प्रांशु मिश्रा
डॉ पायल की मौत कई मामलों में रोहित वेमूला की मौत याद दिलाती है। बस अंतर यह कि वहां जाति के नाम पर संस्थागत भेदभाव था। पायल की मौत के जिम्मेदार उसके ही कुछ सहपाठी डॉक्टर थे।
कुछ ऐसे डॉक्टर जो जाहिर तौर पर खासे पढ़े लिखें होंगे। ढेरों डिग्रियां उनके पास होंगी, लेकिन जिन्हें नहीं पता कि खुद उन्हें कितनी गंभीर मानसिक बीमारी है।
वह बीमारी जो उच्च जाति में पैदा होने, उसके दर्शन के साथ जीने और बड़े होने से आती है। जो यह मानती है कि आरक्षण कब का खत्म हो जाना चाहिए, आरक्षण दरअसल दोयम दर्जे के डॉक्टर, इंजीनयर, शिक्षक और प्रोफेशनल तैयार करता है। जो मंडल कमिशन के दौर से यह मानता आया है कि आरक्षण अभिशाप है। जो यह सोचने को तैयार नहीं कि सरकारी कालेजों में एडमिशन और सरकारी नौकरी के अवसर लगातर सिकुड़ते जा रहे हैं। ऐसे में दिक्कत आरक्षण नहीं, अवसरों के कम होने की है।
लेकिन मसला सिर्फ पायल के कुछ सहपाठी डॉक्टरों की ही सोच का नहीं। वह अपवाद नहीं है। ऐसे तमाम लोग हमें रोज मिलते हैं। अपने घर, परिवार में, दोस्तों के बीच। स्कूल कॉलेजों के सहपाठियों के रूप में दरअसल एक बहुत बड़ा वर्ग ऐसा है जो आरक्षण के सवाल पर इसी नजरिये के साथ ही साथ ‘nation first’ का दम सबसे ज्यादा भरता है।
जो भारतीय पासपोर्ट के बढ़ते ‘वजन’ से खासा खुश होता है। जो जनसंख्या नियंत्रण के लिए ‘ बेहद सख्त’ कदम उठाए जाने की वकालत करता है। और ‘ अंदर घुस कर मारने’ की बात सुनकर छाती फुला लेता है। तो सवाल यह है कि जब मानसिक बीमारी इस कदर हो कि आप सलाह दें कि आरक्षण के ‘सहारे’ डॉक्टर बनने वाले से इलाज कराने से बचें, या फिर एक दलित डॉक्टर से डिलिवरी कराने से बचें क्योंकि एक तो वह नाकाबिल हो सकती है और दूसरा एक दलित के हाथ से नवजात अपवित्र हो सकता है।
तो सोचिए कि देश महान कैसे बनेगा। सबका साथ और सबका विकास कैसे होगा। जातियों को जोड़ कर सत्ता का मैनजमेंट राजनीतिक दल करते रहेंगे। सवाल यह है कि जाति व्यवस्था के खिलाफ असल लड़ाई कैसे होगी।
यह जिम्मेदारी उन सभी की है जो देश के संविधान में यकीन रखते हैं। जो मजबूत भारत के साथ ही साथ एक न्याय प्रिय भारत भी देखना चाहते हैं। मजबूती सिर्फ अंतरिक्ष में मिसाइल मार गिराने से या GDP बढ़ने और सेंसेक्स की उछाल से ही नहीं आती।
घर की मजबूती के लिये जरूरी है उसमें रहने वाले लोगों के बीच परस्पर प्यार, भरोसा और बराबरी का दर्जा। सामाजिक भी और आर्थिक अवसरों की भी..वह चाहे किसी भी धर्म, जाति और मजहब के क्यों न हों।
( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, यह टिप्पणी उन्होने अपनी फेसबूक वाल पर लिखी है)