के. पी. सिंह
आखिर उन चारों को फांसी पर लटकना ही पड़ा। जी हां बात कर रहे हैं निर्भया के गुनहगारों की जिन्होंने कानूनी दांवपेंच और चकमेबाजी का हर हथकंडा इस्तेमाल कर पहले चार बार डैथ वारंट का टलवाया। जिस पर निर्भया की मां की गुस्सैल प्रतिक्रिया सामने आने के बाद समाज का प्रतिशोध इतना गहरा गया कि न्याय पालिका को जनभावना के मददेनजर चौकन्ना हो जाना पड़ा।
गुनहगारों ने पांचवीं बार भी प्रयास किया कि वे एक बार फिर मोहलत हासिल कर लें। लेकिन ट्रायल कोर्ट से लेकर शीर्ष अदालत तक अब कोई उन्हें और मौका देने की स्थिति में नही रह गया था।
20 मार्च 2020 की सुबह का सूरज देखने के पहले ही चारों को सरकारी जल्लाद ने सूली पर चढ़ा दिया। त्वरित और अविलंब मीडिया के इस युग में सुबह-सुबह ही उनके आखिरी समय की मार्मिक कहानियां नेट पर तैरने लगीं। किस तरह पवन छटपटाया, गुनहगार अपने हाथ नही बांधने दे रहे थे, कितना रोये-चींखे उनकी कातरता का ऐसा वर्णन कि सारी संचित घृणा को हवा कर उन्हें हमदर्दी का हकदार बना दे।
पत्रकारिता की अपनी पेशागत मजबूरियां हैं, सबसे आगे निकलने की होड़ में हर वृतांत को उन्हें मिनट टू मिनट प्रस्तुत करना वह भी नमक-मिर्च और भरपूर मसाला डालकर जिससे कई बार उलटवासियां निर्मित हो जाती हैं।
रेप के केस में 16 साल पहले पहली बार फांसी 14 अगस्त 2004 को पश्चिम बंगाल की अलीपुर सेन्ट्रल जेल में धनंजय चटर्जी को हुई थी। उस पर कोलकाता में 14 साल की किशोरी के साथ रेप कर उसकी हत्या का आरोप था।
हालांकि वह फांसी पर चढ़ते समय तक चिल्लाता रहा कि वो निर्दोश है लेकिन जन भावनाएं आमादा थी कि रेप के मामले में सर्वोच्च सजा का ऐसा पत्थर गाड़ा जाये। जिससे भविष्य में कोई भी बहशी दरिंदा ऐसी घटना करने का साहस न कर सकें। लेकिन अगर यह हुआ होता तो क्या इस फांसी के बाद निर्भया कांड को सामने आना चाहिए था।
हमने बार-बार दोहराया है कि कानून और सजाओं की सीमा है। सिर्फ इन उपायों से आपराधिक भावनाओं का परिष्करण नही हो सकता। एक ओर उददीपन को हवा देने वाला परिवेश घना होता जा रहा है, बाजारीकरण ने भोग-विलास और तृष्णा की संस्कृति को चरम पर पहुंचा दिया है।
इसके चलते बूढ़े मुख्यमंत्री और मंत्री तक हनी ट्रैप की चपेट में देखे जा रहे हैं (कुछ दिनों पहले मध्य प्रदेश के स्वर्गीय वयोवृद्ध पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल गौर व कुछ और प्रमुख राजनेताओं की सीडी वीभत्स तरीके से रंगरेलियां मनाते हुए वायरल हुई थी, इसके पहले राज्यपाल के पद पर रहते हुए स्व. नारायण दत्त तिवारी भी ऐसा करते हुए बेनकाब हुए थे।)
दूसरी ओर उन आध्यात्मिक बंदिशों से पूरी तरह मुख फेर लिया गया है जो किसी भी संस्कृति और सभ्यता की पहली शर्त होनी चाहिए। मनुष्य मन कभी लाचार हो सकता है यह सोचा जाना बेतुका है लेकिन बाजारीकरण के दुष्प्रभाव को रोकने की जिम्मेदारी के नाम पर व्यवस्था के कर्ताधर्ता यह कहते हुए हाथ बांध लेते हैं कि वैश्वीकरण के इस दौर में कैसे संभव है कि वे आध्यात्मिक हस्तक्षेप को फलीभूत कर सकें।
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यह आत्महीनता की गलत सोच है। कानून और सजा के तकनीकी इंतजामों के समानान्तर मानव समाज के संस्कारीकरण की चुनौतियों को स्वीकार करना होगा तभी दानवी अपराध रोके जा सकेगें।
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(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं यह लेख उनका निजी विचार है)