शबाहत हुसैन विजेता
दिल्ली चुनाव ने देश को स्पष्ट संदेश दे दिया कि जीत की मंज़िल अब विकास के रास्ते से ही मिलेगी। दिल्ली के लोगों ने यह भी बता दिया कि राजनेता मतदाताओं को अपना टूल समझना बन्द करें। कई सूबों की सरकारों के आने से, हिन्दू-मुसलमान के बंटवारे के नारों से, देशभक्त और देश विरोधी की बातों से सरकारें बनाने के दिन अब लद चुके हैं।
शाहीनबाग को करंट लगाने का ख्वाब देखने वाले सकते में हैं। दो रुपये किलो आटे की पेशकश को जनता ने ठुकरा दिया है क्योंकि पेशकश करने वाले देश के कई सूबों में हुकूमत चला रहे हैं लेकिन उन सूबों में आटे का दाम आसमान छू रहा है। दिल्ली को 200 के बजाय 300 यूनिट फ्री बिजली का वादा भी रास नहीं आया क्योंकि वादा करने वाली सरकार देश में सबसे महंगी बिजली बेच रही है। दिल्ली ने मौजूदा सरकार से मिल रही सुविधाओं पर ही भरोसा किया।
आप की सरकार ने हैट्रिक लगाकर बता दिया कि जो भी सरकार काम करेगी उसे जनता सर आंखों पर बिठाएगी। दिल्ली चुनाव के दौरान जिस तरह के हालात बने। शाहीनबाग के साथ जेएनयू और जामिया विश्वविद्यालयों को जिस तरह से निशाने पर लिया गया। जिस तरह से उन्हें देशद्रोही साबित करने की कोशिश की गई, उसने दिल्ली को पूरी तरह से खामोश कर दिया। खामोश दिल्ली को भांपना किसी के बूते की बात नहीं रही। राजनीति के महारथी समझ ही नहीं पाए कि उनकी कोशिशों का कौन सा असर पड़ने वाला है। सब अपने-अपने गणित में लगे थे। अपनी जीत को लेकर आश्वस्त होने का नाटक करते घूम रहे थे। दिल्ली इस तरह से खामोश थी कि हर कोई आशंकित था।
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खामोश दिल्ली वोट देने निकली तो पांच साल पुराने इतिहास को ही फिर से दोहरा दिया। दिल्ली ने बता दिया कि उसे गौशाला से पहले अच्छे स्कूल चाहिए हैं। उसे अच्छे अस्पतालों की ज़रूरत है। उसे अच्छी सड़कें चाहिए हैं। उसे सीवर की ज़रूरत है, पानी की ज़रूरत है, बिजली की ज़रूरत है। उसे ऐसी सरकार चाहिए है जो उसकी पहुंच में हो। उसे ऐसा नेता चुनना है जो गायब न हो जाता हो।
दिल्ली का रिजल्ट भविष्य की सियासत का ट्रेलर है। यही बिहार और पश्चिम बंगाल की पटकथा भी साबित हो सकता है। सीटों के गणित को अगर छोड़ दें और वोट परसेंटेज पर बात करें तो बीजेपी को 8 फीसदी वोटों का फायदा हुआ है। हालांकि सीटें तो उसे 4 ही ज़्यादा मिलीं लेकिन बड़े राज्यों में अगर 8 फीसदी वोट बढ़ते हैं तो वह चुनाव की तस्वीर बदल देने वाले होंगे।
ज़ाहिर है कि दिल्ली चुनाव में जो बंटवारे और नफ़रत के करंट की राजनीति देखने को मिली है वह बिहार और पश्चिम बंगाल में भी जारी रहने वाली है। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी का स्टैंड भी अरविन्द केजरीवाल जैसा ही है। वह भी आगे बढ़कर शॉट खेलने में भरोसा करती हैं तो जाहिर है कि ममता को उनके रास्ते से डिगाना मुश्किल होगा लेकिन बिहार में लालू यादव के बेटों को सॉफ़्ट टार्गेट बनाना आसान होगा। लालू यादव अपनी बीमारी की वजह से खुलकर मैदान में नहीं निकल पाएंगे और उनके बेटे कम अनुभव की वजह से बीजेपी की बिछाई बिसात में आसानी से फंस जाएंगे।
बिहार का चुनाव इसी बात पर निर्भर करेगा। बिहार विधानसभा का सबसे बड़ा दल राजद अगर बीजेपी के सवालों का जवाब देने के चक्कर में फंस गया तो उसकी वापसी मुश्किल हो जाएगी लेकिन अगर उसने भी केजरीवाल की तरह एग्रेसिव होकर खेला और मौजूदा हुकूमत की नाकामियों पर सवालिया निशान लगाए तो नीतीश की वापसी आसान नहीं होगी।
बिहार चुनाव से पहले हालांकि विपक्ष एक बार फिर महागठबंधन बनाने की पहल कर सकता है लेकिन उस महागठबंधन में ज़्यादा से ज़्यादा सीटें हासिल करने की होड़ के बीच चुनाव आते-आते महागठबंधन में दरारें पड़ जाना भी संभव है।
दिल्ली चुनाव में आप की जीत के पीछे उनकी वह रणनीति है जिसमें सिर्फ अपने काम पर ही खुद को केंद्रित किये रहना है। न विपक्ष के किसी झांसे में फंसना है और न ही विपक्ष के सवालों का जवाब देना है। धर्म के आधार पर वोटों के ध्रुवीकरण की कोशिश से भी खुद को अलग किये रहना आपकी जीत की सबसे बड़ी वजह रही।
बीजेपी सरकार ने हाल ही में एनआरसी और सीएए का जो गिफ्ट जनता के लिए तैयार किया है उसका असर भी बिहार और पश्चिम बंगाल में नज़र आने वाला है। इस कानून के खिलाफ देश भर में विरोध प्रदर्शन चल रहा है लेकिन केन्द्र सरकार इंच भर भी पीछे हटने को तैयार नहीं है।
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इस कानून के विरोध की कमान क्योंकि महिलाओं के हाथ में है तो जाहिर है कि बिहार और बंगाल में चुनाव के दौरान यह कानून भी लोगों के दिमाग में रहेगा। इस कानून के खिलाफ सभी धर्म के लोगों में गुस्सा नज़र आ रहा है तो जाहिर है कि यह गुस्सा भी वोटों में बदलेगा।
ऐसे में आने वाले चुनावों में बीजेपी की राह आसान नहीं बल्कि मुश्किलों को बढ़ाने वाली होगी। दो साल बाद यूपी को भी चुनाव से गुज़रना है। नये कानून के खिलाफ आवाज़ उठाने वाले सैकड़ों लोगों ने जेलों में रातें काटी हैं। हज़ारों महिलाएं रात-दिन खुले आसमान के नीचे सरकार के खिलाफ आंदोलन कर रही हैं। चुनाव आएंगे तो यह कानून भी नई सरकार को बनाने में अपनी अहम भूमिका अदा करेगा। इस बात से इंकार आसान नहीं है कि लोकतंत्र में जनता कितनी भी निरीह हो लेकिन सिर्फ वही जनार्दन होती है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेख में उनके निजी विचार हैं)
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