघ था जिसकी वजह से लालकृष्ण आडवाणी और डा. मुरली मनोहर जोशी जैसे दिग्गजों की भी उपेक्षा करने में कमजोरी नही दिखाई गई थी। भले ही आरएसएस का प्रधानमंत्री कहे जाने से आज नरेंद्र मोदी को झुंझलाहट होती है पर संघ के मार्गदर्शन के आगे वे नतमस्तक रहते हैं।

फिर भी यह सही है कि वे संघ के जमूरे मात्र नही हैं। आरक्षण के मामले में संघ प्रमुख की राय बिहार विधानसभा के विगत चुनाव में अस्वीकार करके इसका परिचय उन्होंने दे दिया था। बाद में संघ को उन्हीं का नजरिया अपनाना पड़ा और आज संघ कह रहा है कि जब तक वंचितों को शासन-प्रशासन में बराबरी का स्थान नही मिल जाता तब तक आरक्षण जारी रहेगा।

मोदी की सिटटी-पिटटी गुम

यह दूसरी बात है कि सरकारी नौकरियों में पर्दे के पीछे से कुछ ऐसा किया जा रहा है जिससे व्यवहारिक तौर पर आरक्षण की व्यवस्था अप्रासंगिक होकर रह गई है। अनुसूचित जाति/जनजाति उत्पीड़न अधिनियम की व्यवस्थाओं को लेकर उच्चतम न्यायालय ने जो संशोधन किया था संघ की चलती तो सरकार उसे निरस्त करने का कदम नही उठा पाती।

लेकिन नरेंद्र मोदी ने यहां भी स्वयं निर्णय लिया और उत्पीड़न अधिनियम का मूल स्वरूप बहाल रखने के लिए संसद में आदेश पारित करा लिया। इसमें नरेंद्र मोदी को पछताना पड़ा। उच्च जातियां जिस तरह से इसके खिलाफ मुखर हुईं और जातीय दंगे शुरू हो गये उसने मोदी की सिटटी-पिटटी गुम कर दी।

उत्पीड़न अधिनियम सवर्णों के दबंगों के ठेंगे पर

गिनती में भले ही अल्प संख्या में हों लेकिन सवर्णों के बौद्धिक वर्चस्व के तहत ही भारतीय समाज संचालित होता है यह एक सच्चाई है। यह नरेंद्र मोदी को 2019 के चुनाव के पहले ही कुछ राज्यों के चुनाव में ठोकर खाकर समझ में आ गया था। इसलिए उन्हें बिगड़ी बात बनाने के लिए सवर्णों के तुष्टीकरण के उपायों का मुंह देखना पड़ा।

उत्पीड़न के मामलों में भी कानून अपनी जगह है लेकिन व्यवहार में स्थितियां ऐसी हो गई हैं कि उत्पीड़न अधिनियम सवर्णों के दबंगों के ठेंगे पर नजर आता है।फिर भी संघ और भाजपा का तालमेल अटल जी के युग की तुलना में मोदी युग में ज्यादा बेहतर है।

लगभग 6 वर्ष के प्रधानमंत्री के कार्यकाल में नरेंद्र मोदी ने संघ के साथ ऐसी समझदारी विकसित कर ली जिससे कुछ मुददों पर असहमति के बावजूद संघ से उनका विगाड़ नही हो सकता और उनकी सरकार का एजेंडा अंततोगत्वा नागपुर में ही तय होता है।

सही बात यह है कि नरेंद्र मोदी ने अभी तक के सर्वश्रेष्ठ स्वयं सेवक के रूप में सरकार में पदस्थ होने का गौरव संघ के अंदर हासिल कर लिया है। फिर भी अगर उन्हें आरएसएस का प्रधानमंत्री कहे जाने से आपत्ति है तो स्थितियों को पूरी तरह न समझ पाने वालों को इसमें अजीब लगेगा ही। पर अजीब कुछ नही है।

नरेंद्र मोदी अति महत्वाकांक्षी

नरेंद्र मोदी अति महत्वाकांक्षी हैं और संघ को इसका पता है। संघ उनकी लालसाओं और लोलुपताओं में बाधक नही बनता भले ही मर्यादाओं की ओट में ही निर्वाह करना उसकी नियति हो। संघ चाणक्य है तो नरेंद्र मोदी उसके चंद्रगुप्त मौर्य।

इसके रहते हुए चक्रवर्ती सम्राट के रूप में अपने को स्थापित करने की उनकी जददोजहद स्वाभाविक है जो हर राज्य में अपनी सरकार को ऐन-केन-प्रकारेण कायम करने के उन्माद के रूप में सामने आ चुका है।

इसके लिए उन्होंने संविधान के दुरुपयोग में कांग्रेस से अपने को पीछे नही रहने दिया। अपने इस उददेश्य में वे सब कुछ जायज मानते हैं इसलिए उनके कार्यकाल में दूसरी पार्टियों में तोड़फोड़ के लिए जन प्रतिनिधियों की खरीद फरोख्त, तमाम बदनाम चेहरों को गले लगाने और नेताओं को सीबीआई व ईडी को टूल बनाकर आतंकित कर ब्लैकमेल करने के कई कीर्तिमान उन्होंने गढ़े हैं।

मोदी की चाहत कि विश्व के सारे बड़े सम्मान उनके ताज में सजें

अच्छा होता अगर वे ऐसा न करते भले ही राज्यों में विपक्ष की सरकारें बन जातीं। पर आदत से मजबूर नरेंद्र मोदी ने इस मामले में अपनी माइनस मार्किंग कराने की परवाह नही की। इसके अलावा उनकी चाहत है कि विश्व के सारे बड़े सम्मान उनके ताज में सज जायें।

अगर दुनियां के किसी दूसरे देश में भले ही वे मित्र देश हों प्रेस आदि के हलकों में उनकी आलोचना हो जाये तो उनके समर्थक चिल्लाने लगतें हैं कि देश के साथ षणयंत्र हो रहा है। हमें किसी बाहरी देश के प्रमाण पत्र की जरूरत नही है। पर जैसे ही नरेंद्र मोदी को कोई विदेशी अलंकरण मिलता है उसका प्रचार वे ही लोग इस तरह करने लग जाते हैं जैसे एक बार फिर नरेंद्र मोदी ने जग जीत लिया हो।

नोबेल पुरस्कार का अलंकरण हासिल करना मोदी की बड़ी ख्वाहिश

इसी मानसिकता के तहत नरेंद्र मोदी की बड़ी ख्वाहिश है कि नोबेल पुरस्कार का अलंकरण हासिल करके वे नया इतिहास रच सकें। अपनी इस लोलुपता की पूर्ति में संघ की छवि उन्हें बाधक नजर आती है। नेताओं को नोबेल पुरस्कार शांति के लिए मिलता है जबकि दुनियां में संघ की शोहरत अशांति के प्रचारक के रूप में बनी हुई है।

जब नरेंद्र मोदी को आरएसएस का प्रधानमंत्री साबित किया जायेगा तो उनकी इस लोलुपता का बेड़ा गर्क हो जायेगा। संघ के साथ जोड़े जाने में उन्हें हम तो डूबेगें सनम तुम्हें भी ले डूबेगें जैसी कहावत चरितार्थ नजर आती है। जाहिर है कि ऐसी स्थिति में आरएसएस का प्रधानमंत्री करार दिये जाने से नरेंद्र मोदी की मंडली को मिर्चा क्यों न लगेगी।

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