श्रीधर अग्निहोत्री
कानपुर का ग्रीनपार्क ..हरा भरा मैदान… पूरी तरह से खचाखच भरा हुआ..सामने चिमनियों से उठता हुआ धुआं.. और इसी बीच कपिल देव पैवेलियन एंड से अपने ओवर की दूसरी गेंद लेकर तैयार..सामने हैं इंग्लैंड के बेहतरीन बल्लेबाज माइक गेटिंग।
कपिल देव ने दौड़ना शुरू किया..एक दो तीन चार पांच छह सात आठ नौ……और उनकी पटकी हुई गेंद को गेटिंग समझ नही सके, वरना बैट का बाहरी किनारा लेकर गेंद विकेट कीपर किरमानी के दास्तानों को चूमने को तैयार थी, भाग्यशाली रहे गेटिंग। नहीं तो, इंग्लैंड का एक और विकेट भारत की झोली में होता।
इस तरह अपने शब्दों से पूरे मैदान का सजीव चित्रण करने वाले हिंदी कमेंटेटर मुरली मनोहर मंजुल का निधन क्रिकेट की अनगिनत यादों को लेकर चला गया। क्रिकेट जैसे विदेशी खेल को अपने लालित्यपूर्ण शब्दों से स्वदेशी खेल बनाने का काम मुरली मनोहर मंजुल ने अपनी रेडियो कमेंट्री से किया। 25 फरवरी को मंजुल का निधन हो गया।
हॉकी कमेंट्री में भले ही जसदेव सिंह की बराबरी कोई नही कर सकता लेकिन क्रिकेट कमेंट्री में मुरली मनोहर मंजुल के शिखर तक कोई कमेंटेटर कभी नही पहुंच सकता।
जहां अंग्रेजी कमेंट्री में अनंत सीतलवाड़, सुरेश सरैया, जे पी नारायणन, नरोत्तम पुरी में मुकाबला रहता था वहीं हिंदी कमेंट्री में प्रेम नारायण, अभय चतुर्वेदी, सुशील दोषी, जसदेव सिंह, स्कंद गुप्त, मनीष देव, राजेश तिवारी और मुरली मनोहर मंजुल में इस बात की प्रतिस्पर्धा रहती थी कि मैदान में हो रहे क्रिकेट मैच का ऐसे चित्रण किया जाए कि श्रोता को इस बात का बिल्कुल भी अहसास न हो कि वो मैदान में मौजूद नहीं है।
कभी कभी मैच के रोमांचक होने पर बिना सांस खींचे वह अपने वाक्यांशों को इतना लंबा कर देते थे कि श्रोताओं की भी सांसे ठहर जाती थी।
शुरुआती दौर में समझा जाता था कि क्रिकेट एक इंग्लिश खेल और इसकी कमेंट्री सिर्फ इंग्लिश भाषा में ही की जा सकती है, लेकिन मुरली मनोहर मंजुल ने इस धारणा को गलत साबित कर दिया। उन्होंने हिंदी भाषा में अपनी लयबद्ध कमेंट्री से क्रिकेट को खेल को भारत के घर – घर तक पहुंचाया, जिससे इस खेल की जड़ें मजबूत हुई। शुरुआत में मुरली मनोहर मंजुल रणजी ट्रॉफी मैचों का आंखों देखा हाल बताते थे और फिर 1972 में उन्होंने इंटरनेशनल क्रिकेट कमेंट्री शुरू की।
50 साल तक क्रिकेट कमेंट्री की लंबी पारी खेलने वाले मुरली मनोहर मंजुल ने पटना रेडियो से अपने सफर की शुरुआत की थी। बचपन में उन्होंने अपने गृहनगर जोधपुर में स्थानीय स्तर पर मारवाड़ क्रिकेट क्लब से खुद को जोड़ा था। जॉन आर्लोट उनके प्रिय कमेंटेटर रहे. रेडियो में आने के बाद जब हिंदी में आकाशवाणी से खास तौर पर क्रिकेट का प्रसारण शुरू हुआ तो वही प्रगाढ़ता उनके काम आई।
मंजुल ने 2004 में अधूरे मन अपने स्वास्थ्य का हवाला देते हुए कमेंट्री से संन्यास ले लिया था। साहित्य से उनका विशेष लगाव था। मंजुल अपनी रचनाओं को माध्यम से भी छाए रहे। उनकी रचना ‘आखों देखा हाल’ को 1987 में भारतेंदु हरिश्चंद्र पुरस्कार मिला। 2009 में लिखित ‘आकाशवाणी की अंतर्कथा’ को भी काफी प्रसिद्धि मिली। . इसके अलावा मंजुल अपनी कविताओं और गीतों से पाठकों को लुभाते रहे।